नववर्ष का नया संदेशा
काव्य साहित्य | कविता रमेश गुप्त नीरद15 Jan 2022 (अंक: 197, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
नववर्ष का नया संदेशा
रमेश गुप्त नीरद
संकल्पों के प्राण जगाने आया हूँ,
नववर्ष का नया संदेशा लाया हूँ।
आओ मिलकर नया देश निर्माण करें,
गीत क्रांति का नया सुनाने आया हूँ।
निर्धन का परिताप हरें हम,
दु:ख-दर्दों का साथ बने हम।
भूले-भटके हर राही की,
राहों का प्रकाश बने हम।
भाव यही अंतर में भरने आया हूँ।
नववर्ष का नया संदेशा लाया हूँ।
भूखा ना हो कोई जग में,
उनके संबलदार बने हम।
आस-निराशा में जो डूबे,
उनके तारणहार बने हम।
सब लोगों में ख़ुशी बाँटने आया हूँ।
नववर्ष का नया संदेशा लाया हूँ।
लूट रहे जो देश-संपदा,
आओ उनका परित्याग करें।
धर्म-जाति में बाँट रहे जो,
मिलकर उनका प्रतिकार करें।
प्रतिकारों का बिगुल बजाने आया हूँ।
नववर्ष का नया संदेशा लाया हूँ।
आरक्षण की विष-बेलों का,
आओ जड़ से संहार करें।
वर्ग-भेद की खाई पाटें,
समता-ममता व्यवहार रखें।
सुप्तजनों को आज जगाने आया हूँ।
नववर्ष का नया संदेशा लाया हूँ।
मैंने नवगीत लिखे
––– रमेश गुप्त नीरद ––-
अंधकार के तकिए पर सिर रखकर मैंने सपन बुने।
तपती साँस, दहकती पीड़ा से मैंने नवगीत लिखे॥
श्रम-सीकर से नहा नहा, जो तन का मैल छुड़ाते हैं।
फटे-पुराने वसनों में जो, ग्रीष्म-शीत सह जाते हैं।
सूखी-बासी रोटी खाकर, पानी पी रह जाते हैं।
धरती की गोदी में सिर रख, बालक-सा सो जाते हैं।
वंचित, शोषित इन पागल जन के मैंने गीत लिखे।
इस पागल ने हरदम देखो, पिछड़े जन के मीत रचे॥
लिए गोद में बालक पथ पर, हाथ पसारे जाती है।
आँखों में मन की पीड़ा, ना होंठों से कह पाती है।
वो याची, याचना लिए, कारों के द्वार थपाती है।
नहीं मिला कुछ तंग दिलों से, फिर भी आस लगाती है।
दुत्कारे जाने वालों की, मन के मैंने पीर लिखे।
आशाओं के रेतमहल, रचने वालों के गीत लिखे॥
34-35, वालटैक्स रोड, चेन्नई-600079
गीत-मेघा बरसे
रमेश गुप्त नीरद
पपीहा बोले आधी रात
मेघा बरसे सारी रात।
जाने किस सूने मन आज
सुधि-पीड़ा लाई बरसात,
लेकर जीवन मधुरिम राग
बूँदों ने भी गाया फाग।
महकी मिट्टी, महके पात
भीगा मन भी महका साथ।
मेघा बरसे सारी रात . . .।
झाड़-सरीखा जीवन जग में
झेल रहे जो अति लाचार,
तृषित धरा के अंक समाये
तृषित से ढोते जीवन भार।
कुसुमाये ये जीवन गात
आसमान जब बना प्रपात।
मेघा बरसे सारी रात . . .।
सपन सलोना झूला झूले
पावस की जब चले बयार।
मनवा डाली डाली झूमे
मधुर कंठ गाये मल्हार।
हरियायी पियरायी याद
मन द्वारे बन तोरण-पात।
मेघा बरसे सारी रात . . .॥
34-35, वालटैक्स रोड,
चेन्नै-600079।
फोन: 9381021015
कविता: एक पेड़ का प्रश्न
रमेश गुप्त नीरद
वो ज़मीन-
जो मुझे
अंकुरित करती है
पालती-पोषती
मेरी जड़ों को
नेह जल-धार से
सींचित कर
हरा-भरा रखती है
इस योग्य बनाती मुझे
कि मैं फलदार बन सकूं
उसके स्नेह,
ममत्व का कर्ज
तो कभी नहीं चुका सकता
पर-
उसकी आकांक्षाओं को
अवश्य
पूरा करता हूं-
और मीठे-मीठे फल
लोगों को
विश्राम करने वाले
राहगीरों को
देता हूं-नि: स्वार्थ
नि: संकोच।
-फिर तुम . . . . . .
ऐसा क्यों नहीं करते?
इंसान होकर
अपनी धरती-
अपनी ज़मीन-
अपनी माँ से
क्यों प्यार नहीं करते?
34-35, Wall-Tax Ro
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