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असलियत बस अँगूठा दिखाती रही

 

घुँघरुओं से बिछुड़ पैंजनी रह गई
मौन की रागिनी झनझनाती रही
 
अव्यवस्थित सपन की सूई हाथ ले
करते तुरपाई हम थे रहे रात भर
चीथड़ों में फटे वस्त्र सा पर दिवस
हमको देता अँधेरा रहा कात कर
ज़िन्दगी थी सिरा तकलियों का रही
पूनियाँ दूर होती गईं वक़्त की
सेमली फाहे ओढ़े हुए थे निमिष
असलियत पत्थरों सी मगर सख़्त थी
 
और पग की तली से विमुख राह हो
मोड़ पर ही नज़र को चुराती रही
 
ग्रीष्म की एक ढलती हुई दोपहर
तोड़ती अपनी अँगड़ाईयाँ रह गई
जो बनीं ताल पर चन्द परछाइयाँ
ज़िन्दगी है वही, ये हवा कह गई
आस का रिक्त गुलदान ले हाथ में
कामना बाग़ में थी भटकती फिरी
ताकती रह गई चातकी प्यास नभ
बूँद झर कर नहीं स्वाति की इक गिरी
 
कंठ की गठरियाँ राह में लुट गईं
शब्द की आत्मा छटपटाती रही
 
दृष्टि की उँगलियाँ खटखटाती रहीं
द्वार चेहरों के खुल न सके अजनबी
कोई आगे बढ़ा ही नहीं थामने
डोरियाँ नाम की थीं पतंगें कटी
एक पहचान संचित नहीं पास में
आईना हाथ फैलाये कहता रहा
कल्पना का क़िला था गगन तक बना
बालुओं का महल होके ढहता रहा
 
और असमंजसों को लपेटे खड़ी
असलियत बस अँगूठा दिखाती रही

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