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विजयकिशोर मानव के नाम एक चिट्ठी

 

मुझे ज़िन्दगी में महाप्राण कहकर किसी और ने नहीं पुकारा सिवा तुम्हारे
हाँ भाई विजय, एक तुम्हीं थे जो कहा करते थे मुझसे महाप्राण, कैसे हो 
बदले में कहो महाप्राण, कैसे याद किया मैं कहता 
और फिर होतीं जमकर मुलाक़ातें चाय के गिलास के इर्द-गिर्द
 
तुम्हारे पास होती थीं अनंत योजनाएँ 
दैनिक हिंदुस्तान की रविवारी पत्रिका रविवासरीय को सँवारने की 
जिनमें कहीं मेरा भी नाम दर्ज कर लेते थे तुम 
कि महाप्राण इस बार फलाँ-फलाँ विषय पर लिखो तो बन जाएगी बात 
या चलिए, लिखिए इस बार कविता की कुछ पुस्तकों पर ही आलेख
इनमें बड़े कवियों के कुछ संग्रह भी हैं पर मैं जानता हूँ 
आप लिख लोगे कुछ ऐसा कि चीज़ यादगार बने 
 
सच कहूँ तो भाई विजय जितना तुमने मुझे छापा 
उस दौर में उतना किसी ने नहीं 
कोई छाप सकेगा इसकी कल्पना भी मुश्किल 
बल्कि सच तो यह कि तुम्हीं ने की थी शुरूआत 
मुझे अँधेरे से खींचकर उजाले में लाने की एक हमदर्द दोस्त की तरह
अपने कुछ मित्र कवियों के नवगीत संग्रह देकर 
और फिर लिखा जो मैंने तेज़तर्रार सा कुछ
छापा उसे पूरे विस्तार के साथ 
और फिर कब-कब क्या-क्या लिखावाया 
इसका तो कोई हिसाब ही नहीं
इंटरव्यू हिंदी के बड़े से बड़े धुरंधरों के 
जिनमें रामविलास शामिल थे कमलेश्वर भी . . . 

हर बार मेरी तसल्ली यही कि चलो, तुम्हें पसंद तो आया मेरा करतब
और फिर छपने पर मिलते हम तो पूरा उत्सव होता था बातों शरारतों का
सच कहूँ महाप्राण यह तुम ही थे जिसकी वजह से जाना गया यह अदना प्रकाश मनु 
वरना मैं कहाँ होता, होता भी कि नहीं कौन जाने 
 
मैं जिस कारा में पिस रहा था तुम्हारी बग़ल में ही 
पीस रहा था चक्की, उससे मुक्ति देकर खोला एक राजमार्ग तुमने मेरी क़लम के लिए
जिसे कोई नहीं जानता था उसे रखा पूरा शान से साहित्यिक समाज के आगे
कि मिलिए इनसे, ये प्रकाश मनु हैं! 
 
आज मैं जो कुछ भी हूँ तुम्हारी वजह से हूँ भाई विजय 
कहूँ किस तरह यह बात नहीं जानता
बरसों से पता नहीं किन दूरियों ने हमें बिलगाया या 
फिर यों ही अलग होती गईं राहें
पर न मैं भूल पाया कभी महाप्राण, 
उन दिनों को जब पहली बार जाना था कि क्या कर सकता हूँ मैं
और न भूले होगे तुम भी
जब यह अहसास कराया था तुम्हीं ने महाप्राण, 
कि मैं अपनी क़लम से खींच सकता हूँ लकीरें भविष्य की 
 
पता नहीं अब कब मिलना हो
पर भूल तो नहीं पाया मैं छोटी से छोटी बात उस दौर की 
जब चाय के प्याले के इर्द-गिर्द पूरी एक दुनिया बस जाती थी तुम्हारी और मेरी 
और कोई नहीं था जो भेद पाता उस बँधन को
 
हालाँकि वक़्त ने पैदा कर दीं जो दूरियाँ
शायद मिटें जल्दी तब तक मेरा सलाम लो महाप्राण . . . 
तुम्हारा ही मनु हूँ मैं
तुम्हारा ही रचा प्रकाश मनु
जिसे तुमने पेश किया था बड़ी सुर्ख़ियों के साथ
तो चौंके थे बड़े-बड़े धुरंधर भी
 
हालाँकि आज भी मैं क्या हूँ मैं जानता हूँ महाप्राण
और तुम्हारा हाथ न लगा होता मुझे बनाने में 
तो होता क्या, इसे भी अच्छे से जानता हूँ
उम्मीद है मेरे शब्द तुम तक पहुँचेंगे दूर होगी दूरियाँ 
फिर एक होंगे मनु और मानव उन्हें एक होना ही था

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