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तीसरा हेला

 

(मनहरण कवित्त छन्द)
 
बालक-बालिका बेचारे बदक़िस्मत बड़े,
खड़े दरवाज़े दरम्यान दिखाई दिए।
शरद सुबह समय सवा सात बजे का,
बाहर बहु जन जमा कोलाहल किए।
बिलख-बिलखकर रोय रही उनकी माँ,
बच्चे देख-देख व्याकुलता विलाप किए।
पिताजी परलोक पधारे पंचतत्त्व तज,
कैसे बापूजी बिना बालक जीवन जिए? (01)
 
बालक अभी आठ का पाँच पहुँची बालिका,
अबोध अनजान असमंजस पड़े हैं।
माया मृत्यु मकड़ी की नहीं जानते बालक,
देख माता का रुदन रो बालक पड़े हैं।
माथा मार-मार माँ करती करुण क्रंदन,
कैसे जीवन जिऊँगी तुम तो मृत पड़े हैं।
व्याकुलता विलाप वनिता का लख-लख के,
पत्नी प्राण-पखेरू उड़ने पर अड़े हैं॥ (02)
 
चूड़ी चटकाई चारपाई पे पटककर,
समापन सब साज शृंगार का किया है।
बिखरे बाल मुरझाया मुख मृत-सा मन,
आँख अश्रु पारावार प्रवाहित किया है।
लिपटकर लाश से सुरभि सी डकराय,
सुध-बुध भूली बेहाल बेजान-सा हिया है।
क़ुदरत कठोरतम क्रूरतम क्यों बनी,
सत्ताईस साल में दारुण दर्द दिया है॥ (03)
 
बालक बहुत बेहाल बेताब बेख़बर,
बदनसीब बहके-बहके से खड़े हैं।
माँ को देख-देख रोते रोये बालक बहुत,
हा! विचलित विवश विकल वे बड़े हैं।
कभी माता के लिपटते कभी मृत बाप के,
क्या करे? कैसे करे? कशमकश पड़े हैं।
दीन दशा देख-देख पत्थर पिघल पड़े,
माँ बेदम बेहोश बाल व्याकुल पड़े है॥ (04)
 
चाचा बोले बेटा-बेटी बाप अब तुम्हारा मैं,
बच्चों मत रोओ रो-कर कथन कहा है।
नन्हे नैन-तारे रोय रहे हैं हिचकी ले-ले,
छाती से लगा लिया उनको गोद गहा है।
प्रिय भ्राता की कमी कभी खलने नहीं दूँगा,
करके क्रंदन करुण संग शोक सहा है।
अब अश्कों के मोती मत बहाओ बेटा-बेटी,
चाचा रो-रोकर दिलासा देते जा रहा है॥ (05)
 
काठी पे लिटाई लाश लोग करे कोलाहल,
ले चलो श्मशान सुन कोहराम मचा है।
पत्नी पछाड़ खा-खा लगी लिपटने शव से,
सुत-सुता सोचे काका को क्या खेल जचा है।
देखा अचरज आज अजीब अपार काठी,
पर सुला काका को क्योंकर खेल रचा है।
बाल बुद्धि अनजान अभी मृत्यु महिमा से,
अबोधों को क्या पता पिता प्यार ना बचा है॥ (06)
 
बेटा बुलाया बाप की काठी के क़रीब कहा,
घड़ा ले आग भरा आगे-आगे चलना है।
जलती ज्वाला मटकी में मन में महा ज्वाला,
मटकी है हा! हर तन मिट्टी मिलना है।
चार लोगन लगाया कंधा काठ की काठी के,
मचा हाय! हाहाकार लाचार ललना है।
हमराही हमदम हमदर्द हृदयेश,
स्वीकारो सलाम अंतिम अब कल ना है॥ (07)
 
लड़का लाह लेकर लाश लारे आगे चला,
पीछे पालकी पर पिता परलोक चले।
बाट बीचों-बीच बहुत बड़ी भीड़ चली है,
बालक बेहद बेहाल बेख़बर चले।
मुझे मेरे काका को कहाँ लेकर जाते जन,
क्यों सुलाया शैया पर? क्या मौजी खाने चले?
असमंजस अपार मन में मारे हिलोर,
क्यों “राम नाम सत्य है” सब कहते चले? (08)
 
मसान में पहुँचकर पालकी पिताजी की,
उतारी ऊपर से जन ज़मीन धरी है।
कफ़न को हटाते हाथ आख़िरी स्नान हेतु,
पाणि-पद सुन्न काया कांतिहीन परी है।
क्यों काका कुछ कहते कथन नहीं मुख से?
क्यों गर्दन सहारे बिन लुढ़क पड़ी है?
क्यों मुख खोलकर खाना खाते नहीं बापूजी,
क्यों नहीं निहारत नयन जान जरी है? (09)
 
बुज़ुर्ग बाबा बोला बेटा बात बहुत बड़ी,
समझ सही से तेरा बाप मर गया है।
बाबा बात बताओ मनुष्य मरते हैं कैसे?
क्या होता है मरना? काका क्यों मर गया है?
कलेवर जटिल जंजाल-सा पहेलीनुमा,
काया-जंगल जीव-पंथी प्रयाण भया है।
प्राण बिना बनता बदन माटी मटका है,
हा! प्रस्थान प्राणों का कंगाल कर गया है॥ (10)
 
श्वास हँसा है शान्त शरीर सरोवर सूखा,
जान जलाभाव जीव जहान से जाता है।
जीव जब जाता तजकर तन-निकेतन,
सकल शरीर शिथिल स्तब्ध हो जाता है।
सुन सकता नहीं नहीं बोली बोल सकता,
मुख माथा नेत्र नाक निश्चेष्ट हो जाता है।
सोये सब अंग अचेतनता अपनाकर,
ना सोचे समझे मानव मृत हो जाता है॥ (11)
 
रो-रोकर बुरा है हाल हर हमदर्द का,
आँखें फाड़-फाड़ के सुत सूरत लखी है।
पुत्र पाणि पकड़ पिता पेट पर पड़ा है,
कहता काका कुछ कहो मृत लाश रखी है।
ग़मगीन ग्रामीण गहरी सांत्वना जताते,
मृतक मुख देख-देख दारुण दुखी है।
तैंतीस भी क्या उम्र है परलोक प्रस्थान की,
मगर मृत्यु सहचरी सबकी सखी है॥ (12)
 
लोग लगाते लम्बी लकड़ियों का उँचा ढेर,
सुत सोचे सब कैसा काम कर रहे थे?
नीचे मोटे-मोटे लक्कड़ लगाये लोगों ने,
लकड़ी लगाई लाश लोग रख रहे थे।
लाश लगी गीली-गीली-सी सुलाई चिता पर,
कुछ पल पहले पानी पटक रहे थे।
आ अब अंतिम दर्शन पाओ बेटा बाप का,
दाऊ ताऊ चाचा सुत सकल रो रहे थे॥ (13)
 
दयनीय दशा दाऊ दर्दनाक दुखमय,
मरघट में बूढ़ा बाप सिसक रहा हैं।
ताऊजी तड़पते जैसे जल बिन सफरी,
अश्क अग्रज अनवरत बहा रहा है।
चाचा चिंता चबेना चाबे चंचल चिता लख,
झर-झर अश्रु अपने आप जा रहा है।
पुत्र पुकारे परेशान पगलाया-सा सुनो,
काका क्यों तू तजकर जहान जा रहा है॥ (14)
 
चढ़ाया चिता पे हरि हरि से मिलन हेतु,
कफ़न को हटा ऊपर उपले रखे है।
घास सूखी-सी समेटी श्मशान के किनारे से,
लोग लकड़ियों बीच-बीच घास रखे है।
मुखाग्नि मायूस मन से पुत्र पिता को देता,
चिता पावक प्रचण्ड पर पिता रखे है।
लाश ज्वाला जलाती जल्लाद जैसे जन को,
जले मांस अरु अस्थि अंग-अंग लखे है॥ (15)
 
दाग देकर कपाल-क्रिया की प्यारे पुत्र ने,
जलते कपाल मध्य घृत घलवाया है।
ग़मगीन गाँववाले बोले हेला पाड़ो पुत्र,
बुलाया बूढ़े बाबा ने सुत समझाया है।
ओ काका हो! ओ काका हो! ओ काका हो!,
कहते-कहते कण्ठ भारी भर आया है।
ऊपर उठाये पाणि पुत्र पुकारे पिता को,
तब तीसरा हेला पाहन पिघलाया है॥ (16)
 
फिर फूट-फूट किया करुण क्रंदन सुत,
चाचा चुप करता कलेजा भर आया है।
पुत्र परिजन परिचित संगी साथियों ने,
मृतक मान में माथ मुण्डन कराया है।
किया प्रणाम परिक्रमा पिताजी की करके,
काले केशों का आत्मज अर्पण कराया है।
लोग लकड़ी पवित्र पीपल की चढ़ा रहे,
सुत सिसक-सिसक श्मशान से आया है॥ (17)
 
पिता पुत्र जीवन-जान सम सम्बन्ध साँचा,
जीवन कभी जान से जुदा मत करना।
पुत्र पंछी प्रेम प्यासा रह जाएगा जग में,
प्यासे को प्रेम पानी से दूर मत करना।
पिताजी प्रधान पालनहार परिवार के,
पालक को पालित से दूर मत करना।
विधि विनती विनम्र सुनो “मारुत” कवि की,
बचपन में किसी के काका मत मरना॥ (18)

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