आज फिर महका किसी की याद का चंदन
काव्य साहित्य | गीत-नवगीत स्व. राकेश खण्डेलवाल1 Aug 2009
आज फिर महका किसी की याद का चन्दन सुलग कर
आज फिर बदली नयन में एक सावन बो गई है
आज फिर ज्योतित हुए वे दीप कल जो बुझ गये थे
पीर के वह बंध फिर से खुल गये जो बँध गये थे
फिर बहारों से मिले हैं फूल सूखे पुस्तकों के
फिर हुए गतिमान पल, पीपल तले जो थम गये थे
फिर लगा है लौट आई है पलों की पालकी वह
आज तक लौटी नहीं, इस राह पर से जो गई है
चेतना, अवचेतना के शब्द धूमिल, हो उजागर
भावना के सिन्धु तट पर भर रहे हैं भाव-गागर
चित्र पलकों के दरीचों में विगत की आ सँवरकर
रँग रहे हैं मन वितानों को नई कूची सजा कर
चल रही कोमल पगों से जो हवा, के हाथ थामे
आज सुधि भी लग रहा है पंथ में ही सो गई है
आस पगली घूमती है, मुट्ठियों में स्वप्न बाँधे
पर्वतों से भी कहीं ऊँचे किए अपने इरादे
किन्तु है अदृश्य हाथों में थिरकती तकलियों सी
वह अजानी कौन उस पर किस तरह का सूत काते
चाव के रंगों से बनाई आँगनों की बूटियों के
एक हल्की सी नमी आ रंग सारे धो गई है
कामना की क्यारियों में गंध के पौधे उगाती
शब्द होंठों के लरजते छंद में बुनती सजाती
चित्र खींचे हैं क्षितिज पर एकरंगी भावना के
पाँखुरी लेकर अपेक्षायें सहज पथ पर बिछाती
पर प्रतीक्षा की विरासत में मिली हैं जो धरोहर
आज लगता उम्र उसकी और लम्बी हो गई है
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