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ख़ाली कुर्सी का गीत

 

अब सिर्फ़ ख़ाली कुर्सी पड़ी है
सन्नाटे में
बिसूरती आने-जाने वालों को। 
 
आदमी जो इस पर बैठता था चला गया
और अब ख़ाली कुर्सी बिसूरती है आने-जाने वालों को
कभी-कभी टुकुर-टुकुर देखती है हर आगत को
और फिर हबसकर रोने लगती है। 
 
आदमी था तो सब था
लोग भी बातें भी हँसी-ख़ुशी और हँसने-गाने के साज़ भी
बातें भी चर्चाएँ भी
क़िस्से और कहानियाँ भी
गुज़रे और आने वाले कल की तमाम हलचलें भी . . . 
 
वह आदमी था तो सब था
भरी रहती थी बैठक
लोगों की रौनक़ और अंतहीन बातों के कोलाहल से। 
 
आदमी
जो इस कुर्सी पर बैठता था
ख़ुशमिज़ाज था
और उसके इर्द-गिर्द हमेशा एक महफ़िल सी रहती थी
वह बोलता था तो गुज़रे हुए समय की दास्तान
सुनाई पड़ती थी उसकी बातों में
समय की घंटियाँ बजती थीं 
और खिलखिलाहटों में बदल जाती थीं . . . 
 
आदमी था तो बहुत से वादे थे 
नए-पुराने
बहुत सी लंबी-चौड़ी बहसें और योजनाएँ . . . 
किताबें थीं और किताबों की पूरी एक दुनिया। 
 
इस कुर्सी के इर्द-गिर्द हँसते थे ठहाके
गाता था प्रेम
नाचती थीं किताबें
और हवा में थरथराते थे शब्द
बहुत कुछ था जो ज़िन्दा था और ज़िन्दादिली से भरा। 
 
और तब कुर्सी भी इन गरमजोश बातों और बहसों 
और मीठे ठहाकों में 
ज़िन्दा हो जाती थी
किसी ज़िन्दा आदमी की तरह
और जाने कब आदमी की तरह खुलकर बतियाने लगती थी। 
 
आज उस पर बैठने वाला आदमी 
नहीं है
तो नहीं हैं गरजजोश बातें न बहसें न वादे न योजनाएँ . . . 
और हवा में दूर-दूर तक उड़ते ठहाके भी नहीं
 
अब महज़ एक कुर्सी है
ख़ाली-ख़ाली चुप्पी में सिमटी
बिसूरती हर आने-जाने वाले को। 

इस पर बैठने वाला आदमी चला गया तो
जैसे सब चला गया . . . 
और बच गया बस कुर्सी का एक ख़ाली-ख़ाली गीत। 

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