मज़दूरनी
काव्य साहित्य | कविता अमित कुमार दे15 May 2023 (अंक: 229, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
(मज़दूर दिवस विशेष)
हाँ मैं! मज़दूरनी हूँ, मज़दूरनी हूँ,
दिन-रात मज़दूरी करके पेट भरती हूँ,
न कड़ी धूप से डरती हूँ,
न पानी से, न ठंडी से,
डरती हूँ तो फूटी क़िस्मत से,
हाँ मैं! मज़दूरनी हूँ, मज़दूरनी हूँ॥
लाचार हूँ, विवश हूँ, मजबूर हूँ,
इसलिए तो पीठ पर
छोटी बच्ची बाँधकर काम कर रही हूँ,
माँ हूँ, मजबूर हूँ, न किसी का बोझ हूँ,
ग़रीबी का बोझ लिए चलती हूँ,
हाँ मैं! मज़दूरनी हूँ, मज़दूरनी हूँ॥
न भाग्य अपना, न भगवान अपना,
बच्ची का पेट पालूँ, यही एक सपना,
न महलों का शौक़, न गहनों की चाहत,
दो वक़्त की रोटी और तन पर कपड़ा मिल जाए,
कुछ काम मिल जाए, कुछ काम मिल जाए,
हाँ मैं! मज़दूरनी हूँ, मज़दूरनी हूँ॥
मज़दूर दिवस की बातें सुनती हूँ,
कुछ लोग आते सेल्फ़ी खींच जाते,
मना भी न कर पाती हूँ,
उसके साथ एक हँसी हँस जाती हूँ,
हाँ मैं! मज़दूरनी हूँ, मज़दूरनी हूँ॥
कड़ी धूप में खड़ी हूँ,
भाग्य के पीछे पड़ी हूँ,
दो वक़्त के रोटी के लिए लड़ी हूँ,
पीठ पर ममत्व लिए चली हूँ,
क्योंकि एक बेटी की माँ हूँ,
हाँ मैं! मज़दूरनी हूँ, मज़दूरनी हूँ॥
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