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श्याम भैया: वे मेरे बचपन के हीरो भी थे, गाइड भी! 

 

मेरी कहानियों में नंदू भैया अक्सर आते हैं। ख़ूब गोल-मटोल से नटखट और शरारती नंदू भैया। ज़िन्दगी से लबालब। खाने-पीने, ख़ूब बढ़िया पहनने-ओढ़ने और हर नई चीज़ के शौक़ीन। थोड़ा सा रोब, मगर ख़ासी मस्ती भी। ये नंदू भैया मेरे बड़े भाई हैं, श्याम भैया। मुझसे ढाई-तीन बरस बड़े श्याम भैया बचपन में मेरे हीरो थे, जिनसे चुपके-चुपके बहुत कुछ सीखा। श्याम भैया पास हों तो मुझे लगता था, सारी दुनिया मिलकर भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। अकेले श्याम भैया ही सब पर भारी पड़ेंगे। उनके होते दुनिया का कोई दुख-परेशानी मेरे अंदर झाँक भी नहीं सकती। 

और यही नहीं, मुझे आसपास की ज़िन्दगी से मज़बूत डोर से जोड़ने वाले भी श्याम भाईसाहब ही थे, जिन्होंने मुझ घरघुसरे और एकांतवासी के लिए बाहरी दुनिया की खिड़कियाँ और गवाक्ष खोले और मुझे जाने-अनजाने यह सीख दी कि दुनिया बड़ी सुंदर और ख़ूबसूरत शै है और इसका आनंद लेने के लिए थोड़ी सी आवारगी तो ज़रूरी है। और उसका सबसे बढ़िया ढंग है कि घर से निकल पड़ो। घर से निकलोगे तो तमाम दोस्त मिलेंगे, उनके साथ मस्ती, बतकही और घुमक्कड़ी करते ज़िन्दगी अपने तमाम छिपे हुए पन्ने खोलती जाएगी . . .। उनका आनंद लोगे तो दुनिया तुम्हारे लिए एकसार नहीं, बल्कि भाँति-भाँति के चेहरों वाली एक ख़ूबसूरत और बहुरंगी दुनिया होगी, जिसका आकर्षण हर पल बढ़ता ही जाएगा। और यही सच मानी में, ज़िन्दगी जीना भी है। ज़िन्दगी जीना है तो अपने आसपास की हर छोटी-बड़ी चीज़ में रस लेना चाहिए और हर लम्हे को डूबकर जीना चाहिए। 

ख़ूब बड़ा परिवार था हमारा। सात भाई, दो बहनें। यों हम नौ भाई-बहन थे, जिनमें मेरा नंबर ऊपर से आठवाँ। बस, एक छोटा भाई सत मुझसे छोटा था, बाक़ी सब भाई-बहन बड़े। माता-पिता ने तो कभी पीटा नहीं, पर पाँच भाई जो बड़े थे, उनका शासन तो सिर पर था ही। इनमें बाक़ी भाई तो बड़े थे और उनसे थोड़ी दूरी भी रही, पर श्याम भैया तो मुझसे तीन-साढ़े तीन बरस बड़े थे। हर वक़्त मेरी चुटिया उनके हाथ में रहती थी, और वे जब चाहे उसे खींच सकते थे। मैं आ-आ, ऊ-ऊ के सिवा भला और क्या कर सकता था? पर वे रोबीले इतने थे कि पीटकर रोने भी नहीं देते थे। अगर वे कहते, “खबरदार जो ज़रा भी आवाज़ निकाली . . .!” तो मजाल है कि मुँह से ज़रा भी टसक बाहर निकल जाए। 

यों बड़े भाइयों में श्याम भैया के साथ मैं सबसे ज़्यादा रहा और उनकी बहुत मार खाई है। मगर श्याम भैया प्यार भी बहुत करते थे। वैसा प्यार भी शायद ही कोई और कर सके। श्याम के बारे में लिखने बैठूँ तो शायद पचास-सौ पन्ने का ग्रंथ बड़े आराम से तैयार हो जाए। मैंने ‘नंदू भैया की कहानी’ में श्याम भैया के बारे में कुछ लिखा है या कहूँ कि लिखने की कोशिश की है। पर यह वैसा जीवंत और पेचीदा कहाँ है जैसा ख़ुद श्याम भैया का चरित्र था। मेरी बाल कहानियों की पुस्तक ‘नंदू भैया की पतंगें’ एक तरह से श्याम भाईसाहब को ही ट्रिब्यूट है। फिर भी यह चीज़ बराबर मन में आती है कि श्याम भैया को अभी भी मैं वैसा कहाँ दिखा पाया, जैसे असल में वे थे। 

[2] 

श्याम भैया मेरे लिए दुनिया से जुड़ने की अनिवार्य कड़ी तो थे ही। मगर सवाल यह है कि श्याम भैया क्या न थे। श्याम भैया न होते तो मैं क्या होता, कहाँ होता? उन्होंने ही मुझे उस समय और उस दुनिया से परिचित कराया जिसके बग़ैर मेरा कुछ वुजूद न था। मगर मैं उन सब चीज़ों से से दूर, डरा-डरा सा रहता था। सिनेमा मैंने सबसे पहले श्याम भैया के साथ ही देखा और उन्होंने इतनी पिक्चरें दिखाईं कि उनका एक पूरा इतिहास ही है। इनमें ‘भाभी’ और ‘छोटी बहन’ की तो मुझे बड़ी अच्छी तरह याद है। मेला, नुमाइश और रामलीला जाना भी उन्हीं के साथ होता था। इसी तरह साइकिल पर मुझे आगे बैठाकर श्याम भैया ने न जाने कहाँ-कहाँ की और कितनी लंबी-लंबी सैरें कराईं। मुझे लगता था, मैं श्याम भैया के साथ दुनिया की अनवरत परिक्रमा पर निकल पड़ा हूँ . . . और पहली बार दुनिया की ये ख़ूबसूरत चीज़ें और सूरतें देख रहा हूँ। इसी तरह पतंगों की दुनिया के न जाने कितने रोमांच श्याम भैया से जुड़े हुए हैं। 

श्याम भैया की साइकिल तो ख़ुद में एक महाकाव्य है। महागाथा। उन्होंने मुझे साइकिल पर बैठाकर इतनी सैर कराई कि लगता था, उनकी साइकिल पर बैठकर ही मैं बड़ा हुआ और वहीं बैठे-बैठे जैसे मैंने छुटपन में ही सारी दुनिया की परिक्रमा कर ली हो। उनकी साइकिल के डंडे पर बैठकर शान से इधर-उधर देखते हुए चलने में इतना मज़ा आता कि लगता, जैसे मैं कोई नन्हा-मुन्ना-सा राजा हूँ और सारी दुनिया का नज़ारा लेने के लिए निकला हूँ। वे सचमुच बड़े ही आनंद की घड़ियाँ होती थीं। गर्व और आनंद से छलछलाती उल्लसित घड़ियाँ। 
पर चूँकि मैं राजा ख़ुद को भले ही समझ रहा होऊँ, पर असल में तो डिर्रू था और यह खटका मन में बराबर लगा रहता था कि साइकिल इधर-उधर मोड़ते समय कहीं मैं टप्प से टपके की तरह नीचे न गिर जाऊँ। इसलिए आत्मरक्षा के लिए मैं साइकिल के हैंडिल को ख़ूब कसकर पकड़ लेता था। कुछ ज़्यादा ही ज़ोर से। इससे श्याम भैया के लिए भारी मुसीबत हो जाती थी। इसलिए कि रास्ते में ट्रैफ़िक के हिसाब से, या फिर सड़क में गड्ढे वग़ैरह होने पर जैसे-जैसे उन्हें साइकिल मोड़नी होती थी, उस तरह आसानी से मोड़ नहीं पाते थे। इससे उलटा साइकिल के डगमगाने या गिरने का ख़तरा पैदा हो जाता। तो उन्हें बार-बार आगाह करना पड़ता, “कुक्कू, पागल है क्या! . . . हैंडिल को इतना कसकर क्यों पकड़ लिया है? आराम से पकड़ो, ख़ूब ढीला सा, नहीं तो मैं साइकिल कैसे चला पाऊँगा?” 

उस समय मैं हाथ की पकड़ कुछ ढीली कर देता, बस थोड़ी देर के लिए, पर आगे जैसे ही कोई धचका या मोड़ आता, मैं फिर से हैंडल कसकर पकड़ लेता। इससे उलटा साइकिल के गिरने का ख़तरा बढ़ जाता, क्योंकि श्याम भैया अपने ढंग से सहजता से साइकिल नहीं चला पाते थे, तो उन्हें डाँटना पड़ता, “कुक्कू तेरे को अक़्ल भी है? कितनी बार कह चुका हूँ, हैंडल को आराम से पकड़ना चाहिए। पर तेरे भेजे में ही नहीं घुसता। तू ज़रूर मुझे गिरवाकर मानेगा!” 

इस समय उनकी बात मैं मान लेता, पर फिर मेरा डिर्रूपन हावी हो जाता तो मैं फिर वही ग़लती करता। इस चक्कर में उनसे एकाध थप्पड़ भी मैंने ज़रूर खाया होगा। तब थोड़ी सी अक़्ल आई। 

शुरू में तो श्याम भैया आगे डंडे पर बैठाकर चलाते, फिर पीछे कैरियर पर बैठाना शुरू किया। और मैं भी जैसे-जैसे बड़ा हुआ, कुछ आत्मविश्वास आया, भय ख़ुद-ब-ख़ुद कम होने लगा और मुझे समझ में आया कि साइकिल तो बड़ी मज़ेदार सवारी है। उससे डरने का क्या काम? साइकिल की सवारी तो आनंद लेने की चीज़ है। तो वे साइकिल चलाते और मैं पीछे बैठा हवा के साथ फर्राटे का आनंद लेता। कभी हवा ठंडी और बढ़िया होती, फिर तो कहना ही क्या। 

छठी कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते मेरे मन में साइकिल चलाने की लालसा बलवती होने लगी। मेरे पड़ोस में ही रहने वाला दोस्त सत्ते साइकिल ख़ूब अच्छी चलाता था। मुझसे वह एकाध बरस ही बड़ा था, पर पढ़ता मेरी ही क्लास में था। उसे मज़े से हवा में फर्राटे भरते देख, मन में अरमान पैदा होता, “काश, मैं भी साइकिल चला पाता!” मुझे लगता था, साइकिल चलाने से बड़ी कला इस दुनिया में कुछ और हो नहीं सकती। क्या ही मज़े की बात है। झट साइकिल घर के अंदर से बाहर निकालो, पैडल पर पैर रखो और मिनटों में उड़न-छू हो जाओ . . . यानी हवा में फर्राटे, वाह! साइकिल मेरे लिए धरती नहीं, परीलोक की कोई चीज़ थी। एकदम जादुई शै . . .!! 

मैंने सत्ते से कहा, “सत्ते यार, मुझे भी सिखा दो साइकिल चलाना।” तो उसने कहा, “देख कुक्कू, यह कोई मज़ाक़ नहीं है। इसमें दो-चार बार गिरना पड़ता है। कभी-कभी तो दस-बीस बार भी। तू गिरेगा, चोट लगेगी तो रोएगा कि सत्ते ने गिरा दिया। क्या फ़ायदा . . .?” 

मैंने कहा, “नहीं रोऊँगा, तुम सिखाओ तो!” 

सत्ते ने भरपूर कोशिश की, पर कामयाब नहीं हो पाया। मुझसे वह कोई साल भर बड़ा होगा। उसमें इतनी ताक़त और फ़ुर्ती भी थी कि गिरने-डगमगाने पर मुझे सँभाल ले। पर वही मेरा डिर्रूपन बीच में आ जाता। फिर उसने दिमाग़ लगाया और मुझे गद्दी पर बैठकर चलाने के बजाय कैंची सिखाने की कोशिश की। बोला, “कुक्कू, तू पहले कैंची सीख ले। कैंची साइकिल चला लेगा तो साइकिल साधना आ जाएगा। फिर तू सीधा गद्दी पर बैठकर भी चला लेगा।” 

सत्ते ने गरमी की छुट्टियों में दो-चार दिन लगातार साइकिल सिखाई और अभ्यास कराया तो मैंने बमुश्किल थोड़ी-सी कैंची सीख ली। अब कैंची साइकिल चलाना क्या होता है, शायद आज के बच्चे न समझ पाएँ। पर उन दिनों साइकिल चलाने और साधने की यही एक मध्यमा प्रणाली थी कि पहले कैंची साधना सीख लो, फिर तुम्हें सीधा गद्दी पर बैठकर चलाना भी आ जाएगा। कैंची चलाने के लिए चालक को एक पैर पैडल पर रखकर दूसरा डंडे के ऊपर से दूसरी ओर ले जाने के बजाय, डंडे के नीचे से ही निकालना पड़ता था। इस तरह छोटे बच्चों को आसानी हो जाती थी। जिनके पैर सीधा चलाने में पैडल तक नहीं पहुँचते थे, वे इस तरह दोनों पैर पैडल पर रखकर चला सकते थे। 

पर कैंची सीखने के बाद सीधा गद्दी पर बैठकर साइकिल चलाना भी कोई आसान बात नहीं थी। सत्ते ने दो-चार बार मेरे गिरने पर हाथ खड़े कर दिए। कारण यह था कि मेरे पैर पैडल तक पहुँचते ही नहीं थे। उसके लिए आगे पंजे को झुकाकर विशेष प्रयत्न करना होता था। मैं उस कोशिश में लगता तो हैंडल डगमगाने लगता। मैं ख़ुद को सँभालने की कोशिश करता, पर इतने में ही अचकचाकर गिर जाता था। 

जब श्याम भैया ने देखा तो उन्होंने मुझे साइकिल सिखाने का ज़िम्मा ले लिया। कहा, “हट सत्ते, मैं सिखाता हूँ।” और वाक़ई उन्होंने तीन-चार दिन में ही मुझे साइकिल चलाना सिखा दिया। हालाँकि मुझ सरीखे बुद्धू को सिखाने में उन्हें भी ख़ूब पसीने आए। पर वे धुनी थे, जिस चीज़ पर आ जाते थे, उसे करके ही मानते थे। फिर वे मुझे डाँट भी सकते थे। जैसा-जैसा वह कहते थे, वैसा करना मेरी बाध्यता थी। और यों डरते-डरते भी मैं सीख गया। 

हमारे घर के सामने काफ़ी बड़ा-सा मैदान है, वही मेरी अभ्यास स्थली थी। मैं ख़ूब डरपोक, पर श्याम भैया भी बड़े विकट गुरु थे। कई बार मैं गिरा भी, ख़ूब चोटें खाईं। ख़ासकर घुटने जल्दी फूटते थे। कारण यह कि उस समय जिस तरह की रंग-बिरंगी बेबी साइकिलें आजकल नज़र आती हैं, उनकी तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। न वे कहीं आसपास दिखाई पड़ती थीं। और अगर कहीं थीं भी, तो हम तो सपने में भी कल्पना नहीं कर सकते थे कि वैसी साइकिल हमारे लिए ख़ास तौर से ले ली जाएगी। लिहाज़ा पूरे आकार की जो बड़ों की साइकिल थी, उसी पर बैठकर सीखना होता। उन दिनों साइकिलें दिन भर के लिए किराए पर भी मिल जाती थीं। तो कई बार किराए की साइकिल लाकर काम चलाते। मेरे पैर आराम से पैडल को छू नहीं पाते थे, तो पंजे का सहारा लेकर किसी तरह साइकिल को चलाने की कोशिश। चूँकि कैंची थोड़ी-थोड़ी सीख चुका था, इसलिए साइकिल साधने का थोड़ा अभ्यास हो गया था, वह बहुत काम आया। उसके बाद भय कम हो गया। मेरे पैर पैडल पर पूरे नहीं आते थे। तो कैसे पंजे से पहले पैडल को ऊपर की ओर लाकर फिर पैर से पैडल चलाना चाहिए, यह मैंने सीखा। फिर धीरे-धीरे अध्यास हो गया। 

श्याम भैया का साइकिल सिखाने का तरीक़ा यह था कि वे मुझे गद्दी पर बैठा देते। पीछे कैरियर के पास से साइकिल पकड़कर साथ-साथ दौड़ते और कहते, “कुक्कू, हैंडल ख़ूब अच्छी तरह साधकर चलाओ . . .। तुम बस हैंडल साधने की प्रैक्टिस करो। मैंने पीछे से पकड़ा हुआ है, डरो मत . . .!” मैं हैंडल साधने की कोशिश करता। कभी वह डगमडाता तो श्याम भैया सँभाल लेते और मैं गिरने से बच जाता। पूरा एक दिन पैडल चलाते हुए हैंडिल साधने का अभ्यास। अगले दिन उन्होंने पीछे से पकड़ा और मैं साइकिल दौड़ाता। कहते, “कुक्कू, डरियो मत। चला, मैंने पीछे से पकड़ा हुआ है . . .!” पर बीच-बीच में वे छोड़ देते। मेरे साथ-साथ तो चलते, पर पकड़ते न थे। और कई बार तो वे अपनी जगह पर ही खड़े रहते, पर हिम्मत बँधाने के लिए पीछे से लगातार आवाज़ देते, “कुक्कू, कुक्कू, डर नहीं। मैंने पकड़ा हुआ है पीछे से, तू चला . . .!” बाद में पता चला कि अरे, वे तो अपनी जगह खड़े हैं, साइकिल तो मैं ही ख़ुद-ब-ख़ुद चला रहा हूँ। 

यों झिझक ख़त्म हुई, हिम्मत आई और आख़िर मैं साइकिल चलाना सीख गया। उसके पीछे श्याम भैया और सत्ते दोनों की बड़ी तपस्या थी। दोनों का ही मैं बेहद शुक्रगुज़ार हूँ। अफ़सोस, आज दोनों ही इस दुनिया में नहीं हैं, मैं कैसे उन्हें धन्यवाद दूँ, और किस-किस चीज़ के लिए धन्यवाद दूँ? 

अलबत्ता साइकिल चलाना सीखा तो दिल में इतनी ख़ुशी थी, जैसे मैंने दुनिया जीत ली हो। अब तो सारा-सारा दिन गलियों में पागलों और दीवानों की तरह साइकिल चलाता फिरता। यहाँ तक कि सपने भी साइकिल चलाने और सामने वाली साइकिल से टक्कर खा के गिरने के आते। गिरता भी ख़ूब था। उन दिनों निक्कर पहनता था, तो गिरने पर ख़ूब घुटने फूटते थे। कितनी बार गिरा, इसका कोई हिसाब ही नहीं . . .। पर साइकिल चलाने की ख़ुशी इस सब पर भारी थी। घर का कोई काम होता तो मैं झट साइकिल बाहर निकलता और दौड़ा देता। साइकिल पर बैठकर निकलता तो लगता, जैसे विश्व विजय पर निकला हूँ। कई बार ख़ाली सड़कों पर यों ही हवा और फर्राटे खाने निकल पड़ता। सचमुच, साइकिल ने मेरे जीवन में रोमांच भर दिया था। और इसके साथ ही अब थोड़ा हिम्मत से जीना आ गया था। 

यह भी श्याम भैया का दिया गया एक अनमोल उपहार ही तो था! 

[3] 

श्याम भैया पतंगें उड़ाने के भी शौक़ीन। वे अक्सर शाम को छत पर पतंग उड़ाते तो हुचका सँभालने का ज़िम्मा मेरा। कभी वे ख़ूब सारी ढील देने के लिए कहते तो हुचका ढीला पकड़ना पड़ता और जब वे डोर खींचने पर आते तो ज़मीन पर मंजे का ढेर लगना शुरू हो जाता और मुझे बिजली की सी तेज़ी से लपेटना होता, ताकि मंजा उलझ न जाए। मेरे इस शिष्यत्व में कभी उन्होंने कोई कमी नहीं निकाली। मैं एक आदर्श सहायक की भूमिका बड़ी अच्छी तरह निभाता, जिससे वे ख़ुश रहते। यों समझिए कि मैं उनके इशारे पर काम करना सीख गया था। 

हालाँकि कभी-कभी मेरी इच्छा होती कि काश, मैं भी पतंग उड़ा पाऊँ! इसकी कोशिश भी की। बाज़ार से कई बार पतंगें, डोर और हुचका लाया। पतंग के कन्ने बाँधना सीखा। श्याम भैया का कहना था, तुम अकेले उड़ाकर प्रैक्टिस करो, तभी सीख पाओगे। मैंने सत्ते की मदद ली। वह दूर खड़ा होकर पतंग की छुड़ैया देता और चिल्लाकर कहता, “कुक्कू, साध . . .! अच्छी तरह साध ले!” पर बड़ी कोशिश करने पर भी मैं सीख नहीं पाया। यह मेरी स्थायी असफलता है, जो आज भी भीतर ही भीतर करकती है और जिसका मलाल आज भी मेरे मन में है। जैसे मुझमें कोई अधूरापन है, जो सिर्फ़ पतंग उड़ा पाने से ही पूरा हो सकता था। और किसी बड़ी से बड़ी चीज़ से नहीं। बार-बार मन में हुड़क होती है, “काश, मैं भी पतंग उड़ा पाता!” 

हाँ, श्याम भैया ने एक काम ज़रूर किया। जब उनकी पतंग ऊपर गर्व से आसमान में जाकर बादलों से बात कर रही ही तो कभी-कभी थोड़ी देर के लिए डोर मेरे हाथ में पकड़ा देते। और मुझे लगता, “ओह, यह कितने सुख, कितने आनंद की बात है कि आकाश से बात करने वाली पतंग मेरे हाथ में है!” मैं डरते-डरते एकाध ठुमका भी लगाता। फिर अगर पतंग कुछ डगमगाती तो श्याम भैया आगे बढ़कर सँभाल लेते। जो भी हो, ये बड़े रोमांचक पल थे, जिनका थ्रिल अब भी महसूस होता है। 

एक बार की बात, श्याम भैया ने ‘भाभी’ या न जाने कौन सी फ़िल्म देखकर सात पतंगें एक साथ उड़ाईं। हुआ यह कि फ़िल्म का नायक सात पतंगें एक साथ बाँधकर उड़ाता है। श्याम भैया ने देखा तो ठान लिया, “मैं भी सात पतंगें उड़ाऊँगा एक साथ!” 

उसके लिए बड़े ज़ोर-शोर से तैयारियाँ शुरू हुईं। कोई महीने भर तक युद्ध स्तर पर काम चलता रहा। कभी बड़ा पक्का वाला मंजा तैयार हो रहा है, जिस पर लेई, पिसा हुआ काँच और न जाने क्या-क्या लपेटकर उसे मज़बूत किया जा रहा है, ताकि कोई दुश्मन उसे काट न पाए। फिर पतंगें कैसी हों, इस पर ख़ूब दिमाग़ लगाया गया। सोचा गया, छह पतंगें छोटी हों और बीच में एक बड़ी तो काम चल सकता है। इस सारी तैयारी में आदर्श सहायक की भूमिका मेरी थी। श्याम भैया की पूरी मित्र-मंडली जी-जान से लगी हुई थी। हर किसी की सलाह और नुक्ते का सही-सही इस्तेमाल . . .! पहले सात नहीं, केवल तीन-चार पतंगें एक साथ उड़ाई गईं। फिर संख्या बढ़ाने का तरीक़ा . . .। और अंत में वह रोमांचक घड़ी भी आ गई, जब सात पतंगें एक साथ उड़ाई जानी थीं। उस दिन हमारी पूरी छत श्याम भैया के दोस्तों से भर गई थी। मन में अजीब सी धुक-धुक . . . धुकर-पुकर . . .! बड़े ही रोमांचक पल थे। 

और जब छुड़ैया देने के बाद उड़ीं सात पतंगें तो हम सबके लिए वह ऐसा ख़ूबसरत नज़ारा था, जैसे कोई सपना पूरा हो गया हो। हालाँकि दुर्भाग्य से यह रोमांच अधिक देर तक टिका नहीं . . .। सात पतंगें कटी तो नहीं, पर उनका वज़न तो अधिक था ही। इस वजह से डोर टूट गई। टूटकर हवा के झोंके के साथ उड़ती हुई वे जिस घर की छत पर जा गिरीं, उस घर में एक ज़रा ज़िद्दी और अड़ियल स्त्री थी, जिसे बच्चों के खेल के आनंद से कोई मतलब न था। श्याम भैया अपने मित्रों के साथ दौड़ते और हाँफते हुए वहाँ पहुँचे। पर उस कठोर-हृदय स्त्री ने पतंगें देने से साफ़ इनकार कर दिया। 

श्याम भैया ने पतंगों से जुड़ी नैतिकता का तर्क दिया कि चाची जी, पतंगें कटी थोड़े ही हैं, वह तो डोर टूट हई है। इसलिए कृपया पतंगें लौटा दीजिए। 

पर उस स्त्री की ज़िद, “ना जी, ना! हम कुछ नहीं जानते। पतंगें हमारी छत पर आई हैं, हम नहीं देंगे।” 

यों एक सपने का अंत थोड़े दुखांत रूप में हुआ। मैं उसका गवाह हूँ और उन क्षणों में नंदू भैया की उस उदास मुद्रा का भी। हालाँकि ‘नंदू भैया की पतंगें’ कहानी में मैंने पूरे प्रसंग को कहानी में ढालते हुए, उसका अंत बदलकर कहानी को सुखांत कर दिया है। 

नंदू भैया की पतंगों और पेंच लड़ाने के यों तो बहुत क़िस्से हैं। पर उन्हें कहाँ तक लिखा जाए? पतंग के उस्ताद दोस्तों का एक पूरा ग्रुप था उनका, जिनके बीच ख़ूब बदा-बदी भी चलती थी और उसकी अनवरत तैयारियाँ भी। क्या जोश, क्या उत्साह था। हर पल प्रतियोगिता वाला भाव। यहाँ तक कि कभी-कभी तो शाम होने का इंतज़ार भी दूभर लगता और भरी दोपहर में ही पतंग और हुचका निकल आता। फिर पतंग के संग आसमान तक लहराते सपने . . . सपने और सपने! वे क्षण आज भी स्मृतियों में तैर रहे हैं, जैसे अभी कल की बात हो। 

[4] 

पतंगें ही नहीं, श्याम भैया क्राफ़्ट के भी उस्ताद थे। दफ्ती, कैंची, लेई और अबरी काग़ज़ उनके हाथ में हों, तो कला ख़ुद-ब-ख़ुद साकार होने लगती थी। बड़ी तबीयत से लेई बनाते। उसमें नीलाथोथा डालकर अच्छी तरह पकाते। फिर पेंसिल से निशान लगाकर सफ़ाई से दफ्ती काटते और जैसा चाहते, वैसा बढ़िया सा आकार बना लेते। फिर आता अबरी काग़ज़ का नंबर। उसे इतनी ख़ूबसूरती से चिपकाते कि मजाल है कहीं झोल रह जाए। फिर उस पर चमकीले काग़ज़ से काट-काटकर बनाई गई फूल-पत्तियाँ चिपकाते। इन सारे कामों में वे ऐसे डूब जाते, कि उनकी तन्मयता और मस्ती देखकर मैं निहाल हो जाता। 

मुझे उनके असिस्टेंट का रोल निभाना होता था और मैं बड़े उत्साह से दौड़-दौड़कर ये सारे काम करता। यों मुझे पहले ही बहुत कुछ अंदाज़ा होता था कि कब, किस चीज़ की ज़रूरत पड़ने वाली है और मैं कोशिश करता था कि उनका आदेश मिलते ही चीज़ सामने हाज़िर हो जाए, ताकि उनकी आँखों में अपने लिए प्रशंसा का भाव देख सकूँ। बाक़ी पूरे समय जब वे कोई सुंदर आकार या कलाकृति बना रहे होते तो मैं रामचंद्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण की तरह मंत्रमुग्ध सा उनको देखता रहता। और मन ही मन सराहता रहता। ऐसी सुंदर कलाकृति कभी मैं भी बना सकूँगा, यह तो सोचना भी मुश्किल था। हाँ, काम चलाने के लिए थोड़ा-थोड़ा सीख जाऊँ, यह कोशिश ज़रूर करता था। 

स्कूल में उन दिनों घर से मॉडल बनवा लाने के लिए बहुत-सा काम मिलता था। कभी मिट्टी का गमला और उस पर काग़ज़ के सुंदर फूल। कभी घर, कभी झोंपड़ी। कभी फूल माला। श्याम भाईसाहब इस सब में मेरे हीरो थे, उद्धारकर्ता भी। वे मेरी हर समस्या चुटकियों में हल कर देते। बस, जब वे बनाते, मुझे आज्ञाकारी सेवक की तरह हर क्षण दौड़ने को तैयार रहकर, उनके पास हर घड़ी उपस्थित रहना पड़ता था, और इसमें मैं कभी कोताही नहीं करता था। इसी तरह उन दिनों ड्राइंग में पुस्तक-कला भी शामिल थी। पुस्तक कला में डाक विभाग का पोस्टकार्ड, लिफ़ाफ़ा वग़ैरह बनाने का भी गृहकार्य मिलता और श्याम भैया सफ़ेद दस्ता काग़ज़ काटकर, उसे ठीक से मोड़कर इतनी सफ़ाई से चिपकाते कि उनका बनाया लिफ़ाफ़ा दर्शनीय बन जाता। पोस्टकार्ड के लिए मोटा शीट पेपर इस्तेमाल किया जाता। मैं इन सुंदर कलाकृतियों को स्कूल लेकर जाता तो देखकर अध्यापक ही नहीं, साथी छात्रों का भी जी ख़ुश हो जाता। 

इसी तरह जिल्दसाज़ी के वे बादशाह थे। हर साल जुलाई में नई कक्षा में जब नई-नकोर किताबें आतीं तो उन पर गत्ते की जिल्द चढ़ाने की ताईद की जाती। यहाँ भी श्याम भाईसाहब मेरे संकटमोचक बन जाते। बड़ी सफ़ाई से किताब के आकार के गत्ते काटकर, पहले उन्हें कपड़े के अस्तर से जोड़ना, फिर उस पर अबरी चिपकाना। यह सारा काम पूरी सावधानी रखते हुए करना होता था कि किताब खुलने में कोई परेशानी न हो। मैंने यह कला उनसे सीखी और कुछ आगे चलकर मैं भी किताबों पर अच्छी, मज़बूत जिल्द चढ़ाने लगा। यह सावधानी भी रखता कि गत्ते की जिल्द चढ़ने पर किताब एकदम सुभीते से खुलनी चाहिए। 

पर मुझमें और श्याम भैया में एक फ़र्क़ भी था। वे पूरी सफ़ाई के साथ काम करते हुए दिन भर में कई किताबों पर जिल्द चढ़ा लेते, जबकि मैं ज़्यादा सावधानी और पूर्णता के चक्कर में इतना पड़ा कि दिन भर में शायद ज़्यादा से ज़्यादा दो या तीन किताबों पर ही जिल्द चढ़ा पाता था। एक दिन मैं और मेरा दोस्त सत्ते सुबह से किताबों पर जिल्द चढ़ाने के अभियान में लगे थे। पिता जी पास ही चारपाई पर बैठे ध्यान से देख रहे थे। शाम तक मैंने दो या तीन किताबों पर जिल्द चढ़ाई, जबकि मेरे साथ बैठे सत्ते ने अपनी पूरी किताबों पर जिल्द चढ़ा ली थी। मेरे काम में कुछ ज़्यादा सफ़ाई थी, इसलिए थोड़ा गर्व से मैं सत्ते से कह रहा था, “देखो सत्ते, किताबें तो तुम्हारी भी अच्छी लग रही हैं, पर मेरे जैसी सुंदर जिल्द नहीं चढ़ पाई तुम्हारी।” 

इस पर सत्ते तो कुछ नहीं बोला, पर पिता जी जो पास बैठे सुन रहे थे, हँस पड़े। बोले, “कुक्कू, तुम्हारी जिल्द अच्छी तो है, पर इसी तरह चढ़ाओगे तो सारी किताबों पर जिल्द चढ़ाने में तुम्हें पूरा महीना भर लग जाएगा।” सुनकर मैं कुछ झेंप गया। इसके बाद मैंने भी कोशिश की कि काम सफ़ाई से हो, पर हाथ भी तेज़ चलें। पर नहीं, मैं इसमें कामयाब नहीं हो सका। मैं श्याम भैया की तरह पूर्णतावादी था, पर वे जिस तेज़ी और फ़ुर्ती से काम करते थे, वह मैं न सीख सका। 

अलबत्ता इन सारी कलाओं में श्याम भैया मेरे गुरु थे। वे कलाएँ जो ज़िन्दगी की कलाएँ थीं, उन्हें श्याम भैया ने किसी से सीखा नहीं था, पर वे हर काम और-और बेहतर ढंग से करने की कोशिश करते थे। और यों ही काम करते-करते सीखते जाते थे और परफ़ैक्शन तक पहुँच जाते थे। ‘काम करते-करते सीखना . . .!’ बहुत बाद में जब मैं दिल्ली आया और सत्यार्थी जी से मिला, तो उन्होंने बड़े पुरलुत्फ़ अंदाज़ में इस बात को फिर से रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि जब वे ‘आजकल’ के संपादक बने, तब तक संपादन-कला का उन्हें कुछ ख़ास ज्ञान न था। वे तो ख़ाना-बदोश थे, हरफ़नमौला लेखक। भला संपादन-कला की बारीक़ियाँ क्या जानें? पर वे ‘आजकल’ के संपादक बने तो इतने सफल संपादक माने गए कि ‘आजकल’ को उन्होंने देखते ही देखते अपने समय की सबसे शीर्ष पत्रिका बना दिया। 

कई बार उनके निदेशक शशधर सिन्हा जो कि प्रशासकीय चाल-ढाल के व्यक्ति थे, कुछ परेशान होकर पूछते थे, “सत्यार्थी जी, आपने तो इतने सारे विशेषांकों की योजना बना ली। तो क्या आपने सोचा है कि कैसे उन्हें पूरा करेंगे?” इस पर सत्यार्थी जी एक पल की चुप्पी के बाद एक छोटा सा वाक्य कहते थे, “काम ही सिखाता है कि काम कैसे करना है!” . . . यानी काम करते जाओ। जैसा भी आता है, मन और लगन से करते जाओ। काम करते-करते आप ख़ुद सीख जाएँगे कि काम किस तरह से बेहतर हो सकता है। और सीखेंगे ही नहीं, एक दिन उस्तादी भी हासिल कर लेंगे। 

श्याम भया का भी यही गुर था। उन्हें हर चीज़ आती थी, हर चीज़ के वे उस्ताद थे, पर उन्होंने कहीं से सीखा नहीं था। बस, काम करते-करते ही सीखा और फिर करते-करते ही उस्ताद हो गए। मन और आँखें खुली हों और बुद्धि सतर्क हो तो फिर क्या मुश्किल है? 

इसी तरह घर में कोई शुभ उत्सव होता तो विभिन्न रंगों के पतंगी काग़ज़ों को काट-काटकर रंग-बिरंगी झंडियाँ बनाकर टाँगना उन्हीं का ज़िम्मा था। घर में हर शुभ पर्व की शुरूआत होती थी ‘घड़ोली’ से, जिसमें घर-परिवार की स्त्रियाँ कुएँ से जल भरकर लातीं। घड़ोली के लिए मंगल घट की सज्जा का ज़िम्मा भी हमेशा श्याम भैया का ही रहता। रंग-रंग की चमकीली पन्नियों से वे मंगल घट की ऐसी सजावट करते कि देखकर आँखें थकती न थीं। आख़िर इसी मंगल घट को लेकर तो घर की बहुओं को घर-परिवार और महल्ले की स्त्रियों के साथ कुएँ से पानी भरकर लाना होता और मंगल गीत गाते हुए, हवा में उत्सव की एक प्रफुल्ल लय उत्पन्न करनी होती थी। उस समय श्याम भैया का बहुत मेहनत से सजाया गया मंगल घट दूर से आनंद और प्रसन्नता की विजय घोषणा-सा करता। 

फिर दीवाली पर श्याम भैया का बनाया हुआ क़िंदील तो दूर से ही मन आलोकित कर देता था। रंग-रंग के पन्नी काग़ज़ से बनाए क़िंदील में वे अपना पूरा मन उड़ेल देते। इसके लिए पहले बाँस को काटकर छोटी-छोटी खपचियाँ बनाई जातीं। फिर धागे से उन्हें सुंदरता और मज़बूती से बाँधा जाता। और फिर रंग-बिरंगे पन्नी काग़ज़ को जब वे सफ़ाई से चिपकाते तो क़िंदील किसी सुंदर कलाकृति की तरह दूर से मोहता। उसमें दीया रखने का भी स्थान होता था। फिर जब छत पर एक लंबे बाँस पर बाँधकर उसे टाँगा जाता तो दूर से वह किसी सपने जैसा झिलमिलाता लगता था। हर बार श्याम भैया अपने बनाए क़िंदील में कुछ न कुछ नयापन लाते। कभी नए ढंग की सजावट करके तो कभी उसके आकार में कुछ बदलाव करके। पन्नियाँ चिपकाने और उस पर फूल-पत्तियाँ लगाने में तो हर साल कुछ न कुछ निखार आता ही जाता। 

एक बार मुझे याद है, श्याम भैया ने हवाई जहाज़ के आकार का क़िंदील बनाया था और उस पर इतना ख़ूबसूरत और चमकीला पन्नी काग़ज़ लगाया कि वह पूरा हुआ तो मुझे लगा, यह क़िंदील नहीं कोई अद्भुत सपना है जो पूरा हो गया है। वह क़िंदील आज भी जैसे मेरी आँखों में झिलमिल-झिलमिल कर रहा है। 

कुछ अरसा पहले ‘बालवाटिका’ के उपहार अंक में मैंने दीवाली पर कहानी लिखी ‘दीवाली के नन्हे मेहमान’ तो उसमें सुबह से बरामदे में बैठकर क़िंदील बनाने में तन्मय नंदू भैया भी उपस्थित हैं, और कहानी का नायक कुप्पू उनके हर आदेश पर दौड़ने को तैयार। उसे पढ़कर गर्ग जी ने कहा, “मनु जी, यह तो आपके अपने जीवन की कहानी लगती है . . .!” मैंने कहा, “हाँ, गर्ग जी, उस कहानी में जो घर-आँगन है, वह शिकोहाबाद का वही घर है, जहाँ मेरा बचपन बीता और आज भी जिसे हम ‘बड़ा घर’ कहते हैं। कहानी के नंदू भैया मेरे श्याम भैया हैं, जो बड़ा अद्भुत क़िंदील बनाया करते थे। इतना ख़ूबसूरत, कि आज भी उसके बिना मुझे दीवाली अधूरी लगती है।” सुनकर वे हँसने लगे। बोले, “उसके बग़ैर कहानी में यह प्रभाव आ ही नहीं सकता था।” 

याद आता है, उन दिनों त्योहारों का कैसा आनंद था। हर त्योहार का जमकर आनंद लेना मैंने श्याम भैया से सीखा और फिर वह मेरे जीवन का भी हिस्सा बन गया। पर आज त्योहारों, ख़ासकर दीवाली का रंग-ढंग कितना बदल गया, सोचकर दुख होता है। उसकी मूल भावना और उत्साह तो ग़ायब हो गया, बस तड़क-भड़क और पटाखों की धाँय-धाँय ही बची है। कभी-कभी मैं सोचता हूँ, “काश, आज बच्चे पटाखे फूँककर पर्यावरण का सत्यानाश करने के बजाय, दीवाली की मूल भावना को अपना लें तो देश और समाज का कितना भला हो सकता है।” 

ऐसे ही मुझे याद है, उन दिनों जन्माष्टमी पर घर-घर मंदिर सजाने की प्रथा थी। श्याम भैया इसमें भी बड़ी तन्मयता से जुटते थे। मंदिर की सजावट के लिए घर की चादरों और साड़ियों का इस्तेमाल होता। सुंदर ढंग से झालरें बनाई जातीं। फिर खिलौने सजाने की बारी आती। श्याम भैया की कोशिश होती कि मंदिर की सज्जा ऐसी हो कि उसमें कोई थीम उभरनी चाहिए। किसी दिलचस्प कहानी सरीखी। तो देखते ही देखते तरह-तरह के खिलौनों की बस्तियाँ सज जातीं। कहीं बैंड-बाजा लिए मटरूमल की बारात नज़र आती तो कहीं ब्रज के पहलवानों के मल्लयुद्ध की बानगी नज़र आती। कहीं राज-दरबार और सैनिकों का रोब-दाब तो कहीं हिरन, भालू, शेर-बघर्रे वाला घना जंगल। कहीं टिल्लू-मिल्लू के नन्हे-मुन्ने खिलौने तो कहीं गुड्डे-गुड़ियों का सजीला संसार। कहीं पानी में रेल का खेल दिखाने की कला तो कहीं समंदर में झंडे लहराता पानी का जहाज़ . . .! 

पीछे एक तरफ़ कैलाश पर्वत पर तपस्यारत शिवजी तो हमेशा ही होते। उनके माथे पर छेद करके पीछे लाल बल्ब जलाकर तीसरा नेत्र बनाया जाता। फिर उनके सिर पर गंगा दिखाने के लिए एक बिल्कुल बारीक़ सी रबर की नलकी छिपाकर लगाई जाती। इस तरह कि पानी की एक पतली सी धार शिवजी के मस्तक पर निरंतर गिरती रहे। पर शिवजी के साथ उनका आभामंडल भी तो होना चाहिए। तो उनके पीछे एक टेबल फ़ैन का कवर उतारकर, उसकी पंखुड़ियों पर गोंद लगाकर सफ़ेद अबरक छिड़का जाता। फिर सूखने पर जब पंखा चलाया जाता तो अबरक की चमक से सचमुच ऐसा लगता कि शिवजी के मुख के चारों ओर ऐसा आभामंडल है जो उन्हें इस धरती से ऊँचा और देवत्व की महिमा से पूर्ण बनाता है। 

पर ये सारे खिलौने सीधे कमरे के फ़र्श पर रख दिए जाएँ, ऐसा नहीं था। पहले लकड़ी का बुरादा लाकर तरह-तरह के रंग से रंगकर फ़र्श पर बिछाया जाता और फिर ऊपर सजता खिलौनों का रंग और राग भरा संसार। सच ही श्याम भैया ऐसा सुंदर जन्माष्टमी का मंदिर सजाते कि देखने वाले मुग्ध हो जाते। यहाँ भी हर काम में सहायक के रूप में मुझे हर पल उपस्थित रहना पड़ता। हालाँकि मेरे लिए तो ये रोमांचक पल थे। बाद में श्याम भैया ने जन्माष्टमी पर मंदिर सजाने का काम मुझ पर ही छोड़ दिया और उनकी सिखाई कला का इस्तेमाल करके मैं भी घर की बाहर वाली बैठक में काफ़ी सुंदर जन्माष्टमी का मंदिर सजाने लगा। मैं कोशिश करता कि उसमें वैसी ही थीम उभरे, जैसे श्याम भाया साकार कर देते थे। मैं उतनी पूर्णता से तो यह सज्जा नहीं कर पाता था, पर मेरे बनाए जन्माष्टमी के मंदिर औरों से अलग और कलात्मक ज़रूर होते थे। और यह सब श्याम भैया की ही देन था। 

वाक़ई उनका सहायक बनकर मैंने बहुत कुछ सीखा। साथ ही यह जाना कि अगर हम हर काम सफ़ाई और सुंदरता से करें, पूरी तन्मयता से करें, तो सच में यह ज़िन्दगी कितनी सुंदर है। और जीवन की सच्ची कला भी यही है। 

[5] 

ऐसी ही एक और याद। उन दिनों हमारे घर बिजली नहीं थी। लालटेन जलाकर रोशनी की जाती थी। हमारा काफ़ी बड़ा घर था, इसलिए हर कमरे में रोशनी के लिए बहुत लालटेनों की ज़रूरत होती। वे लालटेन तो आ गए। पर उनमें रोज़-रोज़ मिट्टी का तेल भरकर, उनकी चिमनी की सफ़ाई करके, ड्यूट या बत्ती ठीक करके जलाना, यह कोई छोटा काम न था। जब तक पिता जी और किशन भाई साहब चक्की से घर आते, तब तक अँधेरा हो जाता। इसलिए इस काम का ज़िम्मा श्याम भैया का ही था। माँ आग्रह करतीं, “शाम बेटा, लालटेन तो जला दे।” 

और फिर श्याम भाईसाहब की आज्ञा पाते ही मैं झटपट घर के सारे लालटेन आँगन में ला-लाकर रखता। अब एक-एक लालटेन में मिट्टी का तेल डालना, बाती के अगले हिस्से को कैंची से काटकर ठीक करना और सबसे बढ़कर शीशे पर जमी कालोंच को हटाकर उसे चमकाना, यह श्याम भैया का ज़िम्मा था। वे एक के बाद एक ये सारे काम बड़ी लगन और पूर्णता के साथ करते। और फिर जब लालटेन जलती तो उसका शुभ्र प्रकाश आँखों में कैसी निर्मल कांति उत्पन्न कर देता था, यह सब क्या शब्दों में बयान किया जा सकता है? यह क्या कला नहीं है? यह ज़िन्दगी की कला है, पर इस पर किसी ने कुछ लिखा हो, याद नहीं पड़ता। 

हाँ विष्णु खरे की एक बड़ी प्रसिद्ध कविता है, ‘लालटेन जलाना’। उसमें उन्होंने पूरी बारीक़ियों के साथ लिखा है कि किस सफ़ाई से यह सारा काम होता है और लालटेन जलाने का सही तौर-तरीक़ा असल में क्या है? यह कविता इतनी बारीक़ी से एक-एक चीज़ का चित्रण करती है कि पढ़कर आनंद आ जाता है। और शायद इसी वजह से विष्णु खरे की कविता ‘लालटेन जलाना’ मुझे इस क़द्र याद आती है और समूचे हिंदी साहित्य में वह अलग जगमग करती नज़र आती है। इसलिए भी कि उन्होंने उस कविता के ज़रिए ज़िन्दगी की धड़कन को पकड़ा है, जिसमें लालटेन जलाना कोई बोरियत वाला काम नहीं, अगर तन्मयता से किया जाए, तो एक आनंदपूर्ण कला है और श्याम भैया उसे इसी तरह करते थे। बाद में श्याम भैया से मैंने भी इस काम को करने का सही तरीक़ा और हुनर सीख लिया, और उसे ठीक उसी तरह करने लगा, जैसा श्याम भैया ने सिखाया था। 
श्याम भैया मेरी तरह पढ़ाकू नहीं थे। पर वे ज़िन्दगी के स्कूल में पढ़े और पौढ़े थे। इम्तिहान में उनके नंबर कभी अच्छे नहीं आए। कभी सेकंड, कभी गुड सेकंड क्लास। मेरे नंबर बहुत अच्छे आते थे। पर नंबरों से क्या? काश, श्याम भैया में जैसी ज़िन्दगी लबालब भरी थी, उसका एक छोटा हिस्सा भी मुझमें आ जाता। तो मैं सही मानी में जीवन जीना सीख जाता। तब मैं अपने अच्छे नंबरों पर इतराता था। पर आज जानता हूँ, नंबरों से कुछ नहीं होता। ज़िन्दगी जीना एक बड़ी कला है। उसे आपने नहीं सीखा तो आप दरिद्र ही हैं, भले ही स्कूल में आप हर क्लास में टॉप करते रहे हों। 

उन दिनों छठी कक्षा से ही हम स्कूल नहीं, कॉलेज में जाते थे। इंटर कॉलेज। तो हमारे कॉलेज पालीवाल इंटर कॉलेज में 14 नवंबर को बाल दिवस पर हर साल बाल मेला लगता था। ख़ूब उत्साह और धूमधाम से। श्याम भैया दोस्तों के साथ मिलकर उस मेले में बड़ी सुंदर चाय-नाश्ते की दुकान लगाते। दुकान की ख़ूब सज्जा तो होती ही, बड़ी सफ़ाई से कुर्सी-मेज़ें जमाई जातीं। और फिर चाय और पकौड़े बना-बनाकर दूसरों को खिलाने का आनंद। बाल मेले में श्याम भैया की इस दुकान पर दिन भर छात्रों की चहल-पहल रहती, बल्कि अध्यापक भी ललककर आते और ख़ूब तारीफ़ करके जाते थे। अच्छी-ख़ासी बिक्री होती। पर फ़ायदा शायद कभी नहीं हुआ। घाटा ही होता था। और फ़ायदे के लिए लगाता भी कौन था? यों भी श्याम भैया फ़ायदे और घाटे से ऊपर की किसी दुनिया के थे। इस दुनिया का गणित वे कभी नहीं समझ पाए। अंत तक नहीं। 

इसी तरह नुमाइश देखने का हमारा कार्यक्रम भी उन्हीं के साथ बनता। हमारे शहर शिकोहाबाद में हर साल गरमी के दिनों में जब हमारी छुट्टियाँ होती थीं, नुमाइश लगती थी। इसमें खाने-पीने की चीज़ों के अलावा सर्कस, मौत का खेल, आईने का तमाशा, जादू वाली औरत, पाँच टाँगों वाली गाय, हँसी का गोलगप्पा समेत तरह-तरह के अजूबे और खेल होते थे। श्याम भैया प्यार से हमें नुमाइश में घुमाते और जी भरकर खिलाते-पिलाते। 

श्याम भैया में ज़िन्दगी थी, ज़िंदादिली भी। वे निस्संदेह उन ‘किशोरों’ में से थे जिन्हें उनकी आवारागर्दी के लिए लगातार बुरा-भला कहा जाता है। पर उनमें जितनी ऊर्जा थी, उसका उपयोग हो पाता, उसकी ढंग से तारीफ़ होती तो न जाने वे कहाँ पहुँचते? श्याम भैया में सचमुच एक दीवानगी थी और यही उन्हें श्याम बनाती थी। 

हाँ, यह ज़रूर है कि श्याम भैया अपनी इसी तथाकथित आवारागर्दी के कारण पढ़ाई में पिछड़ गए थे और निरंतर पिछड़ते जा रहे थे। वे पढ़ाई के नित नए-नए नियम बनाते और उन्हें अपने साथ-साथ मुझ पर भी लागू करते। पर आश्चर्य, पढ़ाई में नंबर मेरे ज़्यादा आते और श्याम भैया मुश्किल से पास होते। श्याम भैया कटकर रह जाते, पर उनका रोब ज़रा भी मुझ पर कम न होता। 

श्याम भैया के अलावा और भाइयों के ग़ुस्से और प्यार की भी कुछ विलक्षण स्मृतियाँ मन में तैर रही हैं। पर श्याम भैया तो मेरे इर्द-गिर्द जैसे हर पल मौजूद रहते थे। उनकी ज़रा भी अवज्ञा कर सकूँ, यह हिम्मत न थी। हालाँकि यह भी ठीक है कि उन्होंने एक अच्छे और आदर्श बड़े भाई का कर्त्तव्य निभाया। किसी चीज़ के लिए अनुचित नहीं टोका। यों वे ख़ुद भी मस्त तबीयत के थे। तो हम बच्चे अगर खेल-कूद और मस्ती में डूबे होते तो बजाय डाँटने के, उलटा हमारे खेलों में शरीक होकर उनका आनंद लेते। 

[6] 

श्याम भैया ने मेरे लिए ज़िन्दगी और कला का एक नया झरोखा और खोला। फ़िल्में। श्याम भैया के साथ बहुत फ़िल्में देखीं। इनमें ‘भाभी’ और ‘छोटी बहन’ देखने की काफ़ी अच्छी स्मृति है। ‘छोटी बहन’ में तो राखी बाँधने से जुड़ा बड़ा करुण प्रसंग है। और संयोग से यह फ़िल्म रक्षाबंधन के आसपास ही आई थी। उस दिन राखी का त्योहार था, जब श्याम भैया प्रकाश टाकीज में हमें यह फ़िल्म दिखाने ले गए थे। श्याम भैया की ख़ासी धाक रहा करती थी प्रकाश टाकीज में। पर उस दिन कुछ ऐसा चक्कर पड़ा कि उनके बहुत भाग-दौड़ करने पर भी टिकट नहीं मिल पाए। वहाँ से सिर झुकाए हुए निराश लौटे तो मन कुछ ऐसे टूक-टूक था, मानो विश्व विजय के लिए निकली सेना कहीं से बुरी तरह हारकर लौट रही हो। हालाँकि शायद दो-एक दिन बाद हम फिर श्याम भैया के ही साथ वहाँ गए और पिक्चर देखी। सभी ने पिक्चर को बहुत पसंद किया। लौटते समय बारिश हो रही थी तो साथ-साथ भीगे भी। 

इस फ़िल्म का बड़ा दर्द भरा गाना था, “भैया मेरे, छोटी बहना को न भुलाना . . .!” हालाँकि मैं ‘भुलाना’ को ‘बुलाना’ समझ रहा था और सोच रहा था कि भला छोटी बहन ने ऐसा क्या किया कि उस बुलाया ही न जाए? यह तो कुछ ठीक बात नहीं है। 

इसी तरह श्याम भाईसाहब के साथ मैंने ‘मिस मेरी’ फ़िल्म देखी थी, जिसमें यह गाना है, “ऐ दूर के मुसाफ़िर, चंदा मुझे बता दे, मेरा क़ुसूर क्या है, तू फ़ैसला सुना दे . . .!” चाँद को देखकर नायक अकेले में यह गाना गाता है तो मन दर्द में डूबता चला जाता है। पता नहीं कैसा दर्द था उस नायक जो, मेरे भीतर उतर गया। और मैं बहुत दिनों तक उसे याद करता रहा। आज भी वह दर्द भरी अनुभूति मेरे भीतर से गई नहीं है। 

फिर एक फ़िल्म थी जिसमें देवानंद टिकटों की कालाबाज़ारी करता है और पिटता है। शायद फ़िल्म का नाम ‘कालाबाज़ार’ था। इसी तरह एक फ़िल्म थी, ‘हम पंछी एक डाल के’ जिसमें बहुत-से पंछी एक साथ डाल से फुर्र करके उड़ते हैं और फिर युवाओं की तकलीफ़ों पर फ़िल्म चल पड़ती है। फ़िल्म में पंछी भी थे, लड़के भी . . . पर यह समझ न आया था कि पंछी इन लड़कों को ही कहा जा रहा है। बाद में कभी दोबारा वह फ़िल्म देखी तो उसकी ख़ूबसूरती का मैं क़ायल हो गया। 

एक बात बड़ी अजीब थी। जब फ़िल्म में गाना आता तो श्याम भैया बाहर आ जाते थे और गाना ख़त्म होते ही फिर आकर सीट पर बैठ जाते। मुझे हैरानी थी, सिर्फ़ श्याम भैया ही नहीं, बहुत से युवा और तरुण लोग ऐसा ही करते थे। वे बाहर आकर कुछ गपशप करते, थोड़ा घूम लेते और फिर जब फ़िल्म की कहानी आगे चल पड़ती तो वे आकर शामिल हो जाते थे। मुझे यह बड़ा विचित्र लगता था, इसलिए कि मुझे तो गाने ही अच्छे लगते थे। उन दिनों फ़िल्मों में गाने बहुत होते थे और बेहद सुरीले गाने होते थे। मैं उनमें आनंद लेता, उनके सुरों के साथ-साथ भावना के ज्वार में बहता था। श्याम भैया और उनके बहुत से दोस्त गाना शुरू होते ही बाहर क्यों चले जाते थे, यह मैं तब भी नहीं समझ पाया था, आज भी नहीं समझ पाता। 

एक बात और। फ़िल्म में कोई भी करुण दृश्य आता तो मुझे रोना आ जाता था। पूरे गाल आँसुओं से भीग जाते और कभी-कभी तो हिचकियाँ भी बँध जातीं। मुझे बात-बात पर रोते देख श्याम भैया डाँटते, “बुद्धू है तू, यह तो फ़िल्म है। इसमें रोने की क्या बात . . .?” 

पर फ़िल्म और ज़िन्दगी के फ़र्क़ की बात मेरे पल्ले न पड़ती। पर्दे पर किसी का दुख देखकर मैं बिल्कुल सब्र नहीं कर पाता था . . .। पहले आँसू बहते, फिर मैं चुप-चुप रोने लगता। पूरा चेहरा आँसुओं से भीग जाता। 

इस पर श्याम भैया डाँटते, “अब तू रोया तो आगे नहीं लाऊँगा!” उनका यह अस्त्र काम कर जाता, मैं बमुश्किल अपने आँसुओं पर क़ाबू पा लेता। पर कुछ देर बाद फिर वही हालत। श्याम भैया जानते थे मेरी हालत। इसलिए बहुत ज़्यादा डाँट-फटकार उन्होंने नहीं की। 

और सच पूछिए तो मेरी यह हालत आज भी होती है। कोई फ़िल्म या कोई दुख भरी कहानी-उपन्यास पढ़ूँ तो कई बार तो अकेले में ही रोना छूटता है, पूरा चेहरा आँसुओं से भीग जाता है। मैं बार-बार आँखें पोंछता हूँ, पर आगे पढ़ने की उत्सुकता ज़रा भी कम नहीं होती। एक अजीब सा भावावेग . . .! 

इसके बरक्स श्याम भैया पिक्चरों के शौक़ीन ज़रूर थे, लेकिन मज़े के लिए पिक्चरें देखते थे, आँसू-वाँसू बहाने के लिए नहीं। और ज़्यादातर वे अकेले नहीं, दोस्तों के साथ ही पिक्चर देखने जाते थे। घर में उन दिनों उनकी ख़ासी पिटाई होती थी। वे डाँट खाते, इम्तिहान में फ़ेल होते, मगर मजाल है जो उनकी शरारतें छूट जाएँ। वे शरारतें, जिन्हें बड़े भाई और पिता जी आवारागर्दी कहा करते थे। फिर भी श्याम भैया किसी न किसी तरह आँख बचाकर अपने ‘लक्ष्य’ तक पहुँच ही जाते। इस मामले में उनकी योग्यता और रहस्यात्मक शक्तियों का तो जवाब नहीं था। कभी-कभी तो ऐसा भी होता कि आधी पिक्चर आज देख ली, बाक़ी की बची हुई कल। गेटकीपर उन्हें जानते थे और मजाल है कि श्याम भैया से कोई कुछ कह सके! 

दो-एक बार ऐसा भी हुआ कि इंटरवल में वे घर चले आए। घर में पानी पिया, इधर-उधर घूमकर सूँघा कि कहीं कोई ख़तरा तो नहीं? और सब ठीक-ठाक होने पर दौड़कर फिर पिक्चर हॉल में पधार गए। पिक्चर ख़त्म होने पर घर आए तो कहते, “मैं तो यहीं था। चंदर से पूछ लो। दो बजे मैंने इसके पास बैठकर अमरूद खाया और पानी पिया था। अंग्रेज़ी का एक लेसन भी याद किया था . . . पूछो इससे!” 

ज़ाहिर है, मुझे ‘हाँ’ ही कहना पड़ता था (वरना उनका ग़ुस्सा क्या मैं जानता न था? ) और श्याम भैया की जीत हो जाती! ऐसे क्षणों में उनका चेहरा और अधिक लुभावना और गोलमटोल नज़र आने लगता। 

एक-दो बार श्याम भैया ने मुझे भी इस रपटीले रास्ते पर चलाने की हलकी-सी कोशिश की। लेकिन मेरा रुझान किताबों की ओर देखकर और कुछ शायद बड़े भाई की ज़िम्मेदारी का ख़्याल करके छोड़ दिया। इस बारे में एक घटना मुझे अब भी याद है। 

उस दिन श्याम भैया पिक्चर देखकर इंटरवल में घर आए थे। अब राम जाने कौन-सी पिक्चर थी, बिल्कुल दिमाग़ से नाम उतर गया! . . . पर इस बीच घर पर उनकी बुरी तरह ढूँढ़ मची थी। उन्हें दुकान पर किसी ज़रूरी काम से जाना था और वहाँ से जल्दी मुक्ति असंभव थी। उनके पास पिक्चर की आधी टिकट थी जो उनकी सफ़ेद मक्खन जीन की पैंट में सुरसुरा रही थी। चोरी से उसे मेरे हाथ में थमाते हुए बोले, “जा, जल्दी से चला जा। गेटकीपर को दे दियो, अंदर बिठा देगा। कह दियो, श्याम भैया मेरे भैया हैं—सगे भाई।” 

“मगर . . .!” मैंने प्रतिवाद करना चाहा। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था, माज़रा क्या है? बल्कि मेरी हालत उस बिल्ली जैसी हो रही थी, जिसे ज़बरदस्ती किसी हँड़िया में सिर फँसाने के लिए कहा जाए। 

“मैंने आधी पिक्चर देख ली है। यह टिकट ले जा, बाक़ी आधी तू देख लेना। रात को मुझे स्टोरी सुना देना, शुरू की स्टोरी मैं तुझे सुना दूँगा। बस, पूरी पिक्चर तेरी भी हो जाएगी, मेरी भी,” श्याम भैया ने फिर उकसाया। 

“मगर मुझे इंग्लिश ग्रामर की तैयारी करनी है, कल टैस्ट है,” मैंने झूठ बोला। 

“तो क्या फ़र्क़ पड़ता है? कोई डेढ़ घंटे की बात है, बल्कि पंद्रह मिनट तो निकल ही गए . . . जा, दौड़ जा।” 

“मगर . . . वहाँ दिक़्क़त तो नहीं आएगी? गेटकीपर . . .!” मैंने अब ‘अगर-मगर’ की शरण लेनी चाही। लेकिन श्याम भैया के पास मेरी हर समस्या का समाधान था, “अरे, जा तो। तू कहियो, मैं श्याम का भाई! . . . सब मुझे जानते हैं।” 

मैं बड़े भारी मन से उठा। बड़ी कातर आँखों से श्याम भैया की ओर देखता हुआ कि शायद अब भी मुझ पर तरस खाएँ। आख़िर उनकी बड़ी-बड़ी आँखों से डरता हुआ बाहर आ गया। घूमता-घूमता प्रकाश टॉकीज में पहुँचा। स्कूल से आते हुए दूर-दूर से देखा था और शायद तब तक एकाध पिक्चर भी श्याम भैया के साथ देखी थी, मगर . . . ऐसे! 

इधर से घुसकर देखा, डर लगा . . . गेटकीपर! (वह कोई मुच्छड़-सा बंदा था, चेहरे पर भरपूर गुंडापन!) उधर से घुसकर देखा, डर लगा—यहाँ से देखा, डर लगा . . . वहाँ से देखा, डर लगा। पहले तो यह अंदर घुसने ही नहीं देगा और घुस भी गया तो भीतर अँधेरे में सीट तक कैसे पहुँचूँगा? 

अँधेरा मेरे मन में डर बनकर घुस गया और मैं दुम दबाकर भागा। मगर इससे भला मुक्ति कैसे होती? शाम को श्याम भैया ने पूछा, “पिक्चर देखी थी . . .?” 

“हाँ,” मैंने झिझकते हुए कहा। 

“कैसी लगी . . .?” 

“अच्छी।” 

“वाक़ई कि ऐसे ही बोल रहा है . . .?” 

“नहीं, वाक़ई . . .!” 

मगर जाने क्या चोर था मेरे बोलने में कि वो समझ गए। मुझ पर आँखें गड़ाकर पूछा, “अच्छा! बता, क्या था उस पिक्चर में?” 

अब मैं घबराया। सीधे-सीधे बता दिया, “नहीं देखी।” 

“फिर . . .?” 

“मैं गया तो था, लौट आया।” 

“क्यों?” 

“अंदर जाने का दिल नहीं किया,” कहते-कहते मेरी आवाज़ भर्रा गई। 

“हूँ! . . . बेकार करा दिए न पैसे। तू किसी काम का नहीं है चंदर, क्या करेगा जीवन में?” 

मुझे डर लगा, अब ज़रूर पिटाई होगी। मगर श्याम भैया थोड़ी देर मुझे कड़ी निगाहों से देखते रहे, फिर सॉफ़्ट-सॉफ़्ट हो गए। 

“तुझे पिक्चरें अच्छी नहीं लगतीं?” बालों में कंघी करते हुए अचानक उन्होंने रुककर पूछा। मैं चौंका, अरे! यह मेरे ही श्याम भैया की आवाज़ है? इतना बहता हुआ स्नेह। 

“नहीं, ज़्यादा पसंद नहीं हैं . . .!” जाने क्या हुआ कि मैं रो पड़ा। 

“पढ़ना अच्छा लगता है?” मेरी ठोड़ी पकड़कर उठा दी है उन्होंने। 

“हाँ।” मैंने कहना चाहा, मगर सिर्फ़ एक मरी हुई फुस-फुस निकली मेरे होंठों से। 

“ठीक है, मैं किताबें ला दूँगा।” और मेरी पीठ थपथपाकर चले गए। 

पता नहीं कब तक मैं बैठा रहा, क्या-क्या सोचता रहा। शायद यह कि मेरे श्याम भैया क्या हमेशा ऐसे ही नहीं बने रह सकते, जैसे कि आज . . .? लेकिन श्याम भैया बदले, थोड़े से तो ज़रूर ही बदल गए। 

इसके बाद वे न सिर्फ़ मेरे लिए किताबें लाते, दोस्तों के बीच भी जमकर तारीफ़ करते और कम से कम उन्हें मेरा मज़ाक़ तो नहीं उड़ाने देते। उन्होंने जो किताबें लाकर दीं, उनमें राजपाल एंड संस से छपी चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह और विवेकानंद की बाल जीवनियों की मुझे अब भी याद है। ये किताबें वर्षों तक मेरे पास रहीं। श्याम भैया उनके बारे में पूछते और दोस्तों के बीच गर्व से कहते, “देखना, चंदर एक दिन बड़ा आदमी बनेगा!” मुझे अच्छा लगता, लेकिन अगले ही पल मैं झेंप जाता। कुछ भी हो, श्याम भैया के दोस्त जो उम्र में मुझसे बहुत बड़े थे, अब मेरा सम्मान करने लगे थे। और इस बात से मैं दूनी झेंप महसूस करता था और कन्नी काटने लगा था। 

हालाँकि इसी चक्कर में मेरी एक ‘मैराथन’ दौड़-प्रतियोगिता हुई थी, श्याम भैया के एक दोस्त के छोटे भाई हरि के साथ। हालाँकि हरि मुझसे कोई दो-तीन बरस बड़ा तो ज़रूर ही होगा। बात कलकत्ते वाली कोठी की है, जहाँ हम कुछ दिन किराए पर रहे थे। उन दिनों हमारा मकान बन रहा था। श्याम भैया ने मेरी दौड़ाकी की इतनी तारीफ़ की कि खेल-खेल में उन लोगों की बदाबदी हो गई। और दौड़ना पड़ा मुझे और हरि को। एक बार हम तक़रीबन बराबरी पर छूटे थे, दूसरी बार मैं हारा। दौड़-प्रतियोगिता का आइडिया श्याम भैया का था। वे मुझे तेज़-तेज़ चलते या भागते देखते थे तो उनके मन में कहीं यह बात बैठी होगी कि मैं अच्छा धावक बन सकता हूँ। मैं नहीं बन सका, पर इससे श्याम भैया की बारीक़ निगाह का पता चलता है, जो दूसरे के गुण पहचानने और उसकी खुली तारीफ़ करने में कोताही नहीं बरतते थे। 

कलकत्ते वाले मकान में ही दरवाज़े में मेरा हाथ आया था और नाखून कड़-कड़ करके टूट गया था। मेरा हाथ खूनमखून हो गया था। असल में दरवाज़े के बीच मेरा हाथ था और श्याम भैया ने अचानक ज़ोर से दरवाज़ा बंद किया तो मारे दर्द के मैं बिलबिला उठा। श्याम भैया ने होंठों पर उँगली रखकर इशारा किया, “रोना बिल्कुल नहीं है . . .!” मैं क़तई नहीं रोया, पर चेहरा आँसुओँ से भर गया और दर्द की लहर ने नीचे से ऊपर तक थरथरा दिया। वह कष्ट आज भी सिहरा देता है। 

[7] 

मज़े की बात यह है कि श्याम भैया ने ही मुझे प्रेमचंद से पहली दफ़ा मिलवाया था। उन्होंने मुझे प्रेमचंद की कहानियों की किताब ‘प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ’ किताब लाकर दी थी। और उसी पुस्तक में थी उनकी वह महान कहानी, ‘बड़े भाईसाहब’ जिसे मैं मरते दम तक नहीं भूल पाऊँगा! क्या कहानी थी, क्या बात! क्या ग़ज़ब का चरित्रांकन! उस कहानी को आज तक पढ़ी हज़ारों अच्छी और ख़ूबसूरत कहानियों से मैं अलगा सकता हूँ। यह कहानी प्रेमचंद ही लिख सकते थे जो एक साथ अपने रचे पात्रों की कमज़ोरियों और ख़ासियत दोनों को देख रहे होते थे। और कहानी के शहंशाह की तरह जो देखते और सोचते थे, उसे कहानी में लाकर भी दिखा देते थे। उस वक़्त भी जब पहलेपहल पढ़ी थी, इस कहानी ने मेरे भीतर अजब-सी हलचल भर दी थी, क्योंकि यह तो हू-ब-हू हमारी कहानी थी—मेरे और श्याम भैया के अद्भुत संबंधों की कहानी। बाप रे बाप, प्रेमचंद को इसका पता कैसे चला और वे इतना पहले लिख कैसे गए यह कहानी? मैं चक्कर में पड़ गया था। 
अलबत्ता सारी कहानियाँ मैं कोई डेढ़-दो दिनों में चाट गया था और जब ‘बड़े भाईसाहब’ कहानी पढ़ी थी, तो मेरी हालत यह कि ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे। अरे! मेरी और श्याम भैया की यह कहानी प्रेमचंद ने कैसे लिख ली? मेरा मन हुआ कि दौड़कर श्याम भैया के पास जाऊँ और उन्हें बताऊँ कि देखिए-देखिए, यह जो प्रेमचंद के ‘बड़े भाईसाहब’ हैं न, बिल्कुल . . . बिल्कुल . . . जैसे आप! 

पर उत्तेजना में, एकांत में ख़ुशी से हाँफते हुए यह सोचना जितना आसान था, श्याम भैया के पास जाकर उसे कहना उतना ही मुश्किल! अगर ख़ुदा न खास्ता उन्हें ग़ुस्सा आ गया तो? मेरी हड्डी-पसली एक नहीं रहेगी। 

तो भी श्याम भैया जो थे, सो थे। उनसे डर और संकोच के बावजूद एक अंदरूनी गहरा-गहरा-सा प्यार था और मेरी ज़िन्दगी मज़े में चल रही थी। मन में कहीं एक गहरी आश्वस्ति-सी थी कि कहीं कुछ भी हो, श्याम भैया सब सँभाल लेंगे। वे परम समर्थ हैं, उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। 

बचपन में मेरे ‘हीमैन’ थे श्याम भैया। और ‘हीमैन’ ही नहीं, सच्ची कहूँ तो गॉडफ़ादर भी। हालाँकि उन्होंने होना चाहा नहीं था, यह मैं ही था जो प्रेम और आतंक से भरकर उनकी पूजा-सी करता था। 

[8] 

हालाँकि नियति को शायद यह मंज़ूर नहीं था कि इतनी मस्ती से सराबोर श्याम भैया इतने खिले-खुले रहें। एक त्रासदी हमारे घर में घटित हुई और श्याम भैया एक अव्यक्त रोग की लपेट में आ गए। 

हुआ यह कि मेरे सबसे बड़े भाईसाहब नहीं रहे। हार्टअटैक से वे गए . . . कुल बत्तीस साल की उम्र में। लगा कि पूरे घर में भूचाल आ गया और धरती काँप गई। वे घर के सबसे ज़िम्मेदार पूत थे और माँ-बाप के लिए बहुत बड़ा सहारा। ख़ुद उनका अपना परिवार भी था। उनकी विनम्रता और सद्चरित्र के कारण समाज में सब उनका आदर करते थे। पर हा, हंत! . . . उनका इस तरह जाना! हे भगवान, यह कैसी तेरी लीला। जिसने भी सुना, वह अवाक्‌ रह गया। 

मुझे याद है, श्याम भैया ही हम भाई-बहनों को स्कूल से लेने के लिए आए थे। उस समय का उनका चेहरा नहीं भूलता। जैसे सारा ख़ून सूख गया हो। कुछ पूछने की हमारी हिम्मत नहीं हो रही थी, पर समझ रहे थे कुछ ऐसा अघट घट गया है, जिसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है। घर आए तो देखा, कुहराम मचा है। सारे भाई-बहन फूट-फूटकर रो रहे थे। माँ विलाप कर रही थीं, पिता विलाप कर रहे थे। सबको देख-देखकर हम बच्चे भी रोए, पर अकेले श्याम भैया होंठों को भींचकर बैठे थे। जैसे अंदर ही अंदर दुख को जज़्ब कर रहे हों! 

माँ ने देखा तो रोते-रोते बोलीं, “मेरा शाम रो नईं रया। कोई उन्नू रुआओ।” 

पर श्याम भैया नहीं रोए। बस, होंठ भींचे बैठे रहे। और तभी से उनके भीतर जैसे कोई सदमा बैठ गया . . . बहुत दिनों तक वे गुमसुम से रहे, फिर कुछ सामान्य हुए। पर उस हादसे का असर यह हुआ कि बीच-बीच में अचानक और गुमसुम हो जाते। सामन्यतः ख़ूब ख़ुश रहते। पर बीच में कभी-कभी बहुत उदास और गुमसुम से लगने लगते। माँ उनकी यह हालत सबसे ज़्यादा समझती थीं और बहुत चिंता-फ़िक्र करती थीं। इसलिए जब तक श्याम भैया नहा-धोकर ठीक से खा-पी न लें, माँ के गले से भी खाने का कौर उतरता न था . . .। और एक दिन इसी ने उनके प्राण ले लिए। 

श्याम भैया को बहुत छोटी ज़िन्दगी मिली। 1946 का उनका जन्म था और चवालीस बरस की अवस्था में वे चले गए। माँ 1988 में गुज़रीं, वे 1990 में। जैसे माँ के पीछे-पीछे वे भी चल दिए हों . . .। हालाँकि इस छोटी-सी ज़िन्दगी को उन्होंने भरपूर जिया। सब पर भरपूर प्यार लुटाते हुए। मुझे भी बाद के दिनों में बड़े भाई और दोस्त दोनों का मिला-जुला प्यार दिया। मेरे दोस्त घर पर मिलने आते तो मुझसे ज़्यादा श्याम भैया से बतियाना उन्हें पसंद था और श्याम भैया उन्हें ख़ूब खिला-पिलाकर भेजने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ओढ़ लेते। 

आज मैं कुछ न होता, कहीं न होता, अगर बचपन में श्याम भैया ने किसी उस्ताद और गुरु की तरह कसकर भीतर बाहर से थाप लगाते हुए मुझे पक्का न किया होता . . .। वे मेरे दोस्त भी थे, गाइड भी, हीरो भी। उनके होते हुए लगता था, कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वे मुझे सर्वशक्तिमान लगते, जिनकी छाया में मैं सुरक्षित था और बड़े आनंद से जी रहा था। उन्हें याद करते ही लगता है, मैं एक बार फिर बचपन में पहुँच गया हूँ, और चोरों ओर से ‘कुक्कू . . . कुक्कू’ की आवाज़ें सुनकर आनंदविभोर हो रहा हूँ। 

ऐसे श्याम भैया को भला मैं भूल भी कैसे सकता हूँ? 
 

श्याम भैया—वे मेरे बचपन के हीरो भी थे, गाइड भी!

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