कश्मीरी भाईसाहब: वे हमारे घर के क़िस्से-कहानियों वाले प्रेमचंद थे
संस्मरण | व्यक्ति चित्र प्रकाश मनु1 Dec 2024 (अंक: 266, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
मैं अपने बचपन के बारे में सोचता हूँ, तो कई बार किसी विचित्र भूलभुलैया में पड़ जाता हूँ, जहाँ एक से एक सुंदर और रहस्यों भरी दुनियाओं के परदे खुलते हैं, और जिधर भी पैर उठ जाएँ, वहाँ कोई न कोई अद्भुत कौतुक आँखों के आगे आकर मन को मुग्ध करने लगता है। सबसे बड़ा अचरज तो यही कि वह दुनिया हमारी आज की दुनिया से कितनी अलग, कितनी प्रेम और आनंदमयी दुनिया थी, जिसमें हर दिन एक नए फूल के खुलने-खिलने की तरह का आकर्षण लिए आता था। हर अगला दिन गुज़रे हुए दिन से कहीं अधिक आकर्षक और लुभावना लगता। एक नई हलचल से भरा हुआ।
इसका एक कारण तो यह भी है कि हमारा घर संयुक्त परिवार था। हम नौ भाई-बहन थे। सात भाई, दो बहनें। तो हर दिन इतने रंग-रूप और गतिविधियाँ नज़र आतीं, जैसे हम घर में नहीं, किसी अनोखी रंगभूमि में हों, जहाँ इतनी तेज़ी से दृश्य बदलते थे और हर पल कौतुक पर कौतुक कि मन उड़ा-उड़ा सा फिरता था। बचपन हमारा इसीलिए इतने विविध अनुभवों वाला इतना समृद्ध बचपन था, कि हाथों में अदृश्य क़लम-दवात लिए चुपके-चुपके वही मेरे लेखक बनने की कहानी लिख रहा हो, तो कोई ताज्जुब नहीं।
एक मज़े की बात यह भी थी कि हम नौ भाई-बहनों में से कोई भी दो ऐसे नहीं थे, जो आपस में बहुत मिलते-जुलते से हों। न-न, अलग। सबके सब अलग। सब एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न। शक्ल में, स्वभाव में, रुचियों में, विचारों में। सबकी अपनी अलग स्वायत्त दुनिया। यानी एक ही घर में नौ भाई-बहनों की नौ अलग-अलग दुनियाएँ, जो एक-दूसरे से एकदम जुदा थीं। अगर भाइयों की बात करूँ तो सबसे बड़े भाई, यानी बलराज भाईसाहब एकदम युधिष्ठिर। वे माँ-पिता जी के सबसे प्यारे और लाड़ले श्रवणकुमार पुत्तर थे, जो एक आवाज़ लगाने पर सौ मील दूर से भागते चले आएँ। उन पर माँ-पिता जी का प्यार अपरंपार था। और वे हम सबके सम्माननीय तो थे ही। घर के सबसे बड़े, सबसे ज़िम्मेदार और धीर-गंभीर भाई। वे इस क़द्र सर्वगुणसंपन्न थे कि आप उनका आदर किए बिना रह ही नहीं सकते थे।
उनसे छोटे कश्मीरीलाल एकदम दूसरे ध्रुव पर स्थित। इतने ज़्यादा भावावेशी कि बताना मुश्किल है। मगर व्यक्तित्व ऐसा रोबीला और आकर्षक कि आप देखें, तो बस देखते ही रह जाएँ। एकदम लंबी-पतली छरहरी काया, जिस पर आप तोला भर अतिरिक्त मांस नहीं खोज सकते थे। बिल्कुल शुरू से लेकर अंत तक मैंने उन्हें इसी रूप में देखा। देह बिल्कुल सीधी, तनी हुई काठी की तरह। मज़बूत और चुस्त। लेकिन भावुक इतने कि अपने या किसी और के दुख-दर्द की बात बतानी हो तो अंदर से इतने भीग जाते कि बताते हुए गला रुँध जाता, आँखें गीली हो जातीं। कभी-कभी रोने भी लगते। लेकिन हास्य-विनोद और आनंद के क्षणों में उनके हँसी-ठहाके हवा में ऐसे उड़ते कि लगता, जैसे अभी हमारे घर की दीवारें भी मगन होकर हँसने-नाचने और यहाँ तक कि ठहाके लगाने लगेंगी।
उनसे छोटे कृष्णलाल जी, जो कि असिस्टेंट स्टेशन मास्टर थे, और स्टेशन पर सब उन्हें प्यार से ‘टाटा बाबू’ कहकर बुलाया करते थे, इस क़द्र शांत, धीर-गंभीर और ज़िम्मेदार कि लगता, ऐसे तो बस कृष्ण भाईसाहब ही हो सकते हैं। पर यह तभी तक था, जब तक कोई उन्हें बहुत ज़्यादा ग़ुस्सा न दिलाए। वरना कहीं कोई अन्याय देखते, या कोई अनुचित बात कही जाती, तो उनका स्वभाव काफ़ी कुछ बदल जाता था, और कम, बहुत कम कहकर भी उनका तमतमाया चेहरा बहुत कुछ कह देता था। उनका सात्विक क्रोध तेजोमय था।
बचपन में एकदम तल्लीन होकर रामचरिम मानस का पाठ करते मैंने उन्हें देखा है। उस समय उनके स्वर में ऐसा गांभीर्य और मृदुलता एक साथ उभर आती, मानो रामकथा कहते हुए, वे स्वयं भी राममय हो गए हों। मुझ पर उसका इतना गहरा असर पड़ा कि बचपन में ही रामकथा का मर्म मैंने जान लिया। राम मेरे रोएँ-रोएँ में समा गए, और हर दुख-संकट की घड़ी में वही याद आते। अभी कुछ दिनों पहले बिल्कुल कहानी के से अंदाज़ में लिखी गई रामकथा ‘फिर आए राम अयोध्या’ में छपी, तो उसे मैंने कृष्ण भाईसाहब को ही समर्पित किया। यों सच तो यह है कि शुरू से अंत तक पूरी रामकथा लिखते समय मुझे लगता रहा कि लिख तो मेरी उँगलियाँ रही हैं, पर असल में तो कृष्ण भाईसाहब ही मेरे अंदर बैठे पूरी की पूरी रामकथा लिखवा रहे हैं। रामकथा की गरिमा की रक्षा करते हुए, उसे एक सहज प्रवाह में बाँध लेना कितना दुष्कर काम है, इसे मैं अच्छी तरह जानता था। लेकिन कृष्ण भाईसाहब मेरे साथ थे, और उन्होंने सहज ही पूरी रामकथा लिखवा ली।
उनसे छोटे जगन भाईसाहब बहुत आधुनिक विचारों के, शांत, कुछ व्यावहारिक भी। और इतना कसा हुआ शरीर, सुदर्शन भी, कि मुझसे कोई पाँच बरस बड़े हैं, पर सात-आठ बरस छोटे तो ज़रूर लगते हैं। या कुछ अधिक ही। कोई हमें साथ-साथ देखे तो कह उठेगा कि मनु जी, क्या ये आपके छोटे भाई हैं? हमारे पारंपरिक परिवार में आधुनिकता की बयार लाने वाले जगन भाईसाहब ही हैं। उन्हें आप घर में भी देखें तो हर वक़्त इतने चुस्त-दुरुस्त और सुंदर, सुरुचिपूर्ण परिधान पहने एकदम ताज़ादम जगन भाईसाहब को देखकर लगेगा, कि ये अभी कहीं बाहर से आए हैं, या फिर अभी बाहर कहीं किसी मीटिंग में जाने के लिए तैयार हुए हैं। मेहनती, कर्मठ और धुन के पक्के ऐसे कि शिकोहाबाद की बजाज घराने की बल्बों की जगप्रसिद्ध फ़ैक्ट्री ‘हिंद लैंप्स’ में मामूली ओवरसियर के पद पर नियुक्ति के बाद, अपने निरंतर श्रम और लगन से कंपनी के डिप्टी जनरल मैनेजर के पद तक पहुँचे। अपने अच्छे व्यवहार, सच्चाई और हर किसी के दुख-दर्द से जुड़ने के कारण उनकी लोकप्रियता ऐसी थी कि हर शख़्स के होंठों पर उनका नाम सुनाई देता था।
फिर श्याम भैया, मेरा और छोटे भाई सत का नंबर। इनमें श्याम भैया एकदम गोल-मटोल से, ख़ासे मस्त-मौला और ज़िन्दगी का भरपूर आनंद लेने वाले। उनमें हर पल ज़िन्दगी और ज़िंदादिली छलछला रही होती। मुझ पर उनका बहुत गहरा असर पड़ा और मेरी बहुत सारी कहानियों में वे कथानायक के रूप में आते हैं। पाठकों को यह राज़ की बात भी बता दूँ कि मेरी कहानियों में अक्सर आने वाले नंदू भैया असल में मेरे श्याम भाईसाहब ही हैं। हालाँकि वे जितने ज़िंदादिल और मस्तमौला थे, मैं उतना ही ख़ुद में ही खोया-खोया सा और हर क्षण कुछ न कुछ सोचता हुआ। अपने में ही डूबा हुआ सा। जैसे तीन चौथाई अंदर, केवल एक चौथाई बाहर होऊँ। और इसीलिए मेरी आँखें भी बाहर देखती हुई असल में कुछ नहीं देखतीं। वे ज़्यादातर अंदर के रंगमंच पर हर क्षण होने वाली वर्तमान, भूत और भविष्यत् की अद्भुत लीलाओं और आते-जाते दृश्यों में ही उलझी होती हैं। हाँ, अपने सरीखा कोई परम आत्मीय जन सामने हो, तो बाहर देखना और उसके साथ बतियाना भी अच्छा लगता है।
छोटा भाई सत घर भर का लाड़ला है। वह काफ़ी संतुलित और विचारशील है, तथा व्यावहारिक रूप से भीतर और बाहर की दुनिया में अच्छा तालमेल बनाकर चलना उसे आता है। हमारे घर में कृष्ण भाईसाहब के बाद एक वही है, जिसमें विचार और भावना का सही संतुलन है और सबको साथ लेकर चलना उसे आता है। शायद सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार भी वही है, जिसे काफ़ी आगा-पीछा सोचकर काम करना आता है। पिता जी के जाने के बाद पूरे परिवार का हालचाल लेना, और सबकी चिंता-फिक्र करना भी उसे बहुत ज़रूरी लगता है।
इसी तरह सबसे बड़ी बहन शान्ति भैन जी एकदम राजसी गरिमा से भरी हुई, रानियों सरीखी। चेहरा सहज कांति से दिप-दिप करता हुआ। उनमें प्यार और ग़ुस्सा दोनों इस क़द्र लबालब भरे हुए थे कि कब कौन सा रूप प्रकट हो जाएगा, कहना मुश्किल था। इसीलिए उनसे कभी मिलने जाना हो, तो हम एक-दूसरे से पूछ ज़रूर लेते थे कि कहीं भैन जी नाराज़ तो नहीं हैं। और अगर प्रसन्न हों, तो इतना खिलाती-पिलातीं, प्यार बरसातीं कि फिर उनके पास से उठ पाना कठिन हो जाता। दूसरी बहन कमलेश दीदी, जो मुझसे कोई डेढ़-दो साल बड़ी हैं, बड़ी स्नेहशील हैं, लेकिन वे भी किसी बात पर रूठ जाएँ, तो उन्हें मनाना आसान नहीं। उनमें अपनत्व और वाक् कौशल ऐसा है कि कहीं सौ अजनबियों के बीच बैठी हों, तो कोई पंद्रह-बीस मिनट बीतते-न बीतते में वे सबके सब उनके ऐसे परम आत्मीय लगने लगेंगे, जैसे उन पर जान छिड़कते हों। अपनी स्नेहपूर्ण बातों से किसी घोर अजनबी को भी पल में अपना बना लेने की उनकी यह अद्भुत कला देखकर मैं चकित तो बहुत होता हूँ, पर उनसे कभी यह सीख नहीं सका।
यों हम नौ भाई-बहनों की नौ दुनियाएँ। एकदम दूसरे से अलग, जुदा-जुदा। यहाँ तक कि देखने-भालने में भी सारे के सारे बिल्कुल भिन्न। पर फिर भी कुछ है, जो हमें आपस में इस क़द्र जोड़ता है कि कोई भी शख़्स दूर से कह सकता है कि ये आपस में भाई-भाई या भाई-बहन हैं, और यह पहचानने में उसे कोई मुश्किल नहीं आती। पता नहीं, यह कौन सी सूक्ष्म पारिवारिकता है, जिसने इतने बारीक़ लेकिन मज़बूत धागे से सबको अंदर से बाँधा हुआ है, कि एक के दुख में दूसरे के आँसू निकल आते हैं और एक की ख़ुशी में सारे हर्षाकुल हो उठते हैं, और आपस में मिल-बाँटकर उस ख़ुशी को मनाना चाहते हैं।
इसी से जुड़ा हुआ एक रोचक क़िस्सा मैं सुनाता हूँ। बात उन दिनों की है, जब मैं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोध कर रहा था। तब काफ़ी लंबे समय बाद घर आना होता था। एक तो कुरुक्षेत्र शिकोहाबाद से काफ़ी दूर है, फिर शोधकार्य की व्यस्तता। इसलिए साल में एकाध बार ही मैं घर आता था। रेलवे स्टेशन पर गाड़ी से उतरकर मुझे रिक्शा लेना होता था घर आने के लिए। तो एक दफ़ा की बात। मैं स्टेशन की सीढ़ियाँ अभी उतर ही रहा था कि सामने दो-तीन रिक्शा वाले खड़े दिखाई दिए। मेरे नीचे आते ही उनमें से एक अधेड़ रिक्शा वाला बोला, “आइए बाऊ जी, बैठिए।”
मुझे लगा, इसे बताना तो चाहिए कि मुझे कटरा मीराँ, धोबी गली में हनुमान मंदिर वाले चौक में जाना है। पर मैं बताने लगा, तो उसने झट से टोक दिया। बोला, “मुझे पता है बाऊ जी, आपको कहाँ जाना है। आप बैठिए तो सही। मैं आपको बिल्कुल आपके घर के सामने ही छोड़ दूँगा।”
मेरे लिए यह किसी अचरज से कम न था कि इस रिक्शे वाले को कैसे पता कि मुझे कहाँ जाना है? इस पर उसने कहा, “अरे, बाऊ जी, हम तो आपके सब भाइयों को जानते हैं। पता नहीं, कितनी बार आपके घर सवारी लेकर गए हैं।”
यह मेरे लिए एक और अचरज की बात थी। भला इसे क्या पता कि मेरा घर कहाँ है, मेरे भाई कौन से हैं? यह तो मुझे ज़िन्दगी में शायद पहली बार ही देख रहा होगा। तो फिर किस जादू-मंदर से इतने पता लगा लिया कि मेरा घर कौन सा है, जहाँ मुझे जाना है।
और सचमुच उसने ऐसा किया भी। हनुमान मंदिर वाले चौक में, ऐन मेरे घर के सामने उसने मुझे छोड़ दिया। उस समय उसकी आँखों में किसी पुरानी पहचान का सा जो पारिवारिक भाव था, उसे मैं आज तक नहीं भूल पाया।
मैं कई बार इस छोटे से प्रसंग के बारे में सोचकर हैरान होता हूँ। मैं तो अपने शहर में कोई साल, डेढ़ साल गया था। उस रिक्शे वाले ने निश्चय ही मुझे पहले कभी नहीं देखा होगा। तो ऐसा क्या था, जो शक्ल-सूरत अलग होने पर भी मुझे मेरे भाई-बहनों से इतने क़रीब से जोड़ देता है, कि उस रिक्शे वाले ने पूरे यक़ीन से कहा कि मैं जानता हूँ, आपको कहाँ जाना है।
यह आज भी मेरे लिए एक कठिन पहेली ही है।
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अलबत्ता, कश्मीरी भाईसाहब की बात चली है तो यह बताना ज़रूरी है कि हम नौ भाई-बहनों में वे सबसे ज़्यादा भावुक, बल्कि भावावेगी शख़्स थे। हमारे घर में भावनाएँ तो सभी में अधिक हैं, पर कश्मीरी भाईसाहब में तो वे भावनाएँ किसी आँधी-तूफ़ान की तरह उमड़ पड़ती थीं, और फिर उनका ख़ुद पर कोई बस न रहता था। किसी छोटी सी बात पर ही वे कब ग़ुस्से में गरजने लगें, कहना मुश्किल था। लेकिन हो सकता है, पाँच-सात मिनट में ही वे सारा ग़ुस्सा भूलकर हँसने और ठहाके लगाने लगें। आप देखेंगे तो अचरज में पड़ जाएँगे कि एकदम बच्चों की तरह निर्मल भाव से हँसने वाले क्या ये वही कश्मीरी भाईसाहब हैं, जो कि अभी थोड़ी देर पहले बिजली की तरह कड़क रहे थे, या फिर उसी हुलिए में कोई और ही शख़्स चला आया है।
यों तो हम सभी भाई-बहनों में ही प्यार-करुणा, ग़ुस्से और परदुखकातरता का कुछ आधिक्य ही है। पर कश्मीरी भाईसाहब में यह सर्वाधिक था। अक्सर वे हमारे घर-परिवार के पुराने इतिहास के पन्ने पलटने लगते। और उसमें इतने खो जाते कि कोई भावुक प्रसंग आने पर उनका गला रुँध जाता, आवाज़ थरथराने लगती, और आँखें भीग जाती थीं। मैं ख़ुद भी कुछ ऐसा ही हूँ, पर कश्मीरी भाईसाहब में तो हर चीज़ जैसे चरम पर थी। इसीलिए सब कुछ के बावजूद वे बड़े ही प्यारे इन्सान थे, जिनसे मिलने और घंटों पास बैठकर उनकी बातें सुनने का मन होता था। और बेशक, हमारे घर की रंगभूमि में वे सबसे प्रभावशाली और आकर्षक कलाकार की तरह थे, जिनके आगे हर कोई मंद पड़ जाता था, और ख़ुशी-ख़ुशी उनके आगे नतमस्तक हो जाता था।
राजकुमार हमारी फ़िल्मी दुनिया के सबसे विलक्षण अभिनेता हैं, जिनके बारे में अक्सर कहा जाता है कि अगर वे किसी फ़िल्म में हों तो उनके आगे किसी बड़े से बड़े कलाकार का टिकना भी मुश्किल हो जाता था। इसलिए प्रायः सभी अभिनेता उनका सामना होने से बचते थे। हमारे पारिवारिक रंगमंच के वे राजकुमार कश्मीरी भाईसाहब ही थे, हमारे महानायक, जिनमें बड़ी सरलता थी, तो कुछ अजीब सा ठसका भी, जिसके कारण उनका क़द घर-परिवार में सबसे ऊँचा लगता था। यों वे घर में सबसे लंबे और रोआबदार तो थे ही।
पर कश्मीरी भाईसाहब का इससे भी बड़ा गुण था, उनकी क़िस्सागोई। वे बड़े ज़बरदस्त क़िस्सागो थे। कहना चाहिए, क़िस्सागोई के उस्ताद। हमारे घर में यह परंपरा सबसे निखरे हुए रूप में या तो बड़ी भैन जी में थी, या फिर कश्मीरी भाईसाहब में। दोनों ही किसी प्रसंग को सुनाने लग जाएँ, तो उसमें भावनाओं की एक निर्मल नदी सी बह उठती थी। कथा-उपकथा और यहाँ-वहाँ के प्रसंगों को जोड़ते हुए, एक ऐसी वेगवती धारा चल पड़ती, कि कोई दो-ढाई घंटे उसमें निकल जाएँ तो कोई हैरानी की बात नहीं। और ख़ुद हमारा मन भी सम्मोहित सा उनके साथ बहता चला जाता था।
इन दोनों से ही मैंने पारिवारिक जीवन की बहुत कहानियाँ सुनी हैं, जिसने मुझे अपने घरेलू इतिहास की पुरानी जड़ों को समझने में बहुत मदद मिली। और शायद इसीलिए जो आत्मकथा मैंने लिखी, उसमें कुछ ऐसा आकर्षण तो ज़रूर उपजा ही, कि हिंदी में अपने ढंग के विलक्षण कथाकार बल्लभ सिद्धार्थ ने इसे पढ़कर बहुत अभिभूत होकर मुझे फोन किया था। फोन पर उनकी भाव-विह्वल आवाज़, “कवि भाई, सच कहूँ तो हिंदी में ऐसी आत्मकथा कोई दूसरी नहीं है।”
मैंने अतिरंजना समझकर उनकी बात को टालना चाहा, तो उन्होंने अपने एक-एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा, “कवि भाई, मैं बहुत गंभीरता से कह रहा हूँ यह बात। तुम इसे हलके में मत लेना। तुमने अपनी आत्मकथा में छोटी से छोटी बात को भी इस क़द्र सच्चाई और गहरी संवेदना के साथ कहा है कि पाठक तुम्हारे साथ बहता चला जाता है और ख़ुद उसका हृदय इससे जुड़ जाता है। उसे लगता है, जैसे वह तुम्हारी नहीं, ख़ुद अपने जीवन की ही कहानी पढ़ रहा हो। यह तुम्हारी आत्मकथा की बहुत बड़ी ख़ासियत है।”
बल्लभ जी अक्सर किसी चीज़ की आसानी से प्रशंसा नहीं करते। वे इस मामले में बहुत कृपण हैं। मेरी बहुत सी कृतियों की उन्होंने बड़ी तीखी आलोचना की है। ऐसी भी कुछ कृतियाँ हैं, जिनकी दूसरों ने बहुत प्रशंसा की, पर बल्लभ जी ने उनकी धज्जियाँ उड़ा दीं, और उन्हें कमज़ोर रचना बताया। पर कुछ ऐसा तो मेरी आत्मकथा में है ही, कि बल्लभ जी को अभिभूत होकर कहना पड़ा कि ‘कवि भाई, हिंदी में ऐसी आत्मकथा कोई दूसरी नहीं है। पाठक इसे पढ़ते हुए इस क़द्र जुड़ जाता है, कि उसे यह आत्मकथा बिल्कुल अपनी सी लगती है, और वह इसके साथ बहता जाता है।”
सबके मन को बाँध लेने वाली ऐसी कौन सी बात है इस आत्मकथा में, यह तो मैं नहीं जानता। पर इतना ज़रूर जानता हूँ कि इसमें जो भी अच्छा है, उसका श्रेय बड़ी भैन जी और कश्मीरी भाईसाहब को ही जाता है। कश्मीरी भाईसाहब को कुछ अधिक। इसलिए कि उनके पास बैठकर अपने घरेलू इतिहास के पुराने प्रसंगों को सुनने का संयोग मुझे कुछ अधिक मिला। और उनसे घर-परिवार के पुराने इतिहास को सुनते हुए ही मैंने जाना कि सच ही वे हमारे घर के क़िस्से-कहानियों वाले प्रेमचंद हैं। उन्होंने कभी लिखा नहीं, बस पुराने ढंग के क़िस्सागोई के उस्तादों की तरह गाथाएँ सुनाया ही करते थे। पर अगर वे लिखते तो बेशक मुझसे बड़े, बहुत बड़े लेखक होते। इसमें मुझे ज़रा भी संशय नहीं है। और हाँ, मेरी इस आमकथा के असली लेखक तो कश्मीरी भाईसाहब ही हैं, मैं नहीं। यह भी मुझे स्वीकार करना होगा।
कश्मीरी भाईसाहब की वर्णन-शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि एक छोटी सी बात भी वे सुनाने लगें तो आँखों के आगे पूरा दृश्य उभर आता था, और आपको लगता था, सब कुछ आपकी आँखों के आगे घट रहा है। उन्हें मैं सुनता नहीं था, बल्कि उनकी आवाज़ के सहारे सब कुछ अपनी आँखों से देखता था। लगता था, कोई ऐसी भावपूर्ण फ़िल्म मेरी आँखों के आगे चल रही है, जिसने मेरी आँखों को बाँध लिया है। मैं मुग्ध सा उनके साथ बहने लगता था। और जब तक उनका क़िस्सा चलता रहता, उनकी गिरफ़्त से छूट पाना मुश्किल था। यह तब भी, होता था, जब वे कोई कहानी-क़िस्सा सुना रहे हों, और तब भी, जब वे घर के पुराने इतिहास की गाथा सुनाने में तल्लीन हों।
शायद इसीलिए जब मैं आत्मकथा लिख रहा था, तो मुझे सबसे ज़्यादा मदद कश्मीरी भाईसाहब से ही मिली। उन्हें न सिर्फ़ चीज़ें याद रहती थीं, बल्कि उनके छोटे से छोटे डिटेल्स तक वे बता सकते थे, और इतने नाटकीय ढंग से वे हर चीज़ बताते कि सचमुच समय ठहर जाता था, और उतनी देर के लिए आप देह की सुध-बुध भूलकर, आप किसी और ही दुनिया में पहुँच जाते थे।
[3]
हमारा परिवार देश-विभाजन की विभीषिका के समय हज़ारों अन्य विस्थापितों की तरह पाकिस्तान में अपनी जन्मभूमि को छोड़कर भारत आया था। इसका पूरा हाल भी मुझे कश्मीरी भाईसाहब से ही जानने को मिला। उन्होंने ही बताया कि हमारा परिवार कुरड़-कट्ठा गाँव से चलकर यहाँ आया है। कुरड़-कट्ठा तब सरगोधा ज़िले की खुशाब तहसील में पड़ता था। हालाँकि आजकल खुशाब ज़िला और सरगोधा प्रभाग बन चुका है, जिसमें कई ज़िले आते हैं। सरगोधा को सर गोधाराम ने बसाया था, इसीलिए उसका नाम सरगोधा पड़ा। यह रोचक वृत्तांत भी मुझे कश्मीरी भाईसाहब से ही सुनने को मिला। देश-विभाजन के समय सर गोधाराम द्वारा किए गए बचाव-कार्य के साथ ही उनके सेवा-भाव, त्याग और कर्मठता से जुड़े कई भावुक प्रसंग भी उन्होंने सुनाए। खुशाब का नाम बाबर ने रखा था, यह प्रसंग भी कश्मीरी भाईसाहब से ही सुनने को मिला। और यह भी कि चर्चित लेखक खुशवंत सिंह का पैतृक घर-परिवार भी इसी खुशाब में ही था, जिसमें हमारा गाँव कुरड़-कट्ठा पड़ता है।
उस समय हमारे परिवार को किन कठिनाइयों और करुण हालात से होकर गुज़रना पड़ा, कैसे कठोर संघर्ष भरे वे दिन थे, इसके बारे में भी कश्मीरी भाईसाहब से काफ़ी कुछ सुना है। मैंने वह सब देखा तो नहीं, पर उन्हें सुनकर अपनी सहज संवेदना से महसूस तो किया ही है। जब मैं उन अभागे दिनों और मुश्किल हालात के बारे में सोचता हूँ तो अक्सर मुझे विस्थापन की असह्य तकलीफ़ों के बीच कंधे पर कपड़ों की भारी सी गठरी टाँगें गाँव-गाँव घूमते पिता दिखाई देते हैं। यहाँ आने के बाद जब सारे सहारे छिन गए तो उन्हें फेरीवाला बनकर अपना और परिवार का गुज़र-बसर करना पड़ा।
कश्मीरी भाईसाहब से ही मुझे पहले पहले विभाजन की यह अकथ कथा सुनने को मिली थी। बहुत भावुक होकर उन्होंने मुझे बताया था—
“चंदर, वहाँ पिता जी की बड़ी प्रतिष्ठा थी और सब लोग उन्हें बड़े आदर से ‘शाह जी’ कहकर बुलाते थे . . . पर जब वहाँ से आए तो सब कुछ वहीं छूट गया। यहाँ भारत में आकर फिर नए सिरे से ज़िन्दगी की शुरूआत करनी थी, और वह उन्होंने की। पिता जी अमृतसर से पगड़ियाँ ख़रीदकर लाते थे और अंबाला में गाँव-गाँव जाकर बेचते थे। और यह काम अकेले पिता जी को ही नहीं, बल्कि दादा देशराज जी, बलराज भाईसाहब और मुझे भी करना पड़ता था। एक दिशा में पिता जी पगड़ियाँ बेचने निकलते, तो दूसरी दिशा में दादा जी और तीसरी दिशा में हम दोनों भाई, जो अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर पिता जी की मदद के लिए उनके साथ काम करने लगे थे। तब कहीं घर का गुज़ारा चल पाता था। खुशाब तहसील के जिस कुरड़ गाँव से हमारा परिवार विस्थापित होकर यहाँ आया था, वहाँ एक संपन्न और सम्मानित व्यापारी के रूप में पिता जी की बड़ी साख थी और दूर-दूर तक उनका नाम था। पर वह देखते ही देखते पराया देश बन गया—पाकिस्तान। और फिर रातों-रात वहाँ से हमें वहाँ से आना पडा।”
इसी तरह कश्मीरी भाईसाहब से ही पहलेपहल मैंने नाना जी की अद्भुत शख़्सियत के बारे में सुना था। मेरे जन्म से भी बरसों पहले वे गुज़र चुके थे। पाकिस्तान में ही। पर कश्मीरी भाईसाहब ने उनके बारे में मुझे इतनी बातें बताईं और इस ढंग से बताईं कि हमेशा-हमेशा के लिए उनका सजीव चित्र मेरी आत्मा के परदे पर अंकित हो चुका है। उनके ही मुझे बताया था—
“नाना जी ज़मींदार थे, चंदर। व्यक्तित्व और देह से भी काफ़ी भव्य। लंबा, ऊँचा क़द। लहीम-शहीम काया। घोड़ी पर चढ़कर दूर से आ रहे होते तो हल्ला मच जाता कि वो देखो, वो हकीम साहब आ रहे हैं! दूर-दूर के गाँवों तक उनकी धाक थी। लेकिन वे किसी से एक पैसा तक न लेते थे। यहाँ तक कि जिसके यहाँ इलाज करने जाते, उसके यहाँ पानी तक न पीते थे। आसपास के लोग इसीलिए उन्हें किसी देवता की तरह पूजते थे।”
फिर वे कुछ ज़्यादा ही भावुक हो जाते। भाव-विगलित स्वर में कहते, “वे कोई सामान्य व्यक्ति तो हो नहीं सकते। वे तो कोई देवता थे, देवता! जैसा उनका भव्य व्यक्तित्व था, जैसे उनके विचार और काम थे। उससे वे तमाम लोगों से ऊपर उठे हुए नज़र आते थे!”
बेशक, कश्मीरी भाईसाहब के इस कथन में अतिरंजना हो सकती है, पर इससे नाना जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व का कुछ अंदाज़ तो लगाया ही जा सकता है। उनके जीवन के बहुत सारे आश्चर्यजनक प्रसंग मुझे कश्मीरी भाईसाहब ने ही सुनाए थे। इनमें उनकी मृत्यु का प्रसंग तो सच ही बड़ा अद्भुत है। इसे भी कश्मीरी भाईसाहब के शब्दों में ही बताना होगा। उन्होंने बहुत भावुक होकर मुझे बताया था—
“चंदर, नाना जी को अपनी मृत्यु का आभास हो गया था और उन्होंने गाँव में और दूर-पास की रिश्तेदारियों में सबको कहला दिया था कि फ़लाँ दिन मुझे यह चोला छोड़ना है। आप सब लोग आ जाएँ! और ठीक उसी दिन उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु पर आसपास के गाँवों के सभी लोग इस तरह शोकाकुल थे और रो रहे थे, जैसे उनका अपना कोई बड़ा पुरखा चला गया हो!”
कश्मीरी भाईसाहब की यह ख़ासियत थी कि जो भी प्रसंग वे सुनाते, वह किसी रोचक फ़िल्म की तरह आँखों के आगे चल पड़ता था। और नाना जी के बारे में तो उन्होंने मुझे इतना कुछ बताया कि मुझे भ्रम होने लगता है कि नाना जी को मैंने देखा भी है, और उनसे मिला भी हूँ।
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इसी तरह दादा जी का पूरा आदमक़द चित्र कश्मीरी भाईसाहब ने मेरे स्मृतिपटल पर आँक दिया था। उन्होंने ही बताया था कि हमारी ममतामयी पड़दादी जी, जिनका नाम तुलसी था, वे एक सौ तीस बरस की होकर गईं। वे अंत तक काफ़ी सक्रिय थीं और लोग उनकी बड़ी इज़्ज़त करते थे। आसपास के बहुत सारे गाँवों के लोग उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए। आगे उन्होंने बताया—
“उन पड़दादी के बेटे यानी हमारे दादा जी, देशराज जिनका नाम था, ख़ासे स्वस्थ और लंबे-चौड़े थे। कलंदरों जैसा प्रभावशाली व्यक्तित्व। उनके बड़े-बड़े बाल कंधे तक झूलते रहते थे और कुछ इसी तरह का मनमौजी उनका व्यक्तित्व था, जिसमें एक तरह की निस्पृह वृत्ति भी थी . . . दादा जी अनपढ़ थे, पर उनके विचार बहुत ऊँचे थे, जो उनकी सदाबहार शख़्सियत में भी ढल से गए थे। उन्हें तुलसी, कबीर, रहीम आदि के बहुत से दोहे याद थे, जिनमें जीवन की बड़ी सुंदर और आदर्श बातें कही गई थीं, और जिनमें एक आदर्श जीवन की छाप थी। इसीलिए उनकी बातें सुनना बड़ा अच्छा लगता था।”
हालाँकि दादा जी में कुछ विरोधी गुणों का अद्भुत समुच्चय भी था। उनमें वैराग्य वृत्ति थी, तो एक सहज वीरत्व और बल भी। कश्मीरी भाईसाहब ने इस बारे में मुझे एक छोटी सी घटना सुनाई थी, जिसे मैं आज तक भूल नहीं पाया। और इससे दादा जी की एक बड़ी जीवंत छवि मेरी आँखों के आगे आ जाती है। ज़रा कश्मीरी भाईसाहब के शब्दों में ही सुनिए यह रोचक प्रसंग—
“उन दिनों मेरी दुकान कटरा बाज़ार में थी, जिसमें कभी-कभी दादा जी भी आकर बैठ जाते थे। फ़ुर्सत के क्षणों में वे अपने जीवन अनुभवों में ढली बड़ी सुंदर बातें बताया करते थे। एक दिन की बात। हम दोनों यानी दादा-पोते में कुछ ऐसी ही बतकही चल रही थी। तभी दादा जी ने देखा कि एक लंबा-चौड़ा युवक कहीं से बड़ी सुंदर घोड़ी ले आया है। वह उस घोड़ी को साधने की कोशिश कर रहा था, पर घोड़ी थोड़ी नखरैल थी, जो उसे ऊपर चढ़ने ही नहीं दे रही थी। युवक बेचारा परेशान था कि क्या करूँ, क्या नहीं?
“दादा जी ने उस युवक की हालत देखी तो उसे पास बुलाया और ख़ुद दुकान के चबूतरे पर तनकर बैठ गए। बाएँ पैर का घुटना उन्होंने ऊँचा कर लिया। फिर उस युवक की ओर इशारा करके बोले, ‘मेरे घुटने पर अपना पैर रखो और छलाँग मारकर घोड़ी पर चढ़ जाओ। पर हाँ, लगाम ख़ूब कसकर पकड़े रहना, वरना यह तुम्हें सवारी नहीं करने देगी।’ . . . उस युवक ने ऐसा ही किया। दादा जी के घुटने पर पैर रखा और उछलकर घोड़ी पर चढ़ बैठा। लगाम उसने कसकर पकड़ ली और घोड़ी को ख़ूब तेज़ दौड़ाया। सचमुच अब की वह अपनी कोशिश में कामयाब रहा।”
कश्मीरी भाईसाहब ने बताया कि अगले दिन वही युवक गुड़ की एक बड़ी सी भेली लेकर दादा जी के पास आया। उनके आगे सिर झुकाकर बोला, “आप मेरे गुरु हैं। आपने ही मुझे घोड़ी पर चढ़ने और सवारी करने का सही तरीक़ा सिखाया, वरना मैं कभी कामयाब न हो पाता। यह गुड़ की भेली मेरी ओर से आपकी गुरुदक्षिणा है।”
सच कहूँ तो कश्मीरी भाईसाहब की ये बातें सुनकर ही दादा जी की एक बड़ी सुंदर मूर्ति मेरे मन में जैसे गड़ सी गई है। दादा जी जब गुज़रे तो मैं मुश्किल से तीन-चार बरस का रहा होऊँगा। पर कश्मीरी भाईसाहब की उनके बारे में कही गई पंक्तियों में मुझे उनकी पूरी शख़्सियत नज़र आ जाती है।
[5]
कश्मीरी भाईसाहब ने न सिर्फ़ घर-परिवार के पुराने इतिहास और परंपराओं के बारे में बहुत सी चीज़ें बताईं, बल्कि ख़ुद अपने बचपन से जुड़े कुछ ऐसे क़िस्से भी मुझे सुनाए कि आज भी उन्हें याद करके मैं अचंभे में पड़ जाता हूँ। मैं तो स्वतंत्र भारत में पैदा हुआ। पर जब देश-विभाजन हुआ, कश्मीरी भाईसाहब किशोर थे और संभवतः आठवीं में पढ़ रहे थे। मेरे सबसे बड़े भाई बलराज भाईसाहब हाईस्कूल पास कर चुके थे। कश्मीरी भाईसाहब को उस दौर की बहुत सी चीज़ें बड़ी अच्छी तरह याद थीं, और वे जब-तब उन्हें सुनाया करते थे। इसमें उनके बचपन का स्कूल जाने का क़िस्सा बड़ा मज़ेदार है।
असल में, बचपन में कश्मीरी भाईसाहब बड़े लाड़ले थे। कुछ बिगड़े हुए भी। इसलिए जब उन्हें स्कूल में दाख़िल कराया गया, तब भी वे स्कूल न जाकर कहीं इधर-उधर खेतों में घूमने निकल जाते। उनके मास्टर जी थे मलिक शेर मुहम्मद। बड़े लंबे, ऊँचे क़द के पठान जैसे। एकदम गोरा चिट्टा रंग, ख़ासे रोबदार। वे भाईसाहब को समझाते, “देखो तुम्हारे पिता जी की समाज में कितनी इज़्ज़त है, कितना नाम है। तुम पढ़ोगे, लायक़ बनोगे तो उनका नाम और ऊँचा होगा। ज़रा सोचो, तुम पढ़ोगे-लिखोगे नहीं तो उन्हें कितना दुख होगा।”
पर लाड़ में पले कश्मीरीलाल पर मास्टर जी की बातों का कोई असर नहीं पड़ा। वे घर से स्कूल के लिए निकलते, पर स्कूल न पहुँचते और कहीं से कहीं चले जाते। जैसे स्कूल जाने में उनकी कोई रुचि न हो। लिहाज़ा एक दिन मास्टर जी ने क्लास के दो लंबे-तगड़े लड़कों को भेजा, कि जैसे भी हो, कश्मीरी को लेकर आओ।
कश्मीरीलाल उस समय एक खेत में बैठे थे। हरी-भरी फ़सलों का आनंद ले रहे थे। लड़कों ने स्कूल चलने के लिए कहा तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया, “नहीं, मैं नहीं जाता।”
“पर मास्टर जी ने कहा है, हम तो लेकर जाएँगे।” उन लड़कों ने भी अपना इरादा बता दिया।
“मैंने कहा न, मैं नहीं जाऊँगा . . . नहीं जाऊँगा,” हठी कश्मीरीलाल का जवाब।
“जाओगे कैसे नहीं? मास्टर जी ने हमें तुम्हें लाने के लिए भेजा है। चलना तो तुम्हें पड़ेगा ही।” उन लड़कों ने धमकाया। फिर सच ही उन दो लड़कों में से एक ने कश्मीरीलाल का सिर पकड़ा, दूसरे ने पैर और डंडा-डोली करते हुए स्कूल की ओर चल पड़े।
पर राह में ज़िद्दी और लाड़ले कश्मीरीलाल मचल गए, “मैं नहीं जाऊँगा, नहीं जाऊँगा।”
रास्ते में एक जगह खेत आया जिसमें ख़ूब पानी भरा पड़ा था। मिट्टी चिकनी थी। कश्मीरीलाल ने छूटकर भागने की कोशिश की, तो लड़कों के हाथ से फिसलकर मिट्टी में लिथड़ गए। वे खेत में उसी हालत में लोट गए। बोले, “मैंने कहा न, मैं स्कूल नहीं जाऊँगा, नहीं जाऊँगा!”
“स्कूल तो हम तुझे ज़रूर ले जाएँगे,” उन हिम्मती लड़कों ने कहा और उसी हाल में कश्मीरीलाल को टाँगकर, डंडा-डोली करते हुए स्कूल की ओर चल पड़े।
वे मास्टर जी के पास इसी रूप में कश्मीरीलाल को ले गए। मास्टर जी ने कहा, “तुम इसे अभी इसके घर ले जाओ, और नहलाकर लाओ।”
लड़कों ने ऐसा ही किया। कश्मीरीलाल उन लड़कों के साथ नहा-धोकर स्कूल गए। तब तक उनकी समझ में आ गया था कि अगर वे ज़िद्दी हैं तो मास्टर जी भी कम ज़िद्दी नहीं हैं। वे इतनी आसानी से मानेंगे नहीं।
तब तक मास्टर जी की बातों का कुछ-कुछ असर उनके मन पर होने लगा था। मास्टर जी ने उन्हें घर-परिवार का इज़्ज़त का हवाला देकर पढ़ने-लिखने और योग्य बनने के लिए कहा। यह भी समझाया कि “गया वक़्त फिर कभी लौटकर नहीं आता बेटा। हाँ, मन में पछतावा ज़रूर रह जाता है और वह ज़िन्दगी भर रहता है।”
उनकी अच्छी बातों का असर कश्मीरीलाल पर दिखने लगा। दिमाग़ तो उनका तेज़ था ही, जल्दी ही कक्षा में तेज़ी से सीखकर सबसे होशियार बच्चों की टोली में शामिल हो गए। उसके बाद वे कभी पढ़ाई-लिखाई में पीछे नहीं रहे।
*
हाँ, सन् सैंतालीस में जब कश्मीरीलाल किशोर ही थे, फिर एक परीक्षा काल सामने आ गया। देश-विभाजन की गर्द भरी आँधी में बहुत कुछ एक साथ टूट-फूट गया। पढ़ाई छूटी, सिर पर पारिवारिक चिंताओं का भारी बोझ आ पड़ा।
उस साल बहुत कुछ लुट-पिटकर हमारा परिवार शिकोहाबाद आया तो मेरे भाइयों के लिए सबसे ज़रूरी था पिता के काम में मदद करना। बड़े भाईसाहब बलराज जी के साथ-साथ कश्मीरी भाईसाहब ने भी पढ़ाई छोड़ी, पिता के काम में उनका साथ देने लगे। फिर कुछ समय बाद दर्शना भाभी से उनका विवाह हुआ। यह विवाह बरसों पहले ही तय हो गया था। पर कश्मीरी भाईसाहब और दर्शना भाभी दोनों तब काफ़ी छोटे थे। तो तय हुआ कि दोनों के बड़े होने पर विवाह होगा। और यों तरुणाई में ही दोनों विवाह के बंधन में बँध गए।
वह विवाह बड़ी धूम-धाम से हुआ था। मैं तब बहुत छोटा था, पर उसकी कुछ-कुछ याद मन में है। यह भी याद है कि हम भाइयों के लिए तब साहबी ढंग के टोप ख़रीदे गए थे। उन्हें पहनकर हम बड़ी शान महसूस कर रहे थे। बाद में भी बहुत दिनों तक वे टोप घर में रहे। फिर कहाँ चले गए, पता नहीं। अलबत्ता मेरे शिशु मन की स्मृतियों में कहीं न कहीं बादामी रंग के उस टोप की याद भी शामिल है, जिसे कभी-कभी मैं पहना करता था।
मुझे याद है, विवाह के बाद भी दर्शना भाभी ने पढ़ाई छोड़ी नहीं थी। वे शायद बी.डी.एम. कन्या विद्यालय में पढ़ने के लिए जाती थीं। उनके साथ ही हमारे पड़ोसी सोनी परिवार की चंचल भी पढ़ने जाती थी। दर्शना भाभी और चंचल सहेलियाँ थीं, और संभवतः एक साथ ही पढ़ रही थीं। ऐसा याद पड़ता है कि दोनों ने एक साथ ही हाईस्कूल की परीक्षा दी थी। मेरे शिशु मन की जो शुरूआती स्मृतियाँ भीतर संचित हैं, उनमें दर्शना भाभी और चंचल दोनों के साथ-साथ तैयार होकर हमारे घर से स्कूल जाने की याद भी है। पता नहीं क्यों, उनका इस तरह तैयार होकर स्कूल जाना मुझे बड़ा अनोखा लगता था। तब मैं छह-सात बरस का था, और शायद पहली-दूसरी में पढ़ रहा होऊँगा। बाद में दर्शना भाभी ने इसी स्कूल से बारहवीं की भी परीक्षा पास की। उस ज़माने के हिसाब से यह अनोखी बात थी।
बड़े भाईसाहब बलराज जी की तो कपड़े की दुकान थी ही। पिता जी ने कश्मीरी भाईसाहब को भी शहर के मुख्य बाज़ार यानी कटरा बाज़ार में कपड़े की दुकान खुलवा दी, जिसकी अपनी व्यस्तता थी। दुकान काफ़ी अच्छी चलने लगी थी। उन्हीं दिनों सुप्रसिद्ध गीतकर जगतप्रकाश चतुर्वेदी सूचना विभाग में अधिकारी बनकर आए। उनका दफ़्तर भाईसाहब की दुकान के ऊपर ही था। जगतप्रकाश जी के गीतों की उस समय कवि-सम्मेलनों में धूम थी। ख़ासकर उनके पावस गीतों का तो जवाब ही न था। वे झूम-झूमकर पढ़ते और सुनने वाले उनसे ज़्यादा झूमकर उन मधुर गीतों का आनंद लेते। कश्मीरी भाईसाहब की पढ़ाई भले ही बीच में छूट गई हो, पर वे बहुत अच्छे साहित्य-रसिक थे। इन्सान उससे भी अच्छे। लिहाज़ा जगतप्रकाश चतुर्वेदी जी की उनसे ख़ूब अच्छी दोस्ती हो गई जो अंत तक चलती रही। यह दोस्ती क्या थी, दो साहित्यिक मिज़ाज के मित्रों का साहित्यिक संगम था, जिसने दोनों को ही भीतर-बाहर से समृद्ध किया। दोनों की रुचियाँ मिलती थीं और दोनों जल्दी ही एक-दूसरे के निकट आ गए।
जगतप्रकाश चतुर्वेदी का कश्मीरी भाईसाहब के घर पर भी प्रायः आना-जाना होता था, जहाँ कश्मीरी भाईसाहब और दर्शना भाभी दोनों ही उनके गीतों के मुरीद थे। कश्मीरी भाईसाहब का विवाह पहले हुआ था। कुछ समय बाद जगतप्रकाश जी का भी विवाह हुआ, तो दोनों परिवारों के बीच काफ़ी आत्मीय सम्बन्ध बन गए। बल्कि जगतप्रकाश जी बहुत बार सपत्नीक उनके मेहमान रहे। दर्शना भाभी को भी उन दोनों का आतिथ्य करके बहुत अच्छा लगता था।
इसका परिणाम यह हुआ कि भाईसाहब के भीतर फिर से पढ़ने की इच्छा ज़ोर मारने लगी। उन्होंने दुकान सँभालते हुए ही साथ-साथ प्राइवेट परीक्षाएँ दीं और बी.ए. तक की पढ़ाई पूरी कर ली। यह भी उस हालात में, जब कि दुकान की व्यस्तता के बीच उन्हें पढ़ने के लिए बहुत कम समय मिलता था। पर वे पढ़ाई में तेज़ थे, स्मृति अच्छी थी। एक बार जो पढ़ते, वह झट याद हो जाता और उनके स्मृति भंडार में सुरक्षित हो जाता था। इसी बूते प्राइवेट ही सही, एक के बाद एक परीक्षाएँ पास करते गए और वह भी सिर्फ़ अपनी भीतर की संतुष्टि के लिए। उसके पीछे और कोई उद्देश्य नहीं था। किसी तरह के लाभ का तो बिल्कुल ही नहीं।
इससे भी उनके भीतर ज्ञान की जो ललक है, नई-पुरानी चीज़ों को जानने की जो जिज्ञासा है, उसका पता चलता है।
[6]
कश्मीरी भाईसाहब को अपने बचपन में माँ और नानी से सुनी कहानियाँ भी बहुत अच्छी तरह से याद थीं। यही बात मुझमें भी है। माँ की सुनाई कहानियों की मुझे ख़ूब अच्छी तरह याद है। इनमें एक तो ‘अधकू’ वाली कहानी भी है, जिसका मुझ पर ख़ासा असर पड़ा था। हालाँकि यह कहानी शायद जस की तस मुझे याद नहीं रह गई। इस कहानी को मैंने थोड़ा अलग रूप देकर अपनी बाल कहानियों की पुस्तक ‘इक्यावन बाल कहानियाँ’ में शामिल किया है।
कश्मीरी भाईसाहब ने भी मेरी बाल कहानियों की किताब पढ़ी। फिर अगली बार मिले तो इस कहानी की चर्चा छिड़ते ही एकाएक उनकी बड़े ज़ोरों की हँसी छूट गई। बोले, “चंदर, तुझे यह कहानी याद रह गई?”
मैंने कहा, “हाँ भाईसाहब। पर बीच में कहीं-कहीं कुछ घटनाएँ भूल गया। तो वे मैंने अपनी कल्पना से गढ़ लीं।”
कश्मीरी भाईसाहब बोले, “अच्छा, तभी मैं सोच रहा था कि कहानी तो वही है, जो मैंने बचपन में नानी से सुनी थी। पर तूने लिखी कुछ अलग तरह से है।”
परिवार में कितनी चीज़ें साझा होती हैं और संयुक्त परिवार का सुख कैसा होता है, जो हमारे रक्त, मांस-मज्जा, हड्डियों और सर्जना में गहरे धँसा होता है, और हमारे रोएँ-रोएँ में आनंद-निर्झर बनकर फूट पड़ता है, यह इस छोटे से प्रसंग से जाना जा सकता है।
ज़ाहिर है, इस कहानी को पढ़ते समय कश्मीरी भाईसाहब भी मेरी तरह अपने बचपन की सीढ़ियाँ उतरकर बचपन के जादुई संसार में चले गए होंगे! और वहाँ जो अनमोल मणियाँ बिखरी होती हैं, उनकी क़ीमत कोई कूत नहीं सकता। शायद यही असर होता है, बचपन में माँ या नानी से सुनी हुई कहानियाँ का।
हाँ, एक फ़र्क़ ज़रूर था। भाईसाहब ने जो कहानी बचपन में नानी से सुनी थी, वह मुझे मेरे बचपन में माँ ने सुनाई थी। यों पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारी हमारी इस अनमोल लोक-संपदा की कैसे रक्षा होती आई है, यह जानना मेरे लिए किसी रोमांच से कम न था।
कश्मीरी भाईसाहब से जुड़ा एक और बचपन का प्रसंग याद आ रहा है। मैं तब छठी कक्षा में पढ़ता था। यानी छोटे पालीवाल से बड़े पालीवाल स्कूल में पढ़ने चला गया था। उन दिनों पत्रिकाएँ पढ़ने के लिए हम लोग तरसते थे।
मेरे मित्र और सहपाठी महेश की प्रकाश टाकीज के बाहर एक छोटी सी किताबों की दुकान थी, जहाँ इकन्नी-इकन्नी में फ़िल्मी गीतों की किताबें मिला करती थीं। महेश की दुकान बहुत चलती थी। उसने उन छोटी-छोटी कितबियों के अलावा कुछ फ़िल्मी पत्रिकाएँ और उपन्यास भी रखे हुए थे, जिन्हें लोग पढ़ने के लिए ले जाते थे और इकन्नी रोज़ के हिसाब से किराए के साथ वापस करते थे। ख़ासकर जासूसी उपन्यास तथा गुलशन नंदा, रानू-राजवंश सरीखे लेखकों के लोकप्रिय उपन्यास वह रखता था जो उन दिनों बहुत लोग पढ़ते थे। मुझे याद है कि ओमप्रकाश शर्मा के जासूसी उपन्यास मैं उससे किराए पर लेकर पढ़ा करता था और वे मुझे बहुत पसंद थे। कुशवाहा कांत का प्रसिद्ध उपन्यास ‘लालरेखा’ भी मैंने महेश से लेकर पढ़ा था, और उसका प्रभाव बहुत दिनों तक मेरे मन पर बना रहा था।
इसी तरह महेश के पास बच्चों की कुछ पत्रिकाएँ भी आया करती थीं। ख़ासकर ‘चंदा मामा’ के बहुत से नए-पुराने अंक वह रखता था और उन्हें किराए पर पढ़ने के लिए देता था। मुझे याद है, महेश से किराए पर लेकर मैंने ‘चंदा मामा’ के कई अंक पढ़े थे। वहीं से ‘चंदामामा’ का एक बड़ा ही ख़ास अंक मुझे मिल गया था जिसमें एक पूरा उपन्यास छपा था। और बस, मेरे पंख उड़ने के लिए छटपटाने लगे। एक अंक में पूरा उपन्यास मिल जाने का मतलब था अच्छी-ख़ासी दावत, जिसमें एक से एक बढ़िया व्यंजन बने हों। वाह, क्या बात थी!
मगर हर चीज़ की तरह इस काम में भी कोई न कोई बाधा या मुसीबत तो होनी ही थी। और वह मुसीबत थी, कश्मीरी भाईसाहब की कपड़े की दुकान। कम से कम उस समय तो मुसीबत ही लगी।
वे गरमी की छुट्टियों के दिन थे और ‘सालगा’ यानी शादियों का सीज़न होने की वजह से मुझे कश्मीरी भाईसाहब की मदद के लिए उनकी कपड़े की दुकान पर जाना पड़ता था। ग्राहकों को भाईसाहब के निर्देश पर कपड़े के थान निकाल-निकालकर दिखाना मेरी ड्यूटी में शामिल था। फिर ग्राहकों के जाने के बाद उन्हें तह कर-करके रखना होता था। छोटा-सा मैं और इतने बड़े-बड़े कपड़ों के थान। तह करते-करते पसीने-पसीने हो जाता। और सुबह से यह काम शाम तक चलता। लिहाज़ा वहाँ ‘चंदामामा’ पढ़ने का समय कैसे मिलता?
शाम के समय भाईसाहब ने मुझे ‘उगराई’ (जिन्हें उधार दिया था, उनसे पैसों का तक़ाज़ा करने) के लिए भेजा तो मैंने मुक्ति की साँस ली और पत्रिका मोड़कर जेब में रख ली। कुछ आगे निकलते ही पत्रिका निकाली और सड़क पर ही पढ़ाई शुरू। पढ़ते-पढ़ते सड़क पर आगे चलता जाता।
ख़ूब व्यस्त सड़क थी। ठेलमठेल वाली। यानी सड़क पर इक्के, ताँगे, रिक्शे, मोटरों की पों-पों! पर मेरी नज़र तो ‘चंदामामा’ के पन्नों पर दौड़ रही थी, और यों राह चलते पढ़ाई अबाध जारी थी। आज इस प्रसंग को याद करके ही मेरा मन घबराता है। अगर एक भी पैर मेरा इधर से उधर पड़ जाता तो? पर चूँकि पत्रिकाएँ हमें पढ़ने को मिलती ही नहीं थीं तो हम इस क़द्र उनके लिए तरसते थे, इस क़द्र . . . कि तब शायद अपने जनून में यह सब सोच सकने की हालत में ही नहीं थे।
[7]
कश्मीरी भाईसाहब मज़बूत क़द-काठी के व्यक्ति थे। हमारे घर में अकेले वही थे, जो सुबह-सुबह बहुत नियम से योग और प्रणायाम किया करते थे। और यह सिलसिला उनका अंत तक चला। अंत तक वे ख़ूब स्वस्थ और सक्रिय रहे। आख़िरी दिनों में भी वे चारपाई पर नहीं पड़े। बस, अंत के दो-एक दिन कमज़ोरी के कारण वे ज़्यादातर चारपाई पर लेटे रहते। पर ख़ूब चैतन्य। स्मृति उनकी बहुत अच्छी थी, और वह अंत तक रही। और आख़िरी दिन भी घर-परिवार के लोगों से बातें करते-करते ही वे चले गए।
मुझे याद है, पिता जी जब सुबह-शाम ईश्वर की प्रार्थना करते थे, तो एक बात ज़रूर कहते थे, “हे ईश्वर, किसी नूँ मुथाज न बणाईं।” यानी हे ईश्वर, किसी को मोहताज न बनाना। इसका अर्थ उनके जीवन में ही खुला। वे सौ बरस की उम्र में भी आख़िरी दिन तक चलते-फिरते रहे, और बातें करते-करते चले गए। कश्मीरी भाईसाहब भी ऐसे ही गए, जैसे अचानक कोई हंस उड़ जाता है।
किसी अपने, बहुत अपने का बिछुड़ना कैसी मरणांतक यातना दे जाता है, इसे हम सभी जानते हैं। फिर भी कोई अंत तक चैतन्य भाव से चलता-फिरता और स्वजनों से बातें करता हुआ चला जाए, न स्वयं कष्ट भोगे और न किसी को दे, इससे स्पृहणीय मृत्यु भी कुछ और नहीं। यह शायद किसी निर्मल चित्त वाले पुण्यात्मा को ही मिलती है।
कश्मीरी भाईसाहब अपने अद्भुत गुणों के कारण हमारे घर-परिवार में जीते-जी किंवदंती बन गए थे। वे पहले भी निरंतर स्मृतियों में दस्तक देते थे, अब भी देते हैं। और हमेशा उनकी कही बातों की गूँजें-अनुगूँजें दिल में उठा ही करेंगी। तो भला वे जा कहाँ सकते हैं? वे ज़रूर उन सभी के दिलों में ही समा गए हैं, जो उन्हें आज भी बड़े प्यार से याद करते हैं और विकल होते हैं।
ऐसे अच्छे और प्यारे भाई मुझे मिले और उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला, जिसने मेरी आत्मा में उजास पैदा कर दिया। इससे बड़ा सुख-सौभाग्य भला मेरे लिए और क्या हो सकता है!
कश्मीरी भाईसाहब: वे हमारे घर के क़िस्से-कहानियों वाले प्रेमचंद थे
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टिप्पणियाँ
मधु शर्मा 2024/12/08 12:10 AM
भावुक भावनाओं से ओत-प्रोत व्यक्ति-चित्र। एक के बाद एक विभिन्न व्यक्तियों के जीवन को इतने रोचक ढंग से पाठकों के समक्ष पेश करना आसान काम नहीं। यूँ महसूस होता है कि लेखक की कलम से भावनाएँ जब बहने लगती हैं तो मुझ जैसे पाठक को भी साथ बहा कर ले जाने में सफल हो जाती हैं। मनु जी द्वारा लिखे गये मटियानी जी के व्यक्तित्व पर भरपूर रोशनी, फिर माँ से जुड़ीं हँसने-रुलाने वालीं यादें और पिछले ही अंक में उनके अपने श्याम भैया के व्यक्ति चित्र को पढ़ते हुए यूँ लगा कि जैसे मैं इन सभी से कहीं मिली हूँ।
डॉ अशोक बैरागी 2024/12/07 10:53 PM
साहित्य कुंज' के इस अंक में प्रकाश मनु द्वारा लिखित एक अद्भुत संस्मरण - ‘कश्मीरी भाई साहब : वे हमारे घर के किस्से-कहानियों वाले प्रेमचंद थे' पढ़ा। मन-हृदय गदगद हो गया। एक जिज्ञासा सी भी हुई कि संस्मरण ऐसा भी हो सकता है क्या? जिस गहन संवेदना और आत्मीयता से लिखा है, उससे पता चलता है कि स्वयं लेखक किस कदर अपने भाई के व्यक्तित्व में उतरे होंगे। मनु जी ने कश्मीरी भाई के बहाने परिवार के सभी भाई-बहनों की रुचि, स्वभाव, विचार और संवेदना की अद्भुत छवियाँ निर्मित की हैं। एक रिक्शा वाले का हनुमान मंदिर वाले चौंक पर लेखक को ले जाना किसी आश्चर्य से कम नहीं है, पर यहाँ ज्यादा महत्वपूर्ण है कश्मीरी भाई का उदारमना एवं सामाजिक होना। कथा प्रसंगों के साथ-साथ अपनी आत्मकथा लेखन के भी कई सृजन सूत्र लेखक ने साँझा किए हैं। ऐसे विलक्षण किस्सागो और पवित्र हृदयी भाई का मिलना भी किसी पुण्य का ही प्रताप है। लेखक ने अपनी स्मृतियों को भी जिस अद्भुत रोचकता और वैचारिक कौतुहल के साथ लिखा है, उसका कोई जोड़-तोड़ नहीं है। इंसानी गुणों से भरपूर कश्मीरी भाई बहुत ही निर्मल हृदयी इंसान रहे हैं। इनके द्वारा सुनाए विभिन्न कथा-प्रसंग, घर-परिवार का इतिहास और गौरवमयी परंपराओं की कहानी सजग और प्रेरित करती हैं। कश्मीरी भाई का स्कूल न जाने वाला प्रसंग भी बहुत शानदार है, जो खूब हंसाता-गुदगुदाता है, वही सीख भी देता है। पाठक लेखक के साथ उसमें बहता चला जाता है। इतनी सहज और सरल भाषा में ऐसे अनूठे संस्मरण पढ़ने को कभी-कभार ही मिलते हैं। बधाई मनु जी। धन्यवाद ’साहित्य कुंज।' -डॉ. अशोक बैरागी
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Manvender 2024/12/08 11:54 PM
आज जबकि बहुत ही सूक्ष्म तरीके से व्यक्ति की निजता की रक्षा के नाम पर एकल परिवार में भी घुन लग रही है, (जिसमें कई प्रचार माध्यम भी अपने निहित स्वार्थों के चलते योगदान दे रहे हैं) संयुक्त परिवार की बात करना भी पिछड़ापन और गुनाह सा हो गया है। यहां प्रकाश मनु ऐसी सोच को शीर्षासन करवा देते हैं। एक विशाल संयुक्त परिवार में रहने का अनुभव किस प्रकार से किसी मानस का निर्माण करता है यह संस्मरण उसकी बानगी देता है। घर के माहौल की धूप-हवा और परिवार से प्राप्त स्नेह, सहारा और अनुशासन का खाद-पानी किस प्रकार व्यक्तित्वों को अंकुरित, विकसित, पल्लवित होने के अवसर देता है प्रकाश मनु ने इसका तबीयत से वर्णन किया है। प्रकाश मनु स्वयं ऐसे परिवार की निर्मिति हैं।