ब्राह्मणवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आंदोलन है छठ महापर्व
आलेख | सामाजिक आलेख नवल किशोर कुमार19 May 2012
मनुवादी सामाजिक व्यवस्था में अध्यात्मिक स्वतंत्रता का घोर अभाव दिखता है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था में मानव शरीर को भी चार हिस्सों में बाँटा गया है। मुख और मस्तिष्क को ब्राह्मण कहा गया है, हाथों को क्षत्रिय, पेट को वैश्य कहा गया है और वे अंग, जो उत्सर्जन का कार्य करते हैं उन्हें शुद्र कहा गया है। सामाजिक व्यवस्था के नाम पर शोषण का यह तरीका युग-युगांतर से भारतीय समाज में दुहराया जाता रहा है। हिन्दुओं के अधिकांश पर्व किसी न किसी कर्मकांड से जुड़े हैं और हर पर्व के पीछे कहानी पढ़ने को मिल ही जाता है। कभी किसी देवता ने किसी राक्षस को मारा तब पर्व, कभी किसी का जन्म हुआ तब पर्व और यही नहीं वैसे देवता जिनके बारे में लोगों को जानकारी भी नहीं होती और उनकी भी पूजा की जाती हैं। हिन्दुओं में पर्वों के प्रति अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए मनुवादी ब्राह्मण व्यवस्था ज़िम्मेवार है जिसने पर्वों के वास्तविक महात्म्य के बदले मनगढ़ंत कहानी लोगों को सुनाता आया है। वास्तविकता यह है कि हर पर्व के पीछे मनाये जाने वाले क्षेत्रों की भौतिक परिस्थितियाँ प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी होती हैं। उदाहरणस्वरूप होली का त्योहार पूरे उत्तर भारत में गेहूँ की फसल पक जाने के उपरांत और कटाई के पूर्व मनाया जाता है। यह वह समय होता है जब किसान अपने कार्यों से मुक्त रहते हैं। लेकिन पौराणिक किताबों में कुछ और ही कहानी पढ़ने को मिलती है। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनाया जाने वाला छठ महापर्व अपने आप में अनूठा पर्व है। यह अनूठा या अद्वितीय इसलिए है क्योंकि इस महापर्व के हर स्तर पर ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध किया गया है। इस पूरे महापर्व के दौरान ब्राह्मणों का शामिल न किया जाना, नदी या तालाब के किनारे समाज के हर वर्ग के लोगों का एक साथ जुटना और बुतपरस्ती की परंपरा को तोड़ते हुए प्रत्यक्ष सूर्य और प्रकृति को अर्घ्य देना इसी तथ्य की पुष्टि करता है। यही कारण है कि छठ पौराणिक पर्व न होकर लोकपर्व है। आमतौर पर हर पर्व में जाति व्यवस्था का ख़्याल रखा जाता है लेकिन छठ पर्व में ऐसा कोई पड़ाव नहीं आता जिससे जातीय या आर्थिक अंतर सुस्पष्ट होता है। उदाहरणस्वरूप महापर्व के पहले दिन हर व्रती स्नान कर स्वच्छ रूप से पकाये गये चावल अर्थात भात, चने की दाल और कद्दु की सब्जी से नहाय-खाय की प्रक्रिया पूर्ण की जाती हैं। आर्थिक संपन्नता या विपन्नता के कारण चावल की गुणवत्ता में अंतर होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन अन्य सामग्रियों में एकरूपता निश्चित है। अमीरी या गरीबी इस प्रक्रिया में विभेद उत्पन्न नहीं करता है। इसी प्रकार पर्व के दूसरे दिन शाम में जब गोइठा और आम की सूखी लकडी का उपयोग जलावन में करके मिट्टी के बरतन में खीर और आटे की रोटी बनायी जाती है। इसके बाद सर्वप्रथम व्रती और उनके परिजन पकायी गयी खीर और रोटी का उपभोग प्रसाद के रूप में करते हैं। इसके बाद गाँव, मुहल्ले और सभी रिश्तेदारों को यही प्रसाद दिया जाता है। प्रसाद देने के क्रम में जाति का ख़्याल नहीं रखा जाता है। यद्यपि ऊँची जाति के लोगों में प्रसाद देते समय पक्षपात किया जाता है जो कि उनका नैसर्गिक गुण है। तीसरे दिन सभी व्रती और उनके परिजन नंगे पाँव नदी और तालाबों के किनारे बने घाटों पर जाते हैं और सारे महिला और पुरुष व्रती एक वस्त्र में अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देकर उनकी उपासना की जाती है। ठीक यही प्रक्रिया अगले दिन उषाकाल में उदयीमान सूर्य की उपासना कर दुहराई जाती है। और इसी के साथ छठ महापर्व का समापन होता है। समापन से पहले सारे व्रती अदरख और गुड़ से 36 घंटों से चल रहा निर्जला उपवास तोड़ते हैं। उल्लेखनीय है कि इसमें भी कहीं कोई अंतर नहीं होता। वर्तमान में छठ महापर्व को लेकर लोगों में कई भ्रांतियाँ भी हैं लेकिन ये भ्रांतियाँ कृत्रिम ही सही मगर महापर्व की गरिमा को बनाये रखने में सहायक सिद्ध होती हैं। कृत्रिमता रहित और बिना भेदभाव के मनाया जाने वाला छठ महापर्व सनातन धर्म की गरिमा बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। ऐसे भी भारत अनेकता में एकता का देश है और एकता को बनाये रखने के लिए अनेकता के बजाय एकता का सूत्र ढूँढने की आवश्यकता है। इस आवश्यकता को छठ महापर्व पूर्ण करने में सक्षम हो सकता है। |
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