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निठल्ला आदमी

 

सड़क के किनारे एक पुराने और बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे एक ज्योतिषी बैठा करता था। एक दिन उसके पास एक आदमी आया और उससे पूछा, “हाथ देखने के कितने रुपये लेते हो?” 

ज्योतिषी ने कहा, “50 रुपये।”

व्यक्ति बोला, “चलो ठीक है। मेरी वाइफ़ प्रेगनैंट है। मेरा हाथ देखकर बताओ कि लड़का होगा या लड़की?” 

ज्योतिषी बहुत देर तक उसका हाथ देखता रहा। फिर निष्कर्षस्वरूप बताया कि, “ख़ुशख़बरी है। लड़का होगा। आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।”

इस पर वह व्यक्ति चीखकर कहा, “झूठ। महाझूठ। सरासर झूठ। अभी एक महीने पहले जब मेरी पत्नी आई थी, तो आपने कहा था कि लड़की होगी। ये क्या माजरा है?” 

तब ज्योतिषी ने कहा, “मुझे याद नहीं है।”

इस पर व्यक्ति ने व्यंग्य स्वरूप तंज़ कसा, “याद कहाँ से रहेगा? झूठ की दूकान खोलकर जो बैठे हो! अगर सच में ज्योतिषी हो तो अपने दिव्य ज्ञान से पता कर लो कि मेरी पत्नी यहाँ हाथ दिखाने आई थी या नहीं?” 

ज्योतिषी ने मौक़े की नज़ाकत को भाँपते हुए कहा, “सुबह-सुबह का टाइम है। रोज़ी-रोटी का सवाल है। अभी बोहनी भी नहीं हुई है। कृपया आप यहाँ से जाइये।”

तब उस व्यक्ति ने कहा, “अभी आपकी बोहनी नहीं हुई है, तो इसमें मैं क्या करूँ? और फिर आप कौन होते हैं, मुझे यहाँ से भगाने वाले?” 

बात बढ़ता देखकर ज्योतिषी गिड़गिड़ाकर बोला, “तमाशा मत बनाइए। पूरा दिन बेकार चला जाएगा। मेरा भी परिवार है। बच्चे हैं। शाम को चूल्हा भी जलाना है। आपकी वजह से फाँके मारने पड़ सकते हैं।”

ज्योतिषी की ये दलील सुनकर व्यक्ति कुछ नरम पड़ा, “तो ये बात है। पर आपने झूठ क्यों बोला? सच तो ये है कि आपको ज्योतिषशास्त्र का कुछ भी ज्ञान नहीं है।”

तब ज्योतिषी कुछ कुढ़ते हुए बोला, “हाँ, यही सच है। मुझे ज्योतिषशास्त्र का क ख ग भी नहीं पता है। मैं झूठा हूँ। मेरी सात पीढ़ियाँ झूठी हैं। हम वर्षों से इसी तरह कमाते-खाते चले आ रहे हैं। कृपया आप यहाँ से जाइये। ईश्वर के वास्ते और मेरे बच्चों के वास्ते आप यहाँ से चले जाइये।”

इतना सुनते ही वह व्यक्ति वहाँ से उठकर जाने लगा। उसके जाते ही जो भीड़ वहाँ इकट्ठा हो गई थी, वो भी अब छँट गई। इस पर ज्योतिषी ने राहत की साँस ली। 

यही बात वह आदमी अपने दोस्त से बताकर ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से हँस रहा था। बड़े गर्वमिश्रित भावबोध के साथ व्यंग्योक्ति में वह कह रहा था कि, “ज्योतिषी ने बहुत जल्दी हार मान ली। ज़्यादा प्रतिकार भी नहीं किया। मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है। जब शादी ही नहीं हुई है तो पत्नी कहाँ से आ जाएगी? जब पत्नी ही नहीं आएगी तो प्रेगनैंट कहाँ से होगी? और जब प्रेगनैंट ही नहीं होगी तो बच्चे कहाँ से पैदा होंगे?” 

इतना सुनते ही उसके दोस्त ने कहा, “तुम जैसे निठल्लों की वजह से ही देश का बेड़ा ग़र्क़ है। बाप के टुकड़ों पर पल रहे हो। मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ रहे हो। इसलिए इतना बकवास कर लेते हो।”

दोस्त की ऐसी जली-भुनी बात सुनकर व्यक्ति तमतमा गया। क्रोधाग्नि में चूर होकर उलाहनास्वरूप पूछा, “कहना क्या चाहते हो?” 

दोस्त ने बड़े बेबाकी से जवाब दिया, “यही कि वह ज्योतिषी जैसे-तैसे अपना परिवार चला रहा। वह झूठ का इतना बड़ा साम्राज्य नहीं खड़ा कर लिया है कि तुम जैसे महाप्रतापी सम्राट उसके क़िले की दीवार में अन्तिम कील ठोकने पहुँच जा रहे हैं। फिर भी वह एक बहुत बड़े जनमानस को दिलासा देकर निराशा के गर्त से उबारता है। वह लोगों के पास नहीं जाता। लोग उसके पास चलकर आते हैं। कुछ समझे भी या नहीं? . . . और सबसे बड़ी बात, भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में आंशिक रूप से ही सही वह भी योगदान कर रहा है। पर तुम क्या कर रहे हो? अपना देखो।”

इतना सुनते ही वह व्यक्ति अपना-सा मुँह लेकर रह गया। 

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टिप्पणियाँ

अनुराग कुमार यादव 2024/06/30 10:04 PM

यह कहानी पढ़ते वक्त हंसी भी आती है और गुस्सा भी, जबरदस्त।

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