अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

नाट्यकर्मी गुरुशरण सिंह के न रहने पर

 

मुझे याद आता है वह दिन, वे लम्हें
मुझे याद आता है तूताँ आला खू
मुझे याद आते हैं आप गुरुशरण भ्रा जी। 
 
वे दिन भी क्या दिन थे
जब मैं पंजाब के एक कॉलेज में पढ़ाया करता था 
पर दोस्ती विद्यार्थियों से थी
कुछ सिरफिरे बच्चे जो कविताएँ लिखते थे नाटक करते थे
डिबेट और सिंपोजियम की जोशीली तैयारी
और आधी-आधी रात तक 
मेरे कमरे में बिजलियाँ चमकती थीं। 
 
उस रात भी बिजलियाँ कौंध रही थीं
अंदर से बाहर कि बाहर से अंदर
तब बिजली की एक लपक के साथ ही उतरा था यह नाम मेरे सामने
मेरे एक विद्यार्थी ने कहा—
डॉक्टर साब, आपने गुरुशरण सिंह के नाटक नहीं देखे
तो आपने कुछ नहीं देखा
आपने अँगड़ाई ले के जागता पंजाब नहीं देखा
आपने पंजाब की ज़िन्दा रूह नहीं देखी
 
बिजली की लकीर मेरे अंदर खिंच गई थी
जैसे आपके अपने दो टुकड़े हो जाएँ
फिर तो पंजाब डिपो की बस का लंबा सफ़र पिंड-दर-पिंड
और दिल में गुरुशरण सिंह . . . गुरुशरण सिंह भ्रा जी
गुरुशरण भ्रा जी, मैं बस में बैठा-बैठा उड़ रहा था
और उड़ते-उड़ते जा पहुँचा उस जगह
जहाँ रात के अँधेरे में 
अँधेरे के ख़िलाफ़
खेला जा रहा था नाटक तूताँ आला खू
और भी बहुत-से नाटक अपनी सादगी में बेजोड़
हर बंदे की रूह से जुड़कर झकझोरने वाले
जैसे ख़ाली हाथ कोई चलाता हो तीर
और बेधता हो चक्रव्यूह बड़े-बड़े द्रोणाचार्यों के
 
पहली बार देखा कि यह गुरुशरण शख़्स है क्या
कैसे चलता है उसका नाटक मुक्त हवा की चाल के साथ
गाँवों के धुर गँवार अनपढ़ लोगों के बीच
कि हर दर्शक गुरुशरण भ्रा जी की शांति-सेना का
एक बाँका सिपाही हो जाता है
और गुरुशरण भ्रा जी नाटक खेलते-खेलते
ख़ुद जादूगर सरकार हो जाते हैं! 
 
यह स्टूल समझो राजा का सिंहासन है
वे कह रहे हैं—
यह खाट समझो किसान का घरबार
यह बेंच समझो थाना कोतवाल . . . 
और गुरुशरण भ्रा जी, मैं कुछ समझ पाता
उससे पहले ही
मैं नाटक में था या नाटक मुझमें . . . 
मैं तो सब कुछ भूल ही गया। 
 
कितने तूताँ वाले खू आए-गए
लेकिन मेरे अंदर जागता रहता था गुरुशरण सिंह
चलते-चलते सिर्फ़ दस-पंद्रह मिनट की ही बातचीत
थोड़ा एक-दूसरे के अंदर उतरने की कोशिश . . . 
 
पर मेरे अंदर लिखा गया था पंजाब का ज़िन्दा इतिहास
जिसमें हर बार कोई नया भगतसिंह पैदा होता था
कभी वह पाश बन जाता था
कभी सुरजीत पातर और कभी गुरुशरण बन जाता था
 
फिर मैं पंजाब छोड़कर चला आया राजधानी में
पर मिलती रहती थीं ख़बरें . . . 
गुरुशरण सिंह को मिल रही हैं भिंडराँवाले की धमकियाँ
वे आतंकवादियों की हिटलिस्ट में हैं
पर जारी है नाटक . . . जारी है इन्कलाब, 
जनता उसके साथ है
उसका नहीं कर सकता बाल बाँका कोई भिंडराँवाला
 
गरुशरण भ्रा जी, आप बस्ती-बस्ती गाँव-गाँव
उकेर रहे थे
क्रांतिकारियाँ की नई परंपरा
आपके भीतर उतर आए थे भगतसिंह सुखदेव राजगुरु
पंजाब में क़त्लेआम था 
पर उस क़त्लेआम में भी
पंजाब की रूह को बचा रहा था एक गुरुशरण सिंह
जनता उसके साथ थी
उसके साथ थी नौजवानों की नई पीढ़ी
 
नदी में पानी बहता गया
और लंबा वक़्त गुज़र गया
मैं ख़ुद नौजवान से अधेड़ हुआ
पर नहीं भूले आप गुरुशरण भ्रा जी
नहीं भूला तूताँ आला खू
यानी कुआँ शहतूतों वाला . . . 
जिसमें तैरती थी अन्याय के ख़िलाफ़ खड़ी होती
नए पंजाब की तस्वीर
 
आप तो लिखकर चले गए एक नया इतिहास
पर आपकी याद आती है
 
गुज़रे वक़्तों में बहुत कुछ है जो अंदर-अंदर मरता
और बड़ी बदबू पैदा करता है
पर कुछ है जो उस मरते हुए निढाल जिस्म में
नई जान फूँक देता है
वो आप हैं गुरुशरण भ्रा जी
 
गुरुशरण भ्रा जी, मुझे आपकी याद आती है
मुझे याद आता है तूताँ आला खू
और उस शहतूत वाले कुएँ में हर पल हर घड़ी डूबता
और उतराता रहता है बहुत कुछ
जो हमारी पीढ़ी की आँखों की रोशनी है
और जिससे लिखा जाएगा आते हुए कल का इतिहास
 
गुरुशरण भ्रा जी, मुझे आपकी याद आती है
बहुत याद आती है
गुरुशरण भ्रा जी . . . 
गुरुशरण भ्रा जी! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

स्मृति लेख

कविता

आत्मकथा

साहित्यिक आलेख

व्यक्ति चित्र

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं