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प्रवचन

 

सामने प्रवचन चल रहा है। कोई प्रसिद्ध महात्मा आत्मा-परमात्मा पर अपना मंतव्य दे रहे हैं। उनको सुनने देखने के लिए ख़ासी भीड़ है। परिवार मित्र मंडली सब इधर-उधर पसरे दिख रहे हैं पर वहाँ पर भी कुछ अपने पसंद का स्थान चुनने में व्यस्त हैं। कोई बोलता, “वो कोना ख़ाली है वहाँ चलें।” 

दूसरा बोलता, “नहीं, वहाँ तो कूलर नहीं पंखा भी नहीं दिख रहा।” इधर-उधर पलटकर देखा, झाँका, मायूस होकर वहीं स्वयं को टिका देते। 

महिलाएँ भी अपनी-अपनी बातों में बिज़ी हैं पर महात्मा जी अपनी लंबी काली-सफ़ेद दाढ़ी पर हाथ फेरते बोलते हैं, “आत्मा अमर है, अजर हैं, आत्मा अनिश्चित समय तक जग में रहती है। शरीर नश्वर है वास्तव में निर्गुण सगुण कुछ हो सब में ईश्वर है . .  .” 

कोई बीच में दूसरे से बोलता, “नया मोबाइल? कौन सा है?” बोलते हुए उत्सुक निगाहें मोबाइल पर ही गड़ी हैं, “वाह कैमरा तो अच्छा है ये।”

“कौन ऑफ़िस वाली स्वीटी ही है ना . . .”  महिला ने दूसरी महिला के कपड़ों को देखा और अपनी जेठानी से बोली, “ये हर जगह यही कपड़े पहनकर आ जाती है,” चेहरे पर गंभीरता लिए बोली, “टीलू की शादी और बबलू के जन्मदिन पर भी यही पहने थी पर है अच्छी; ड्रैस कलर काॅम्बीनेशन भी अच्छा है . . .”

महात्मा जी अभी भी प्रवचन देने में व्यस्त हैं। किसी ख़ास समूह को ताड़ते हुए, “आत्मा का कोई निश्चित स्थान नहीं। वो तो सब में व्याप्त है। बिन आत्मा के शरीर की कोई सार्थकता ही नहीं . . .” 

“चलो यार शाम को दारू भी तो पीनी है।”

“नहीं,” दूसरा भाई कहता है, “मैंने तो छोड़ दी।”

संदेह से देखते हुए पहले ने पूछा,  “कब?”

“पिछली बार बहुत ज़्यादा हो गयी थी . . .” 

महात्मा जी इधर-उधर देखते हुए चालू हैं, “कर्म ही जीवन है और जीवन के कुछ लक्ष्य हैं . . .”

अर्थात्‌ यहाँ भी सब ओर अपनी-अपनी ढपली; अपना-अपना राग। सब कर्मों में व्यस्त हैं, जैसे चल रहे हैं; दो-एक पल भी कोई स्थिरता नहीं। सब दिखावा है, हर एक अपने-अपने रिक्त समय, स्थान को बिताने, दिखाने के तरीक़े हैं। दो पल भी किसी के पास समय नहीं। महात्मा अपना कर्म कर रहे हैं और संगत अपना . . .  कुछ बच्चे, “यार कब ख़त्म होगा बोर हो गये। अंकल मोबाइल में नैट है . . .” 

“शुशशशशशशशश चुप सामने देख . . .”

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