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बारिश

 

अभी साढ़े चार बजे थे ऑफ़िस की बालकनी से झाँककर देखा सारा शहर बरसात में भीग रहा था और बारिश भी मूसलाधार जिसकी धार तेज़ थी। कुछ ही देर . . . हर ओर पानी था। एक घंटे बाद हम सब नीचे थे सबकी नज़र बिल्डिंग पर से होते हुए आकाश की ओर जा रही थी, जहाँ से अभी भी कुछ बूँदों के छींटे पड़ रहे थे। मिसेज मेहता के साथ मैं उनके छाते में स्वयं को छिपाता सामने की ओर निकल गया और कुछ ही देर बाद हम दोनों ने अपनी-अपनी राह पकड़ ली।

कुछ समय बाद से मेरे फोन पर मैसेज आना शुरू हो गये, “सर आज तो!” 

“वाह मनोज तुम तो छिपे रुस्तम हो? पार्टी तो बनती है भाई।” 

मैं तब समझ न सका था ये क्या माज़रा है, मुझे किसकी बधाइयाँ दी जा रही हैं और पार्टी किस चीज़ की? सहसा बाॅस का फोन बजा मैंने बिना देरी किये तीसरी घंटी पर उठा लिया। फोन से आवाज़ निकली, “मनोज तुम कहाँ हो और साथ में कौन है तुम्हारे साथ? मिसेज मेहता तो नहीं?”

मेरे नहीं कहने पर उनको लगा मैं झूठ बोल रहा हूँ। लगा सैकड़ों सवाल . . .

सामने से आती सविता मेरे चेहरे की तजवीज़ करते हुए पूछने लगी, “किसका फोन था?” पर इतने में दूसरी तरफ़ से फोन कट हो चुका था। मैं परेशान-सा हो गया मानो मैं कोई अपराघी हूँ। 

अब तक बारिश थम चुकी थी और मौसम भी साफ़ हो गया था पर बरसे पानी से लोगों की आवा-जाही में परेशानी हो गयी थी। घर अब चुप था पर बाहर से आने वाला शोर बहुत तेज़ी से बदल रहा था। रात सो गयी थी पर मैं अभी भी खुली आँखों से जाग रहा था। लंबी, बड़ी रात कुछ अधिक विकट लग रही थी। पहले एक पहर बीता फिर दूसरा और उसके बाद तीसरा, पर नींद कोसों दूर थी। आदमी जब विषाद में हो तो हर पल बहुत बड़ा व दुखदायी लगता है। मेरे मिसेज मेहता की छतरी में आने से इतना बड़ा बबाल हो सकता है ये मेरी कल्पना से परे था। 

रात बीतने लगी पर अब बारिश फिर से होने लगी बाहर भी और अंदर भी शायद। मिसेज मेहता मेरी बड़ी बहन की भाँति है पर ऑफ़िस के लोगों ने न केवल मुझे दुख दिया वरन् मिसेज मेहता को भी। सुबह जाने क्या होगा मिसेज मेहता के तो अश्रु ही छलक जायेंगे। हास-परिहास जीवन से संबद्ध है पर बिना प्रसंग को जाने राय देना दूसरों को तंग करने जैसा है यह सोचते हुए मेरी आँखें मुँद गयीं। 

सुबह सात बजे अलार्म बज गया लेकिन सब कुछ दिखने वाला, लगा, जैसे अब तक कुछ ठीक नहीं था। सविता चाय का प्याला देकर लौट गयी थी मैं भी चाय पीकर ऑफ़िस जाने की तैयारियों में जुट गया . . .

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