दिल्ली
काव्य साहित्य | कविता उपेन्द्र यादव15 May 2024 (अंक: 253, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
नई नहीं है दिल्ली
हज़ारों साल पुरानी है
छोटी नहीं है दिल्ली
करोड़ों लोग रहते हैं
बहुत दंश झेली है दिल्ली
ख़ून के आँसू रोई है
बहुत आए राजा-महाराजा
सबने इस पर राज किया
सबने इसको भोगा-झेला
सबने इसको चेरी समझा
सब मिट गये इसी मिट्टी में
पर आज भी खड़ी है दिल्ली
दिल्ली कहती है लोगों से
पद, पैसा, दर्प सब मिट जाएगा
रह जाएँगी केवल कुछ निशानियाँ
बो सको तो प्रेम के बीज बोना
जब जाना ही है इस धरा से
तो कुछ बेहतर करके जाना
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Anurag yadav 2024/06/30 09:46 PM
वाह बहुत ही अच्छी कविता