मैं शहर बनाता हूँ
काव्य साहित्य | कविता उपेन्द्र यादव1 Jun 2024 (अंक: 254, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
जिस शहर में मैं रहता हूँ
लोग उसे मेरी वजह से जानते हैं
उसी आधार पर अपनी
धारणाएँ पुष्ट करते हैं
एक शहर मेरे जैसे
तमाम लोगों से बनता है
उनके द्वारा किए गए व्यवहार से
बाहरी या अजनबियों को
अच्छा या बुरा लगता है
जिससे वो उस शहर से
प्यार या नफ़रत करते हैं
सच में मैं ही शहर हूँ
अपने अन्तर में
एक पूरे क़स्बे को समेटे
उसकी तमाम ख़ूबियों के साथ
ख़ुद को व्यक्त करता हुआ
जब भी मेरा ज़िक्र आता है
लोग मेरे शहर को याद करते हैं
उसे हसरत भरी निगाह से देखते हैं
सचमुच, मैं शहर बनाता हूँ।
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