री वसंत, तेरा स्वागत है!
आलेख | ललित निबन्ध रमेश गुप्त नीरद1 Feb 2022 (अंक: 198, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
री वसंत ॠतु! तू आ गई-अच्छा किया। सर्दी की धुंध ने हमारे मन के प्रकाश को, आत्मीयता-बोध को अपनी बाँहों में कस रिश्तों को सर्द बना दिया था। रिश्ते सर्द हवाओं में बँध जाएँ तो आदमी आदमी नहीं रहता। अच्छा हुआ वसंत, जो तू आ गई। कम से कम, आदमियत तो बच गयी जिसका इस समाज में अभाव चल रहा है।
री वसंत! तेरे आने से धान की खेती लहलहा रही है। सरसों हरहरा रहा है। गेंदा झूम-झूम कर गीत गा रहा है और केसर वसंती रंग बिखेरे, मस्ती के आलम से तन और मन दोनों को मदहोश कर रहा है। दूर कहीं ढप पर ताल और फाग देह में रास रचाने लगा है। क्यों ना री वसंत, मस्ती की इस मधुशाला की हाला में तू आदमी के अहं, द्वेष, अभिमान को प्रेम-प्याले में डूबो कर प्रेम की गंगा बहा दे?
री वसंत! पतझड़ मृत्यु है तो तू जीवन। तेरा उपकार प्रकृति कभी नहीं भूलती। मनुष्य बेशक भूल जाएँ। भौतिक समृद्धि से ऐंठते मनुष्य को तू संदेश देती है कि पतझड़ जीवन का सत्य है, तुम वसंत बनो। झरतों का सहारा बनो। विवश, नग्न, ग़रीब का आवरण बनो। किन्तु, कहाँ ग्रहण कर पाता है मनुष्य तेरा यह संदेश? इसीलिए दुःखी है, तनावग्रस्त है-मन से निर्जन, बियाबान है।
री वसंत! सौंदर्य की रानी!! तू परिवर्तन की शीतल बयार, मधुर राग है। तू कुनमुनाते लोगों की गुनगुनाती धूप है। तू परिवर्तन का यह अहसास इस समाज, राष्ट्र में जगा। उनमें खिलते गुलाब और महके गेंदा की ताज़गी के प्रति कर्तव्य-बोध जगा। तेरा यह अहसान, समाज माने न माने, मैं अवश्य मानूँगा। इन्हीं भाव-सुमनों के साथ-री वसंत ॠतु! तेरा स्वागत है।
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