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सभी चाहते पड़े फ़ुहार

जयकरी छंद पर आधारित कविता

 

गरमी पड़ती अपरंपार। 
मौसम की पड़ती है मार। 
धरती जलती जैसे आग। 
सबको पानी की दरकार। 
सभी चाहते पड़े फ़ुहार . . .॥
 
कौन है इसका ज़िम्मेदार। 
कैसे होगी पैदावार। 
नीर बचाओ कहते लोग। 
नहीं करें कोई उपचार। 
सभी चाहते पड़े फ़ुहार . . .॥
 
चाह रही धरती जलधार। 
श्यामल हो जाए घर द्वार। 
पेड़ काटते जाते लोग। 
करते धरती का संहार। 
सभी चाहते पड़े फ़ुहार . . .॥
 
जल बिन होता हाहाकार। 
प्रकृति करे कैसे शृंगार। 
बूँद बूँद को तरसे लोग। 
सच्चाई कर लें स्वीकार। 
सभी चाहते पड़े फ़ुहार . . .॥
 
चलती है अब नहीं बयार। 
जल के सब ख़ाली भंडार। 
जल के स्रोत बढ़ाए कौन। 
होता बातों का व्यापार। 
सभी चाहते पड़े फ़ुहार . . .॥
 
जल के प्यासे करें पुकार। 
इक अनार है सौ बीमार। 
भंडारे करते कुछ लोग। 
निभा रहे हैं लोकाचार। 
सभी चाहते पड़े फ़ुहार . . .॥
 
मिलकर हम सब करें विचार। 
करें नहीं जल को बेकार। 
पेड़ लगाएँ हम सब ख़ूब। 
तब हो ख़ुशियों की बौछार। 
जीवन में तब पड़े फ़ुहार . . .॥

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