अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मज़दूर की नियति

हर पल चहकने वाला बुधना आज बहुत ही सुस्त उदास और चुप बैठा था। एक तगाड़ी गारा दे कर आता कुछ देर बैठता फिर दो घूॅंट पानी पीता और पुनः गारे की तगाड़ी सर पर उठा मिस्त्री को पकड़ाने चल देता। 

उसकी व्यथा को रमेश महसूस कर पा रहा था। 

“क्या बात है बुधन आज तुम्हारी तबियत ठीक तो है?” बुधन की स्थिति देख कर रमेश ने पूछ ही लिया। 

“आ हाँ हाँ कुछ ख़ास नहीं बस थोड़ा मन भारी भारी लग रहा,” बुधन ने अनमने ढॅंग से कह दिया। 

परन्तु बुधन की लाल चढ़ी हुई आँखें सूखे होंठ और लड़खड़ाते हुए क़दम यानी उसकी शारीरिक स्थिति बता रही थी कि वह सख़्त बीमार है। 

रमेश ने बुधन का सर छू कर देखा तो उसका सर तेज़ बुखार से तप रहा था। 

“भाई तुम्हें तो काफ़ी तेज़ बुख़ार है और तुम कहते हो कुछ ख़ास नहीं,” इतना कह कर रमेश ने उसके हाथ से गारे की तगाड़ी छीन ली। 

“नहीं भाई नहीं; अगर एक दिन भी नागा करूँगा मुझे दीपावली का बोनस नहीं दिया जायेगा,” बुधन ने अपनी मजबूरी जताई, “और घर में खाने का दो जून का आटा चावल भी नहीं।” 

“पर . . . ”

“कुछ नहीं सब ठीक हो जायेगा। हम मज़दूर की नियति यही है, आराम कहाँ हमारे नसीब में? अपने परिवार और बच्चों की ख़ुशी के आगे मुझे अपनी परेशानी कुछ भी नहीं लग रही। मैं नागा नहीं कर सकता मेरे दोस्त। मुझे अपने कष्टों से ज़्यादा अपने परिवार की ख़ुशी प्यारी है।” 

ऐसा कह कर बुधन ने पुनः गारे की तगाड़ी सर पर उठा ली।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

सांस्कृतिक आलेख

दोहे

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं