भारतीय संस्कृति और भाषा
आलेख | सामाजिक आलेख रमेश गुप्त नीरद1 Feb 2022 (अंक: 198, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
भाषावार प्रांतों में बँटा भारत कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक है। इसकी इस एकता की सुदृढ़ता में प्रादेशिक संस्कृतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। भिन्न-भिन्न भाषाओं और बोलियों के ताने-बाने से बुनी हुई प्रादेशिक संस्कृति का धरातल एक ही है। इसे हम विविधता में एकरूपता या अनेकता में एकता की संज्ञा देते हैं।
भौगोलिक स्थितियों और भाषाओं की विभिन्नता के कारण राज्य के लोगों के पहनावे और खान-पान की संस्कृति में यद्यपि थोड़ा-बहुत अंतर हमें देखने को मिलता है, किन्तु कुल मिलाकर इन बोलियों और भाषाओं ने अपनी सांस्कृतिक जड़ों को मज़बूती से पकड़ा हुआ है—और यही चेतना भारतीय संस्कृति की अस्मिता है। मुग़लों का आक्रमण रहा हो या अँग्रेज़ों की दासता-प्रत्येक विपरीतकालीन परिस्थिति में हमने अपनी सांस्कृतिक विरासत की रक्षा की है और नैराश्यता के अंधकार को अपनी सांस्कृतिक-किरणों की प्रकाशमयी धार से काटा है। यही कारण है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
संस्कृति क्या है और भाषा का संस्कृति से क्या सम्बन्ध है? संस्कृति बहुत व्यापक शब्द है जिसका प्रयोग अनेक और भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता आया है। सरल शब्दों में संस्कृति आचार-विचार, व्यवहार और आचरण की शैली है जो अभ्यासवश एक स्वभाव बन जाती है। हमारी सामाजिक मान्यताएँ, रीति-रिवाज़, परम्पराएँ और धार्मिक विश्वास सभी इसमें समाहित हैं। लोक भाषा में हम इन्हें संस्कार कहते हैं। संस्कार ही संस्कृति बनाते हैं। ये संस्कार हमें मिलते हैं अपनी भाषा से और भाषा बनती है घर-परिवार, समाज और परिवेश से। हम जैसी भाषा बोलते हैं हमारे संस्कार वैसे ही बनते हैं। आदर तथा सम्मानसूचक शब्द हैं तो उस भाषा को बोलने वाले व्यक्ति के आचरण में दूसरों के प्रति आदर और व्यवहार में विनम्रता झलकेगी।
भाषा का कार्य मनुष्य को विवेकशील और ज्ञानवान बनाना है। मानव समाजोपयोगी, राष्ट्रप्रेमी अथवा परिवार-ख़ानदान का नाम रोशन करने वाला कुलदीपक तभी बनता है जब वह अपनी बोली और आचरण में संस्कारी हो। दूसरे शब्दों में किसी भी समाज अथवा राष्ट्र के संस्कारों या संस्कृति की प्रबलता, सुदृढ़ता तथा प्रभाविकता में भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भारतीय संस्कृति यदि आज तक अक्षुण्ण रही है, सुदृढ़ और प्रभावशाली रही है तो इसके मूल में हमारी वैदिक और भारतीय भाषाएँ हैं जिनमें ’सर्वे सुखिन: भवन्तु’ की कामना और आत्ममुक्ति की भावनाएँ अन्तर्निहित हैं। भारतीय भाषाओं में रचा साहित्य भी इन्हीं भावनाओं और कामनाओं की अभिव्यक्ति है जिसके पठन-पाठन और ज्ञान से हमारी आत्मा आलोकित होती है। विश्व के लोग इसी कारण भारतीय संस्कृति से अभिभूत हैं।
हम एक ऐसी संस्कृति की धरोहर के मालिक हैं जिसने विश्व को दर्शन के क्षेत्र में महावीर, गौतम जैसे धर्म-प्रणेताओं को जन्म दिया तो सांस्कृतिक क्षेत्र में विवेकानंद और गाँधी जैसे व्यक्तित्व दिए।
आज हम एक आयातित संस्कृति और भाषा के शिकार हो रहे हैं। हमारी युवा पीढ़ी अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से एक ऐसी संस्कृति को अपनाने में मोहग्रस्त हो रही है जिसकी बुनियाद भोगवाद पर टिकी है। पाश्चात्य देश इस भौतिकवादी संस्कृति से उकताकर, इसके परिणामों की भयावहता से घबराकर पूर्व की ओर निहार रहे हैं अपने आत्मिक उत्थान के लिए-तो हम, इसकी चकाचौंध में आधुनिकता के नाम पर बड़े गर्व से इसे अपना रहे हैं। संयुक्त परिवारों में बिखराव और वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या इसके परिणाम हैं। यदि इस प्रवृत्ति और अपसंस्कृति पर अंकुश नहीं लगाया गया तो यौन-उच्छृलखंताओं और निजी स्वार्थों में लिप्त यह सभ्यता हमारी संस्कृति को लील जाएगी।
विदेशी भाषा का पठन-पाठन, अध्ययन क्षेत्र विशेष में महारथ हासिल करने के लिए होना चाहिए न कि अपने आप को महिमामंडित करने के लिए। ज्ञानार्जन का लक्ष्य समाजोपयोगी बनते हुए व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास होना चाहिए।
इसलिए युवा पीढ़ी, भविष्य की नई पौध, अपनी भरी झोली नासमझी और अज्ञान से ख़ाली ना करे। विदेशी भाषा का ज्ञान अर्जित करें अपनी संस्कृति और भाषा की समृद्धि के लिए।
किसी भी संस्कृति के विकास में उसकी भाषाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि भाषा ही मनुष्य की दूसरी जननी है।
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