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ब्राह्मण और मुसलमान

 

9 वीं कक्षा में नया-नया एडमिशन हुआ था। लड़कियों की लाइन में वह सबसे पीछे बैठी थी। गम्भीर मुद्रा में कुछ सोच रही थी। अपने में कुछ खोई-सी थी। तभी उसकी बग़ल में एक और लड़की आकर बैठ गई। कुछ देर अनमने से रहने के बाद दोनों में बात-चीत शुरू हुई। पहली वाली ने दूसरी से पूछा, “तुम्हारा, नाम क्या है?” 

“फ़ौजिया ख़ानम।”

“और तुम्हारा?” 

“मंजरी द्विवेदी।”

यह उनका आपस में पहला परिचय था। इसके बाद 9 वीं क्लॉस में प्रवेश लेने से लेकर 12 वीं जमात में पढ़ाई पूरी कर स्कूल से निकलने तक, दोनों साथ ही रहीं। बल्कि एक दोस्त के तौर पर तब तक साथ रहीं, जब तक उनकी साँसें चलती रहीं। उन्होंने समाज के नियम-क़ायदे को तोड़ा, सामाजिक बन्धनों को धता बताया और वर्जनाओं को अँगूठा दिखाया। 

मंजरी का रंग गोरा और क़द छोटा था। वह दो चोटी बाल बाँधती थी। वह ज़्यादातर गम्भीर मुद्रा में ही रहती थी। जबकि फ़ौजिया गोरी और लम्बी थी। उसकी आँखें भूरी थी। वह एक लम्बी चोटी बाल बाँधती थी। उसकी बहुत सारी बातें और कहानियाँ होतीं थी, जिसे वह मंजरी के चाहने, न चाहने पर भी सुनाती रहती। स्कूल में दोनों साथ पढ़तीं, साथ खातीं, आपस में टिफ़िन भी शेयर करतीं। अन्त्याक्षरी, लुडो, खो-खो और बैडमिंटन साथ खेलतीं। एक-दूसरे की नोटबुक घर ले जातीं

बच्चों की दोस्ती बड़ों तक जाती है। दोनों ने अपने-अपने घरों में एक-दूसरे के बारे में बताया। उनके घर वालों में भी आपसी सद्भाव बढ़ा। वो लोग भी आपस में मिलने-जुलने लगे। शादी-ब्याह या कोई फ़ंक्शन होता तो एक-दूसरे को ‘इनवाइट’ करते। एक-दूसरे की धर्म और भावनाओं का ख़्याल रखते हुए खान-पान में सतर्कता बरतते। 

एक दिन यह बात पूरे गाँव में करन्ट की तरह फैली और पूरा गाँव मंजरी के पिता के दरवाज़े पर आ धमका। दस हज़ार की आबादी वाले गाँव के सभी अगड़े, पिछड़े और दलित समुदाय के मानिंद लोग वहाँ पहुँचे थे। जिसमें राजपूत, लाला, यादव, गुप्ता, हरिजन, बिन्द, धीमर, पासी, धोबी, केवट, मल्लाह, निषाद, लुहार, कुशवाहा तथा प्रजापति इत्यादि सभी थे। सुबह-सुबह अपने दरवाज़े पर इतनी भीड़ देखकर पंडित दीनबन्धु द्विवेदी कुछ सहम गए। उन्होंने घर में आवाज़ लगाकर कहा कि, “बहुत सारे जजमान आए हैं। इनके बैठने और पानी पीने की व्यवस्था की जाए।”

तभी उनमें से एक व्यक्ति बोला, “नहीं . . . नहीं . . . हम बैठने या पानी पीने नहीं आए हैं। हमें आपसे कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं।”

पंडित दीनबन्धु द्विवेदी सशंकित होकर पूछे, “बताइए क्या बात है?” 

तब दूसरा व्यक्ति बोला, “पंडी जी, ये क्या हो रहा है?” 

पंडित दीनबन्धु द्विवेदी कातर दृष्टि से देखकर बोले, “मैं कुछ समझा नहीं। आप लोग कहना क्या चाहते हैं?” 
इसके बाद तीसरे व्यक्ति ने कुछ तंज़ कसते हुए कहा कि, “हमने सुना है कि आप बग़ल वाले गाँव में मुसलमानों के यहाँ ताजिए में शामिल होने गये थे?” 

“हाँ, आप सबने सही सुना है। परन्तु इसमें ग़लत क्या है?” 

इस पर अखण्ड प्रताप सिंह की त्यौरियाँ चढ़ गईं। वो दहाड़ते हुए बोले, “आप हमारे धर्म को भ्रष्ट कर रहे हैं। आपसे ये उम्मीद नहीं थी। आप बिल्कुल सठिया गए हैं।”

अभी पंडित दीनबन्धु कुछ बोलते, उसके पहले ही महेश यादव बोल उठे, “हम लोग जाते हैं तो चल जाता है। पर आपका वहाँ जाना उचित नहीं है। आपको इससे बचना चाहिए था।”

पंडित दीनबन्धु, “मेरा वहाँ जाना क्यों उचित नहीं है? मुझे क्यों जाने से बचना चाहिए? इसमें मेरी ग़लती क्या है?” 

इतना सुनते ही मुटुर राम बौद्ध बिफरते हुए बोले, “अरे . . . ई बाम्हन लोग सब दिखावे के लिए ढोंग करते हैं। हम लोगों पर रोक लगाते हैं और ख़ुद अन्दर-अन्दर मिले रहते हैं। इसीलिए तो हमारी जात-बिरादरी का इनसे मोहभंग हो गया है। हम लोग इन्हें त्याग रहे हैं और चाहते हैं कि दूसरे लोग भी इन्हें त्याग दें।” 

ऐसी बातें सुनकर पंडित दीनबन्धु बहुत आहत हुए। उन्हें इसकी बहुत चोट लगी। वो भरभराए गले से बोले, “छोड़ दीजिए। आप लोगों को कौन रोका है? पर ये बताइए कि इसमें मेरी क्या ग़लती है? कहाँ गई आप लोगों की संविधान सम्मत बातें? समानता का अधिकार? सामाजिक सद्भाव और मानवता की बातें? सामाजिक न्याय और समतामूलक समाज की अवधारणा? यहाँ संविधान की हत्या कौन कर रहा है? इसकी हत्या का आरोप तो हमेशा से हम पर लगाया जाता रहा है।”

इतना सुनते ही आशीष गुप्ता बोल उठे, “आप धर्म और समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। आपको देखकर लोग फ़ॉलो करते हैं। आपसे हमेशा बेहतर की उम्मीद रहती है।”

पंडित दीनबन्धु बोले, “यही तो है सबसे बेहतर मार्ग। लोग आपस में मिलकर रहें। हिन्दू-मुसलमान वैचारिक रूप में एक हो जाएँ। इससे बेहतर और क्या हो सकता है?” 

इतने में बग़ल वाले गाँव से वहाँ फ़ौजिया के पिता डॉक्टर हमीदुद्दीन खां भी बाइक से आ गए। उन्हें इस बात की भनक लग गई थी। उनके साथ फ़ौजिया भी आई थी। उसने जाकर दालान में खड़ी मंजरी का हाथ पकड़ लिया। फ़ौजिया के अब्बू लोगों से मुख़ातिब हुए, “इसमें ग़लती मेरी है। आप लोग आपस में सम्बन्ध ख़राब मत करिए। मैं इसके लिए माफ़ी माँगता हूँ। मैं पंडित जी से दूरी बना लूँगा।”

इस पर रणंजय सिंह फ़ौजिया के अब्बू को ललकारते हुए बोले, “ये हमारा मैटर है। इसमें आपको बोलने का कोई हक़ नहीं। हम आपको बुलाने नहीं गए थे। कृपया आप चुप रहिए। यहाँ भीड़ है। कुछ ऊँच-नीच हो जाएगी तो लोग कहेंगे कि मॉब लिंचिंग हो गई।”

इस पर फ़ौजिया के अब्बू मौक़े की नज़ाकत को भाँपते हुए चुप रहना ही मुनासिब समझे। 

लेकिन पंडित दीनबन्धु से रहा नहीं गया वह ओजपूर्ण स्वर में बोले, “खां साहब माफ़ी किस बात की? और किन लोगों से माफ़ी? हमारी और आपकी आपसी समझ ठीक है, तो बाक़ी लोगों को जय श्रीराम।”

इस पर नाटर पासवान चिढ़ते हुए बोले, “हम सब यहाँ आपकी बक-बक सुनने नहीं आए हैं। ब्राह्मणों ने हमेशा से धोखा दिया है। छल किया है। आज हम फ़ैसला करने आए हैं। वो सदियों से हमें बहिष्कृत करते आए हैं। आज हम उन्हें बहिष्कृत करने आए हैं। मौक़ा भी है, दस्तूर भी है और सभी लोग एकजुट भी हैं। बस हमें आपके निर्णय का इंतज़ार है।”

इस पर पंडित दीनबन्धु बोले, “यहाँ मेरे दरवाज़े पर आप लोगों का इतनी संख्या में आना, अपने आप में एक साज़िश का हिस्सा है। ये साज़िश आज की नहीं है। ये ब्राह्मणों के ख़िलाफ़ दशकों से चली आ रही है। ब्राह्मणों को हमेशा से निशाना बनाया जाता है। उनके ख़िलाफ़ ज़हर उगला जाता है। हमेशा उनके ख़िलाफ़ माहौल बनाकर छोटी-छोटी बातों को तूल दिया जाता है। आज के समय में ये चीज़ें बेतहाशा बढ़ गई हैं। सोशल मीडिया पर सबसे ज़्यादा ब्राह्मणों के ख़िलाफ़ लिखा जाता है। एक पूरा तंत्र है, हमें बदनाम करने के लिए। मेरा निर्णय आप लोग सुनना चाहते हो तो सुन लो, मैं अपने उसूलों से समझौता नहीं कर सकता। मैं हिन्दू-मुस्लिम एकता का पक्षधर हूँ। और इस समय मैं हर हाल में खां साहब के साथ खड़ा हूँ।”

इतना सुनते ही धनंजय निषाद ने कहा कि, “कोई बात नहीं। हम सब आपका बहिष्कार करते हैं।”

तदुपरान्त वहाँ से भीड़ छँट गई। लोगों ने पंडित दीनबन्धु का बहिष्कार कर दिया। डॉक्टर हमीदुद्दीन खां भी जाने को हुए तो पंडित दीनबन्धु ने उन्हें रोक लिया और कहा कि चाय पी कर जाइएगा। घर के आँगन में मंजरी और फ़ौजिया के हँसने की आवाज़ आ रही थी। सबकुछ सामान्य था। जैसे लग ही नहीं रहा था कि अभी-अभी यहाँ कुछ हुआ हो। 

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