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जितेन्द्र मिश्र ‘भास्वर’ – 005 मुक्तक


1. 
भावना का ज्वार भाटा छोड़िए। 
ज़िन्दगी को प्रेम पथ पर मोड़िए। 
लीजिए सौगंध ऐसी साथ में, 
आपसी जो प्रीत है मत छोड़िए। 
2. 
स्वयं लगे हैं अपनी सभ्यता मिटाने में। 
देखो बस्तियाॅं उजड़ गई फिर से बसाने में। 
हम कर रहे हैं फ़ुज़ूल में झूठा दिखावा, 
दर्द कोई बाॅंटता नहीं अब ज़माने में। 
3. 
दिखावा कर रहे हैं लोग, देते आज नज़राना। 
हृदय में द्वेष पलता है, निभाते ख़ूब याराना। 
पता चलता नहीं अक़्सर, कि ख़ंजर कौन भोंकेगा। 
बदलते घूम कर केंचुल, यही है काम रोज़ाना। 
4. 
अहंकार की चक्की का जो खाते हैं। 
लोगों को जो झूठी शान दिखाते हैं। 
चलते हैं जो भी अधर्म की राहों पर, 
निश्चित ही वे अपना पतन कराते हैं। 
5. 
राजनीति में दाॅंव-पेंच के, तीर चलाए जाते हैं। 
जब चुनाव का बिगुल बजा तब, लोग मिलाए जाते हैं। 
निष्ठा से जो दल में रहता, उसका मान नहीं होता। 
बस विरोध में काले झंडे, ख़ूब दिखाए जाते हैं। 

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