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पेड़ हरा हो रहा है

 

हौले-हौले बरस रही हैं रस-बूँदें
हौले-हौले
पेड़ हरा हो रहा है। 
 
हरा और गोल-छतनार और भीतर तक रस से भरा
हरा और आह्लादित
डालें थिरकतीं पत्ते नाचते अंग-अंग थिरकता
चहकती चिड़ियाँ
गूँजती हवाएँ—
पेड़ हरा हो रहा है, पेड़ हरा हो रहा हैं . . .!! 
 
सुनो-सुनो . . . गूँजती दिशाओं का शोर
पेड़ हरा हो रहा है, पेड़ हरा हो रहा हैं . . . 
पेड़ हरा . . .!! 
 
बहुत दिनों की इकट्ठी हुई थकान
जिस्म और रूह की
बह रही है
बह रहा है ताप
बह रही है ढेर सारी गर्द स्मृतियों पर पड़ी
दुख-अवसाद की छाया मटमैली
दाह-तपन मन की
सब बह रही है और पेड़ हरा हो रहा है
हरा और रस से भरा
नया-नया सुकुमार, आह्लादित। 
 
अभी-अभी मैंने उसकी खटमिट्ठी बेरियों-सी 
हँसी सुनी
अभी-अभी मैंने उसे बाँह उठाए
कहीं कुछ गुपचुप इशारा-सा करते देखा
और मैं जानता हूँ पेड़ अब रुका नहीं रहेगा
वह चलेगा और तेज़-तेज़ क़दमों से
सारी दुनिया में टहलकर आएगा
ताकि दुनिया कुछ और सुंदर हो
कुछ और हरी-भरी, प्यार से लबालब और आत्मीय
 
और जब लंबी यात्रा से लौटकर वह आएगा
उसके माथे से, बालों की लटों और अंग-अंग से
झर रही होगी बूँदें
 
सुख की भीतरी उजास और थरथराहट लिए
रजत बूँदें गीली चमकीली
और उन्मुक्त हरा-भरा उल्लास
हमारे भीतर उतर जाएगा कहीं दूर जड़ों तक . . . 
अँधेरों और अँधेरों और अँधेरों के सात खरब तहख़ानों के पार। 
 
फिर-फिर होगी बरखा
फिर-फिर होगा पेड़ हरा
स्नेह से झुका-झुका
तरल और छतनार . . . 
फिर-फिर हमारे भीतर से निकलेगा
किसी नशीले जादू की तरह
ठुमरी का-सा उनींदा स्वर
कि भैरवी की-सी लय-ताल . . . 
कि पेड़ हरा हो रहा है
पेड़ सचमुच हरा हो रहा है। 

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