हमने बाबा को देखा है
काव्य साहित्य | कविता प्रकाश मनु15 Jun 2025 (अंक: 279, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
कभी चमकती सी आँखों से
गुपचुप कुछ कहते, बतियाते,
कभी खीजते, कभी झिड़कते
कभी तुनककर ग़ुस्सा खाते।
कभी घूरकर मोह-प्यार से
घनी उदासी में घुस आते,
कभी ज़रा सी किसी बात पर
टप-टप-टप आँसू टपकाते।
कभी रीझकर चुम्मी लेते
कभी फुदककर आगे आते,
घूम-घूमकर नाच-नाचकर
उछल-उछलकर कविता गाते,
लाठी तक को संग नचाते,
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
जर्जर सी इक कृश काया वह
लटपट बातें, बिखरी दाढ़ी,
ठेठ किसानी उन बातों में
मिट्टी की है ख़ुश्बू गाढ़ी।
ठेठ किसानी उन क़िस्सों में
नाच रहीं कुछ अटपट यादें,
कालिदास, जयदेव वहाँ हैं
विद्यापति की विलासित रातें।
एक शरारत सी है जैसे
उस बुड्ढे की भ्रमित हँसी में,
कुछ ठसका, कुछ नाटक भी है
उस बुड्ढे की चकित हँसी में।
सोचो, उस बुड्ढे के संग-संग,
उसकी उन घुच्ची आँखों से,
हमने कितना कुछ देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
कहते हैं, अब चले गए हैं,
क्या सचमुच ही चले गए वे?
जा सकते हैं छोड़ कभी वे
सादतपुर की इन गलियों को,
सादतपुर की लटपट ममता
शाक-पात, फूलों-फलियों को?
तो फिर ठाट बिछा है जो यह
त्यागी के सादा चित्रों का,
और कृषक की ग़ज़लें, या फिर
दर्पण से बढ़िया मित्रों का।
विष्णुचंद्र शर्मा जी में जो
कविताई का तंज़ छिपा है,
युव पीढ़ी की बेचैनी में
जो ग़ुस्सा और रंज छिपा है।
वह सब क्या है, छलक रहा जो
सादतपुर की इन गलियों में,
मृगछौनों सा भटक रहा जो
सादतपुर की इन गलियों में।
यह तो सचमुच छंद तुम्हारा
ग़ुस्से वाली चाल तुम्हारी,
यही प्यार की अमिट कलाएँ
बन जाती थीं ढाल तुम्हारी।
समझ गए हम बाबा, इनमें
एक मीठी ललकार छिपी है,
बेसुध ख़ुद में, भीत जनों को
इक तीखी फटकार छिपी है!
जो भी हो, सच तो इतना है
(बात बढ़ाएँ क्यों हम अपनी!)
सादतपुर के घर-आँगन में
सादतपुर की धूप-हवा में,
सादतपुर के मृदु पानी में
सादतपुर की गुड़धानी में,
सादतपुर के चूल्हे-चक्की
और उदास कुतिया कानी में—
हमने बाबा को देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!
करते हैं अब यही प्रतिज्ञा
भूल नहीं जाएँगे बाबा,
तुमसे मिलने सादतपुर में
हम फिर-फिर आएँगे बाबा,
जो हमसे छूटे हैं, वे स्वर
हम फिर-फिर गाएँगे बाबा।
स्मृतियों में उमड़-घुमड़कर
आएँगी ही मीठी बातें,
फिर मन को ताज़ा कर देंगी
बड़े प्यार में सीझी बातें!
कई युगों के क़िस्से वे सब
राहुल के, कोसल्यायन के,
सत्यार्थी के संग बिताए
लाहौरी वे दिन पावन-से।
बड़ी पुरानी उन बातों को
छेड़ेंगे हम, दुहराएँगे,
दुक्ख हमारे, ज़ख़्म हमारे
उन सबमें हँस, खिल जाएँगे।
तब मन ही मन यही कहेंगे
उनसे जो हैं खड़े परिधि पर,
तुम क्या जानो सादतपुर में
हमने कितना-कुछ देखा है!
काव्य-कला की धूम-धाम का
एक अनोखा युग देखा है।
कविताई के, और क्रांति के
मक्का-काबा को देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
हम बाबा के शिष्य लाड़ले
हम बाबा के ख़ूब दुलारे,
बाबा के नाती-पोते हम
बाबा की आँखों के तारे।
हम बाबा की पुष्पित खेती
हममें ही वे खिलते-मिलते,
हमसे लड़ते और रीझते
हममें ही हँस-हँसकर घुलते।
हमको वे जो सिखा गए हैं
कविताई के मंत्र अनोखे,
हमको वे जो दिखा गए हैं
पूँजीपति सेठों के धोखे।
और धार देकर उनको अब
कविताई में हम लाएँगे,
दुश्मन के जो दुर्ग हिला दें
ऐसी लपटें बन जाएँगे।
खिंची हुई उनसे हम तक ही
लाल अग्नि की सी रेखा है!
हमने बाबा को देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
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Suryakant Sharma 2025/06/20 11:56 AM
आदरणीय सूर्य समान वैद्य नाथ मिश्र या फिर लोकप्रिय बाबा नागार्जुन की हर भाव भंगिमा को अपनी रेखांकित कर एक नया आयाम देने की सफल कोशिश की। लगा कि बाबा नागार्जुन यहीं कहीं हैं। और संभव है ,आपकी लेखिनी की रौशनाई से निसरत हो गए । आभार, इतनी सुंदर कविता को साझा करने हेतु।