जूती खोलने की जगह ही नहीं है
काव्य साहित्य | कविता पवन कुमार ‘मारुत’15 Sep 2025 (अंक: 284, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
पाँच-पाँच लताएँ लहराई मेरे बग़ीचे में,
परन्तु दुर्भाग्यवश कमी रही तो एक गुलाब की।
बीज बोये बार-बार,
लेकिन हर बार बीज बेल का ही निकला।
शायद बीज मिले हुए थे आपस में,
जिनको अलग करना इन्सान के वश में नहीं।
बाग़ बेलों ने कर दिया गुलज़ार,
भर गया भिन्न-भिन्न बेलों से मेरा आँगन।
अलग-अलग रंग-रूप की बेलें,
अलग-अलग स्वभाव वाली,
मुझे लगती सभी समान रूप से प्यारी।
धीरज धरकर पाला-पोसा प्यारी-प्यारी बेलों को,
प्राण से प्यारी रखी, पूरा-पूरा प्यार दिया।
कब लताएँ लड़कपन से गुज़रीं,
मुझे पता ही नहीं चला,
कि कब यौवन की प्याली भर लाईं।
जो भी आता इस हरे-भरे बाग़ में,
कहता है नाक-भोंहें सिकोड़कर,
गुलाब बिना ये लताएँ किस काम की?
बहुत बार रोता हूँ दिन में,
और सिर्फ़ एक ही बात बार-बार सोचता हूँ,
काश! एक गुलाब तो खिलता मेरी बग़िया में।
कम से कम लोग यह तो नहीं कहते कि,
ऐसा गुलशन-गृह किस काम का?
जहाँ जूती खोलने की जगह नहीं हो॥
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