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त्रिलोचन—एक बेढब संवाद

 

अजी त्रिलोचन जी
आज तो आदमी ही हैं कुछ विचित्र
अजीब—बड़े ही अजीब
और प्रगतिशील तो कहीं से भी नहीं
मैं फिर कहता हूँ साफ़-साफ़—प्रगतिशील तो
कहीं से भी नहीं, आई स्वेयर . . .! 
 
सचमुच बड़े अजीब हैं आप
बहुत खँगालो तो भी झलकता नहीं कोई प्रोग्रेसिव तेवर
झल्लाई मुद्रा . . . 
नहीं आग, अंगार विस्फोट कोई धमाका फाँ-फूँ
नहीं मार्क्स ऐंजेल्स समेत बड़े-बड़े नाम
कोटेशन उपजाते त्रास
 
बस यों कि धीमी-धीमी धीमी-धीमी सी कुछ बातें
कभी-कभी जोश (हा-हा-कार) 
जैसे जड़ें धँसती हैं चटियल ज़मीन में
कि जैसे जड़ों में
धँसता है पानी . . .! 
 
पूछता हूँ उछलकर उन दिनों
का ख़ाका
जब कई-कई दिनों तक चला फाका—
वह दौर कि भीख माँगते त्रिलोचन
को देखा जिसने कल . . . 
फटा पजामा
कुरता तार-तार! 
 
ऐसे बेजार वक़्त के बारे में पूछता हूँ मैं
‘कैसे थे वे गर्दिश के दिन, बताइए न ज़रा!’
और लीजिए आप हैं कि एक मामूली से शब्द के
अर्थ की खींचतान में ही उलझ गए
और खींचते हैं तो
खीं . . . च . . . ते ही चले जाते हैं
कि उसकी अजीब लय-तान में
कभी कोई पेड़ कभी कोई बिरवा कभी
नागरी प्रचारिणी का प्रांगण कभी आमड़े का बौर
सब समा जाते हैं
 
यह क्या हुआ आपको कि आप तो पटरी
से ही उतरकर
चल दिए त्रिलोचन जी
 
यों भी चलते हैं आप ज़रा तेज़-तेज़
रुकिए, रुकिए तो ज़रा
ऐसे भला कैसे आएगा प्रगतिशील कवियों की
‘नई लिस्ट’ में नाम आपका . . .? 
 
सुनिए! 
सुनिए तो ज़रा—
देखिए, मेरी मुश्किल भी अजीब है
मैं तो आया हूँ लाल तमतमाया चेहरा देखने
जनपद के कवि का
बडे-बड़े बेडौल रक्त के दाग
सोचता था आप बड़ी शिकायतें करेंगे ज़माने की
ज़रा सी फूँ-फाँ समकालीनों पर
और आप हैं कि मुस्कुराते हैं, बस मुस्कुराए जाते हैं
 
बेशक
आपकी वह खुली हुई
सादा आसमानों की सी हँसी लाजवाब! 
मगर तेवर . . . 
तेवर वहाँ कहाँ? 
जो हम छुटभैयों को भाता है
 
कोई ढाई-तीन घंटे की मशक़्क़त के बाद
लौटा तो देखता हूँ
मुस्कुरा रहे हैं हरिपाल और ग़ुस्सा
मेरी नाक पर:
 
हद्द है यार, ग़ज़ब यह त्रिलोचन नाम का शख़्स भी, 
ये आदमी तो कहीं क़ाबू में ही नहीं आता . . .! 
नहीं ख़ुश होता सुनकर प्रशंसा
नहीं निंदा से नाराज़
जैसे-जैसे कहो, मान जाता है आसानी से
आपकी बात
और मुस्कुराता है यों ही ख़ामख़ाह! 
 
कहो हरिपाल, कहो—
क्या माज़रा है? 
कहो त्रिलोचन के चहेते दोस्त, चित्रकार! 
 
चलते हुए हरिपाल के कंधे पर रख देता हूँ सिर
आँखों में आसमान . . . 
कि यक-ब-यक
उस साफ़ लंबी स्लेट पर खिंच आते हैं
मेरे ही कहे हुए शब्द
उछलते बौने! 
 
शब्दों पर त्रिलोचन का हँसना
हँसते हुए से त्रिलोचन के जवाब
बड़ी उस्तादी
बड़े गंभीर उस्तादाना वार
सरल अपनाव . . . 
(कि आह! मेरा गर्व
रास्ते की धूल में जा गिरता है) 
 . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 
 . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 
 
कहता नहीं अब मैं पहले की तरह
कि वह कौन था त्रिलोचन लिखीं जिसने
कविताएँ प्रगतिशील
जनता के निर्धूम दुखों की
जो था
जो है जनपद का कवि . . .! 
 
वक़्त की राख के नीचे दबी है
जो आँच
बरसों से यों ही सुलगती
बहुत-बहुत मद्धिम फिर भी तेज़! . . . 
हरिपाल के साथ बैठे-बैठे टटोलता
रहा मैं
डूबती साँझ तलक। 

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