रिश्ते
काव्य साहित्य | कविता रमेश गुप्त नीरद1 Feb 2022 (अंक: 198, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
झड़ झड़ झड़ झड़ते देखा है।
रिश्तों को भिड़ते देखा है।
जो अटूट थे, नहीं झूठ थे
मज़बूती से बँधे खूँट थे,
तड़ तड़ तड़ तिड़ते देखा है।
रिश्तों को भिड़ते देखा है॥
लोग कहें ये दुनियादारी
मैं कहता, रे मति है मारी।
रिश्तों की रिश्तों से यारी
सब पर पड़ती है ये भारी।
रिश्तों पर मिटते देखा है।
रिश्तों को मिटते देखा है॥
ज़रा सहेजो इनको भाई
क्यों दरार की नौबत आई?
मन की थोड़ा करो सफ़ाई
रिश्ते हैं अनमोल कमाई।
रिश्ते जीवन की भरपाई।
रिश्तों की दे रहा दुहाई॥
रिश्तों को बनते देखा है
रिश्तों को फलते देखा है।
रिश्ते तो रिश्ते हैं भाई
रिश्तों में अपनी ना पराई।
रिश्तों को पहचानो भाई।
रिश्ते शत्रु-मित्र ना भाई॥
रिश्तों में है हँसी समाई
रिश्तों में है जीवन भाई।
क़द्र करो रिश्तों की साँई
टीस भरो ना इनमें भाई॥
रिश्ते तो मख़मली रजाई
शीत हरें, दें उर्जा भाई॥
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