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पोंगल-पर्व

आज पोंगल पर्व, ढपली डमडमाना। 
ओ ख़ुशी! पाहुन बनो, ना लौट जाना। 
 
धान के कुछ अंश मैंने हैं भिगोये
क़र्ज़ के कुछ दंश भी जिनमें समोये
द्वार पर 'कोलम' भी हैं मैंने सजाये
और तोरण भी बँधे जो मन लुभाये। 
 
है यही सामर्थ्य, पोंगल है मनाना। 
ओ ख़ुशी! पाहुन बनो, ना लौट जाना। 
 
खदबदाते चावलों-सी ज़िंदगानी
है ग़रीबों की यही छोटी कहानी, 
पक रही पोंगल-सी, पोंगल पर जवानी
और उफनती भावनाओं की रवानी। 
 
आज पोंगल पर्व, मितवा गुनगुनाना। 
ओ ख़ुशी! पाहुन बनो, ना लौट जाना। 
 
ज़ुल्म-अत्याचार की फ़सलें उगाये
 गाँव के सरपंच जी नेता बने हैं। 
खेत-खलिहानों में बैलों से जुते
हम श्रमिक बेगार के बंधन बँधे हैं। 
 
अब हवा बदलो! लगे पोंगल सुहाना, 
ओ ख़ुशी! पाहुन बनो, ना लौट जाना। 

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