मैंने रामकथा क्यों लिखी
आलेख | साहित्यिक आलेख प्रकाश मनु15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
(आत्मकथ्य)
इसे प्रभु राम की कृपा ही कहना चाहिए कि उनके जीवन और अद्भुत लीलाओं पर लिखी गई मेरी रामकथा ‘फिर आए राम अयोध्या में’, सरयू नदी की क्षिप्र धार की तरह अब तेज़ी से चल निकली है। घर-घर, द्वार-द्वार पर इसने दस्तक दी है। नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे इसने पुकार लगाई है। और इसकी गूँज अब पूरे देश में सुनी जा रही है, देश से बाहर भी।
पिछले बरस ही मेरी रामकथा ‘फिर आए राम अयोध्या में’ छपकर आई थी। पर इस छोटी सी कालावधि में ही वह इस क़द्र लोकप्रिय हुई कि अंग्रेज़ी समेत देश की चौदह भाषाओं में इसका अनुवाद हो रहा है। इनमें अंग्रेज़ी अनुवाद ‘रामा’ज़ अराइवल, अयोध्या रिजोइसेज’ अभी थोड़े समय पहले ही आया है। मराठी अनुवाद हो चुका है और वह शीघ्र छपकर आने वाला है। गुजराती और उड़िया अनुवाद भी बहुत जल्दी उपलब्ध हो जाएँगे। अन्य भाषाओं में भी काम चल रहा है। और इस पर पाठकों और मित्र लेखकों की जो उत्साहपूर्ण प्रतिक्रियाएँ मुझे मिली हैं—और अब भी निरंतर मिल रही हैं, उनका वर्णन करूँ, तो मुझे भय है, वह अलग से एक पुस्तक बन जाएगी।
पर प्रश्न यह है कि मैंने रामकथा लिखी क्यों? कैसे यह विचार मेरे मन में आया? इसका सीधा-सा उत्तर तो यही है कि रामकथा मुझे बचपन से ही मोहती थी। याद आता है, राम का नाम आते ही मैं एक अलग दुनिया में पहुँच जाता था। लगता था, राम दिव्य हैं, राम मनोहर हैं, राम कितने बड़े, कितने महान हैं। जीवन में कितने कष्ट उठाए उन्होंने, पर न तो सच्चाई की लीक छोड़ी और न अपनी मर्यादा। इसीलिए तो पुरुषोत्तम राम कहा गया उन्हें। मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया।
बचपन से ही मुझे रामकथा की लौ लग गई थी। इसका एक बड़ा कारण घर का वातावरण भी था। बचपन में हमारे घर हर साल कार्तिक महीने में बाबा रामजीदास आया करते थे। वे हमारे गुरु सरीखे थे। ऋषिकेश में उनकी छोटी-सी कुटिया थी। वहाँ से हर बरस आते। कार्तिक मास में ही। रात में कार्तिक की कथा होती। आसपास की बिरादरी बड़े प्रेम और भक्ति भाव से उसे सुनने आती। स्त्री-पुरुष दोनों। कथा से पहले मेरे बड़े भाई कश्मीरीलाल महाभारत पढ़ते थे, और उनसे छोटे भाई कृष्णलाल रामचरित मानस का पाठ करते। फिर बाबा जी कार्तिक की कथा सुनाते। उसके बाद कुछ देर भजन-कीर्तन होता था। यों बड़ा आनंदमय वातावरण बन जाता था।
बाद में कश्मीरी भाईसाहब का महाभारत पाठ तो समाप्त हो गया, पर रामचरितमानस का पाठ तो अंत तक जारी रहा। जब तक बाबा जी कार्तिक मास में आते रहे, और कथा चलती रही, तब तक। और वे बरसों बरस आए। मुझे याद है, मेरी तरुणाई तक तो वे ज़रूर आए।
कृष्ण भाईसाहब का रामचरित मानस का पाठ मुझे मोहता था, और अब तक उसकी बड़ी गहरी छाप मेरे मन में है। उनके पाठ में रामकथा का रस भी होता, गुरुता और गौरव भी। साथ ही उनमें एक ख़ास तरह की गंभीरता थी। जब वे पढ़ते तो मानो सारा दृश्य पूरी तरह सजीव हो उठता। मैं हज़ारों बरस पहले के एक बिल्कुल भिन्न वातावरण में जा पहुँचता, और उसका हिस्सा भी बन जाता।
मेरे जीवन का यह अवर्णनीय सुख, अवर्णनीय अनुभव है, जो आज भी मेरे रोम-रोम में व्याप्त है।
बाद में भाईसाहब की व्यस्तता के कारण मैं रामचरित मानस का पाठ करने लगा। मैंने उनका ही ढंग अपनाने की कोशिश की। मैं उन जैसा प्रभाव तो नहीं ला पाया, पर फिर भी श्रोताओं को रामकथा का रस, आनंद मिले, यह कोशिश तो मैं करता ही था। ख़ुद भी आनंदविभोर होकर पढ़ता था। पढ़ते हुए राम की पूरी जीवन कथा मेरी आँखों के आगे एक मर्मस्पर्शी फ़िल्म की तरह चल पड़ती, और मैं उसमें डूब-सा जाता।
तब से बहुत बार रामचरित मानस पढ़ा। और फिर एक भारतीय का जीवन तो जन्म से लेकर अंत तक पूरी तरह रामकथा से सराबोर होता ही है। कितने ही भिन्न-भिन्न रूपों में राम हमारे मन में बसे हैं। हर क्षण, हर घटना, हर प्रसंग में उनकी याद आती है। जीवन में जब भी कोई बड़ी विपदा आती है, तो एकाएक राम याद आते हैं, कि अरे, राम ने तो अपने जीवन में कितने दुख, कितनी परेशानियाँ झेलीं, पर अपना आदर्श। अपनी मर्यादा नहीं छोड़ी। तो फिर हमारे पैर क्यों डगमगा रहे हैं? ऐसे ही सीता जी की याद आती है, लक्ष्मण और भरत याद आते हैं। रामकथा में ये सभी अपने ढंग की एक अलग लहर-सी पैदा करते हैं। इसलिए हमारे दिलों में भी आते हैं, तो भीतर तक हमें लहर-लहर कर जाते हैं। कई बार हम पढ़ते या सुनते हुए आनंद विह्वल हो उठते हैं, तो कई बार करुणा से भीगने लगते हैं। आँखें भर आती हैं।
रामकथा के न जाने कितने रंग-रूप और दृश्यावलियाँ हैं। कितने उतार-चढ़ाव, पर उन सभी का आस्वाद विलक्षण। यों रामकथा मेरे लिए एक अनंत समुद्र की तरह थी, और उसमें अवगाहन करने का आनंद क्या है। शायद बताना मुश्किल है।
तब सोचा न था कि रामकथा वाल्मीकि की वाणी और तुलसी की क़लम से आगे चलकर मुझ तक कुछ इस तरह आएगी, कि मैं भी उसे कहूँगा, कुछ अपने अलग ढंग से। जैसे मैंने जन्म से अब तक ग्रहण की, वैसे। इसमें न तो पांडित्य की गुरुता है और न मैं ऐसा चाहता ही था। एक सीधी-सादी रामकथा है यह, जिसमें मन का रस है। कहीं से भी डूबो, रस ढुर पड़ेगा, और वह देर तक भीतर बहता हुआ, आपको रामकथा के इस सुंदर घाट की ओर खींचेगा। यह वही घाट है, जहाँ तुलसीदास जी ने चंदन घिसा था और प्रभु राम को तिलक लगाया था। ऐसी मन-प्राणों में बहने वाली रामकथा लिखना ही मेरा उद्देश्य था।
अपने यहाँ ज्ञान प्राप्त करने के लिए तो न जाने कितने ग्रंथ हैं। एक से एक उत्कृष्ट। पर उस राह पर जाना मेरा मनोरथ नहीं था। रामकथा को मैंने बस रामरस की अभिव्यंजना तक ही रखा है। कितना सफल हो पाया, कह नहीं सकता। इसे तो मेरे सहृदय पाठक ही बताएँगे।
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पचहत्तर बरस का मेरा जीवन। बचपन से लेकर अब तक क़लम ही घिसता रहा। बहुत कुछ और लिखा गया। पर रामकथा पर तो क़लम न चलाई थी। हाँ, ‘नंदन’ पत्रिका में था, तो राम के जीवन के कुछ प्रसंगों पर बच्चों के लिए कुछ कहानियाँ ज़रूर लिखी गईं। उन्हें काफ़ी पसंद भी किया गया। पर कभी पूरी रामकथा भी कहूँगा, यह तो दूर-दूर तक नहीं सोचा था। ऐसे में डायमंड बुक्स के भाई नरेन जी के प्रेमपूर्ण आग्रह ने बहुत बड़ा काम किया।
मैंने संकोचवश मना किया कि भाई नरेन जी, इस अवस्था में यह सम्भव लगता नहीं है कि मैं रामकथा लिख पाऊँगा। वार्धक्य और शारीरिक शिथिलता लगातार पीछे खींच रही थी। पर भाई नरेन जी का आग्रह अबाध था। थमा नहीं। वे शायद यह बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि उनके आग्रह को टाल पाना मेरे लिए सम्भव नहीं। उनके लिए मेरे मन में जो स्नेह और प्रेम है, उसे बता पाना मुश्किल है।
इसलिए उनका हर बार एक ही आग्रह, “मेरा सपना है मनु जी, कि अपने जीवन काल में बच्चों के लिए रामकथा पर इतनी सुंदर पुस्तक निकालूँ, कि बच्चे उसे पढ़कर आनंद विभोर हो जाएँ। साथ ही वे उससे सीख भी लें। देश की कई भाषाओं में मैं उसे निकालना चाहता हूँ, ताकि वह दूर-दूर तक पहुँचे। मेरा यह सपना बस, आप ही पूरा कर सकते हैं। आप जो रामकथा लिखेंगे, उसे पढ़ते हुए बच्चों को बहुत रस आएगा। इसलिए मैं चाहता हूँ कि आप ही यह काम करें।”
फिर साथ में यह भी जोड़ देते, “आपने जीवन भर बच्चों के लिए लिखा है। इसलिए आप जो रामकथा लिखेंगे, वह देश-दुनिया के बच्चों तक पहुँचेगी। पूरे भारत में तो मैं उसे पहुँचाऊँगा ही। विदेशों में भी आपकी यह पुस्तक जाएगी, ताकि बच्चे रामकथा के माध्यम से भारतीय संस्कृति से जुड़ें!”
नरेन जी इतने अपने हैं और उनका अनुरोध इतना सच्चा और प्रबल था कि मुझे कहना ही पड़ा, “ठीक है नरेन जी, मैं करूँगा यह काम। मैं लिखूँगा रामकथा, और वह अपने ढंग की एक निराली पुस्तक होगी, जिसे लोग खोज-खोजकर पढ़ेंगे।”
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मैंने कह तो दिया, पर यह काम हो कैसे? कोई छोटा काम तो यह है नहीं। मेरे लिए तो यह पूरा समुद्र मंथन ही था।
पहले कभी देवताओं और दानवों द्वारा मिलकर समुद्र मंथन किया गया था। पर वे तो बड़ी शक्ति, सामर्थ्य और साधनों से संपन्न थे। मैं भला उनके सामने कहाँ? तो फिर भला कैसे रामकथा के समुद्र का मंथन हो।
पुराकाल में अपने ढंग से वाल्मीकि ने यह समुद्र मथा था, बाद में तुलसीदास जी ने भी। पर मैं तो उनके चरणों की धूल भी न था। फिर मेरा ढंग भी कुछ अलग ही था। मेरा रास्ता भी अलग था। मैं राम की ऐसी रस-आनंदमय कथा कहना चाहता था कि बच्चे हों या बड़े, वे यह रामकथा पढ़ते हुए इस क़द्र लीन हो जाएँ, कि एक बार पढ़ना शुरू कर दें, तो पूरी पुस्तक पढ़े बिना न रहें। अंत तक वे पूरी पुस्तक पढ़ लें, तभी यह उनके हाथ से छूटे।
आप कभी मुरारी बापू को राम की कथा कहते हुए सुनें। लगता है, रस झर रहा है। कहते-कहते वे ख़ुद भी रामकथा में इतने डूब जाते हैं कि आँखें बार-बार भीगने लगती हैं। ख़ुद मुरारी बापू की भी, आपकी भी।
मैं वैसा कुछ कर सका या नहीं? नहीं कह सकता है। हाँ, पर इसे आप पढ़ें, तो इतना तो ज़रूर लगेगा कि आप यह रामकथा पढ़ नहीं रहे। बल्कि प्रकाश मनु आपके सामने ही बैठे हैं और पूरा रस ले-लेकर यह कथा सुना रहे हैं। शायद आपको भी इसीलिए रामकथा का पूरा रस आएगा।
राम का चरित ही ऐसा है कि आप पढ़ेंगे, तो मन पर ख़ुद-ब-ख़ुद गहरी छाप लगती जाएगी।
रामकथा का समुद्र कितना गहरा, कितना अगाध है, इसे शब्दों में बता पाना बहुत मुश्किल है। और इसीलिए रामकथा की छाप मन पर कितनी गहरी पड़ती है, यह भी आप इस रामकथा को पढ़कर ही जान जाएँगे।
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मेरी पत्नी डॉ. सुनीता ने भी इस गुरुतर काम में मेरी बहुत मदद की। वैसे भी वे तो रामरस में आकंठ डूबी हैं। वे बचपन में साकरा गाँव में रही हैं। वहाँ संतो नानी अपने सुमधुर स्वर में गाँव वालों को रामकथा सुनाया करती थीं—पूरी तरह भक्ति रस में लीन होकर। गाँव के लोग भी इस रस में भीगते थे। पर उन्हीं में सिंघू भी था। गाँव का ज़मींदार। ख़ूब लंबा-चौड़ा, बलिष्ठ। उसने अपने छोटे भाई को ही घर से निकाल दिया था, और उसकी पूरी ज़मीन क़ब्ज़ा ली।
एक दिन सिंघू संतो नानी की कथा सुनने आया, तो नानी ने उस दिन भरत जी वाला प्रसंग सुनाया कि वे राम को मनाने वन में गए, कि वे अयोध्या की राजगद्दी सँभाल लें। पर प्रभु रामचंद्र जी ने मना कर दिया . . . हालत यह थी कि अयोध्या का राज सिंहासन मानो गेंद बना हुआ था। भरत उसे भाई राम की ओर सरका देते, तो राम वापस भरत के पास ही भेज देते। तब हारकर भरत जी ने राम की चरण पादुकाएँ अयोध्या के राज सिंहासन पर रखीं, और ख़ुद राम की तरह ही अयोध्या के बाहर नंदीगाँव में तापस वेश में रहने लगे . . . कैसा प्रेम था उन दो भाइयों राम और भरत में! कैसा विश्वास . . .! और आज देखो, आज हम क्या कर रहे हैं . . .?
संतो नानी कथा सुना रही थीं, तभी एकाएक सिंघू उठा और उनके चरणों में लोटपोट हो गया। बोला, “माफ़ करना बहन, तुमने मेरी आँखें खोल दीं। मैं अपने छोटे भाई को वापस बुलाऊँगा। उसे उसका सब कुछ सौंप दूँगा। आज से मेरा घर पहले उसका है, फिर मेरा . . .!”
यों सिंघू बदला तो इस क़द्र बदल गया कि फिर वह पूरे जीवन भर संतो नानी का हनुमान बनकर उनकी सेवा करता रहा। संतो नानी गाँव में रामलीला करवातीं, तो उसमें भी वह हनुमान ही बनता, और अपनी अलग थाप छोड़ता।
सुनीता जी ने अपनी कहानी ‘साकरा गाँव की रामलीला’ में इसका पूरा वर्णन किया है।
अलबत्ता, रामकथा में एक निराला जादू तो है ही। उसे कैसे साकार किया जाए, यही मेरी चिंता थी। इसलिए लिखने के बाद भी फिर-फिर इसे तराशा, और सँवारा। रामकथा को मैं हर दिल में सजीव कर देना चाहता था, ताकि वह एक चलती-फिरती जीवंत फ़िल्म की तरह हमारी आँखों के आगे आए, और ख़ुद हमें अपने साथ बहा ले जाए। कितना कर पाया, नहीं कह सकता। पर अगर यह देश-दुनिया के पाठकों को मोह सके, तो लगेगा, मेरा श्रम अकारथ नहीं गया।
यहाँ एक बात और। यह रामकथा आरंभ में बच्चों के लिए लिखने बैठा था। पर यह कुछ आगे बढ़ी तो फिर विस्तार पाती चली गई। अब तो यह सबके लिए है। किशोरों, तरुणों से लेकर दादा-दादी, नाना-नानी सभी वय के सहृदय पाठकों के लिए।
छोटे बच्चों के लिए तो अब एक अलग ही रामकथा लिखी जाएगी। थोड़े और भी सीधे-सरल, संक्षिप्त कलेवर में। यों एक बार यह धारा चली है, तो शायद मुझे थोड़ा और बहाएगी।
अंत में, एक बार फिर से मैं भाई नरेन जी के प्रति आभार प्रकट करता हूँ, जिनके कारण यह रामकथा लिखी गई। मेरी सहयात्री डॉ. सुनीता ने इस काम में पग-पग पर मेरी सहायता की। पर उनके प्रति किन शब्दों में कृतज्ञता प्रकट करूँ, मैं सचमुच नहीं जानता।
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टिप्पणियाँ
उषा यादव 2025/10/11 05:02 PM
बहुत सुंदर आत्मकथ्य है, भाई मनु जी। हार्दिक बधाई। - उषा यादव, आगरा (उत्तर प्रदेश)
उमाशंकर शुक्ल दर्पण 2025/10/11 11:33 AM
बहुत सुंदर आदरणीय दादा जी। पुस्तक के लोकार्पण का साक्षी रहा हूँ। सादर प्रणाम। - उमाशंकर शुक्ल 'दर्पण', नोएडा (उत्तर प्रदेश)
Vishala aradhya 2025/10/11 11:29 AM
Very intimate writing. Your mind embraces and accepts Srirama. Truly an ideal writer you are, sirji. Pranam. - Vishala aradhya, bungluru, karnatak.
सुकीर्ति भटनागर 2025/10/11 11:27 AM
बहुत समय उपरांत आपका लिखा कुछ पढ़ने को मिला।आपके लेखन में तो चुम्बकीय शक्ति है ,पढ़ने लगो तो बस पढ़ते ही जाओ। सबसे पहले तो आपको बधाई देती हूं कि 'फिर आये राम अयोध्या में' चौदह भाषाओं में अनूदित हो रही है। राम कथा है ही अद्भुत। यह किसी का भी जीवन बदल सकती है, जैसे संतो नानी की कथा से सिंघू की सोच बदल गयी। - सुकीर्ति भटनागर, पटियाला, पंजाब
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Surya Kant Sharma 2025/10/14 10:40 AM
डॉ प्रकाश मनु वर्तमान संदर्भ में साहित्य के आकाश पर एक दैदीप्यमान सितारे के समान हैं। विपुल साहित्य सृजन और अब राम पर भी सहज, सुंदर सरस, सार्थक लेखन । इस आकिंचन को भी डॉक्टर प्रकाश मनु की नव प्रकाशित पुस्तक की समीक्षा करने का सौभाग्य प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लिखने में मिला। और इस कथा को पढ़ते लिखते और गुनते,,,एक अलग सा एहसास मन और आत्मा में आया। वर्तमान आलेख ,पाठकों की बहुत सी जिज्ञासाओं को शांत करता और राम कथा में मन को भिगोता और डुबोता सा लग रहा है। ईश्वर करे कि डॉक्टर मनु आदरणीय राम दरश मिश्र की मानिंद शतायु हों।