मज़े में मरती मनुष्यता
काव्य साहित्य | कविता पवन कुमार ‘मारुत’15 May 2025 (अंक: 277, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
(मनहरण कवित्त छन्द)
देह देह निचोड़ती नरम नश्तर नाल,
वासना विचार वेग बहुत बढ़ाती है।
विवेक विनाश करे कामना कलंकी कहे,
नस-नस नवीनतम नूर नहाती है।
सहमति समेत संयम साथी सुख देता,
सरसता सहजता सबको सुहाती है।
बेमर्जी बेहद क्रूर कलुषित कहलाता,
“मारुत” मनुष्यता मज़े में मर जाती है॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अन्धे ही तो हैं
- अब आवश्यकता ही नहीं है
- आख़िर मेरा क़ुसूर क्या है
- इसलिए ही तो तुम जान हो मेरी
- ऐसा क्यों करते हो
- चाय पियो जी
- जूती खोलने की जगह ही नहीं है
- तीसरा हेला
- तुम्हारे जैसा कोई नहीं
- धराड़ी धरती की रक्षा करती है
- नदी नहरों का निवेदन
- नादानी के घाव
- प्रेम प्याला पीकर मस्त हुआ हूँ
- प्लास्टिक का प्रहार
- मज़े में मरती मनुष्यता
- रोटी के रंग
- सौतन
- हैरत होती है
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
किरण घुणावत 2025/05/07 12:30 AM
मारुत जी आपने वर्तमान समय के संवेदनहीन होते समाज का सुन्दर जिक्र किया है।