अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आत्मसंतुष्टि

मेरे एक बहुत दूर के मित्र यानी मित्र के भी मित्र मुझे एक जगह यानी हरिद्वार मिल गये। बिलकुल गंजे गंजही पहने घाट के किनारे हाथ में लोटा और कंधे पर एक भुदानी झोला लटकाए थे। पूछने पर पता चला उनके अस्सी वर्षीय पिताजी चल बसे। वो घाट पर बैठ गये और झूठ-मूठ प्रभु का स्मरण करने लगे क्योंकि ये चोला, माला, कंठी, कमंडल, खड़ाऊँ, जनेऊ आदि अपनाना सबकी प्रवृति नहीं होती। 

उन्होंने गंजही में से कुछ निकाला पर एक पचास का नोट भी गिर गया पर उन्हें पता न चला। अब क्या था, हर पास खड़े आदमी, यहाँ तक कि कुत्ता व कौआ, भी उनकी हरकतों को भाँपने लगे कि कैसे भी ये खिसका नोट अपने हो जाये। कुत्ते कौओं को तो धन-संपति से कोई लगाव नहीं क्योंकि इंसान ही इस मामले में लालची प्रवृति रखता है। जानवरों को कहाँ इतना ज्ञान होता है? मित्र के मित्र थोड़ा ही ढिगे कि तीन-चार आदमी और आये और वहाँ छीना-झपटी होने लगी; नोट फट गया सब इधर-उधर हो लिए। 

इस मित्र के पिता से मैं कभी दस साल पहले मिला था। जब मैं पहले मित्र के संग था तब भी ये मरने वाले थे, पर मृत्यु अपने वश में कहाँ! बेचारे दस साल से खटिया पकड़े थे अब कहीं जाके शरीर विसर्जित हुआ है। 

ज़रूरी काजों को निपटाकर आलू-कचोड़ी, दही-पुलाव आदि डकारकर वो ‘कभी फिर मिलना भाई’ बोलकर निकल लिए। दस बारह साल से अटके प्राणों को यहाँ पौने घंटे में गति मिल गयी। उनके चेहरे पर पिता के जाने के दुःख के साथ-साथ एक आत्मसंतुष्टि दिखाई पड़ी, मानो बरसों से उलझा काज आज पूर्ण हो गया हो। 

मैं काफ़ी देर तक सोचता रहा कि ये कौन महाशय थे? बहुत सोचकर पता चला ये हरवंश थे जो प्रशांत के मित्र के बड़े भाई थे। हाँ, शायद वही थे। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

वृत्तांत

स्मृति लेख

लघुकथा

पर्यटन

यात्रा-संस्मरण

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं