धनिया की ख़ुश्बू
काव्य साहित्य | कविता राजेंद्र ‘राज’ खरे1 Nov 2022 (अंक: 216, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
[1]
तुम धनिया की ख़ुश्बू हो
ताज़ी हो, शुभ हो,
प्रेम की पंखुरी हो,
उँगलियों में तुम लिए-
मेरा संसार हो।
[2]
जीवन के इस मोड़ पर जब-
पीछे कुछ छूट गया हो–
समय हो या स्मृतियाँ हों-
एक विश्वास की तूलिका तुम,
चित्रों की छाया हो,
जीवन का आकार हो।
[3]
धूप की दोपहर में,
पत्थर-पटी सड़कों,
लम्बे केशों वाली तुम–
एक छोटी सी फ़्रॉक का
ख़ुशनुमा अहसास हो।
[4]
तुम धनिया की ख़ुश्बू हो
ताज़ी हो, शुभ हो,
प्रेम की पंखुरी हो,
उँगलियों में तुम लिए-
मेरा संसार हो।
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