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राम-सीता

 

पड़े थे राम भूमि पर
निद्रालीन . . . 
सोई थीं बग़ल में सीता कृशकाय। 
 
एक चादर मैली सी जिस पर दोनों
सिकुड़े से पड़े थे
इस प्रतिज्ञा में मानो कि कम से कम ज़मीन वे घेरेंगे, 
एक सिरे पर राम दूसरे पर सीता, 
बीच में संयम की लंबी पगडंडी . . . 
 
राम छोटा सा बेडौल तकिया लगाए
जिसकी रूई जगह-जगह से निकली हुई, 
सीता सिर के नीचे धोती का छोर मोड़कर रखे
उसी को मिट्टी के महलों का सुख मानकर लेटी थीं। 
 
पास में एक परात एल्यूमिनियम की
एक पतीला बहुत छोटा
एक करछुल एक लोटा
फावड़ा . . . गेंती . . . 
एक छोटा ट्रांजिस्टर भी! 
 
और हाँ, सोती हुई सीता की कलाई पर
चमक रही थी एक बड़ी सी
मर्दाना घड़ी, 
ज़रूर राम की होगी। 
 
यों बहुत सुख था
ढेर-ढेर सा सुख
जो शहर में साथ-साथ मजूरी करते-खटते
उन्होंने पाया था
और जो उनके साँवले चेहरों पर
दीयों की-सी जोत बनकर झलकता था। 
 
शहर फरीदाबाद का यह स्टेशन
नहीं-नहीं स्टेशन का
यह सर्वथा उपेक्षित, धूलभरा प्लैटफ़ॉर्म नंबर चार, 
लेटे थे जहाँ राम और सीता दिन भर के श्रम के बाद बेसुध
निद्रालीन . . . 
अयोध्या के राजभवनों का-सा आलोकित
नज़र आता था! 
 
कल वे फिर खटेंगे वन में
साथ-साथ मजूरी . . . 
कल वे फिर आएँगे इसी अधकच्चे मटियारे
प्लैटफ़ॉर्म नंबर चार पर
आश्रय पाने
और यों जीवन भर ख़त्म न होने वाले कठिन बनवास का
एक और दिन काटेंगे। 

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