अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

नयी कविता और भवानी प्रसाद मिश्र

 

स्वातंत्र्योत्तर काल में प्रयोगवादी कविता और नयी कविता का विकास साथ-साथ हुआ जिसमें नवीन जीवन मूल्यों की नवीन शिल्प-विधान द्वारा स्थापना की गई। 'नयी कविता' का वर्तमान अर्थ में प्रयोग 'अज्ञेय' ने आकाशवाणी से प्रसारित एक फीचर में किया था जो 'नये पत्ते' (1953) में प्रकाशित हुआ।

डॉ. त्रिलोचन पाण्डेय के अनुसार नयी कविता को प्रयोगवाद का एक स्वरूप मानना चाहिए जिसने आगे चलकर सन् 1960 के आस-पास विशिष्ट रूप धारण किया। 'नयी कविता' शीर्षक पत्रिका ने अपने प्रकाशन वर्ष 1954 से लेकर इसे काव्य-आंदोलन के रूप में मान्यता दिलाई तथा नए मनुष्य की प्रतिष्ठा करने वाले अस्तित्ववादी, मानवतावादी जीवन-दर्शनों के साथ उसका वैचारिक संबंध स्थापित किया। इस नाम के पीछे अंग्रेजी के 'न्यू पोएट्री' आंदोलन का भी प्रभाव था, जिसकी मुख पत्रिका के प्रभाव से 'नयी कविता' की सार्थकता सिद्ध की गई। नन्ददुलारे बाजपेयी ने धर्मयुग (1967 में नयी कविता का पुनरीक्षण किया और समीक्षकों ने 'नयी कविता के प्रतिमान', 'नयी कविता, स्वरूप और समस्याएँ' जैसी पुस्तकों में इसके सैद्धान्तिक आधार को पुष्ट किया। अक्सर यह संदेह व्यक्त किया जाता है कि स्वतन्त्रता के बाद प्रयोगवादी कवि अपने को 'नयी कविता' के कवि क्यों कहने लगे? यदि तीन - चार सप्तकों को एक ही काव्य आंदोलन के तीन सोपान मानें तो सन् 1960 तक 'प्रयोगवाद' और 'नयी कविता' एक सिद्ध होते हैं। 'तारसप्तकों' में नए प्रयोगों द्वारा नए राग की अभिव्यक्ति की गयी थी। यही कार्य 'नयी कविता' ने किया। इसलिए डॉ. बच्चन सिंह इस काव्य आंदोलन को समग्रत: आकलित करने के लिए सप्तकीय कवियों के अतिरिक्त सप्तकेतर कवियों का भी ध्यान रखना चाहते हैं। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय 'नयी कविता' को अपनी प्रेषणीयता और उपलब्धि की दृष्टि से प्रयोगशील की अगली स्थिति मानते हैं। इसमे पूर्व रूप विधान के प्रति असंतोष है, अहं की अभिव्यक्ति में पूर्ण आस्था है। वैयक्तिक स्वातंत्र्य के साथ अहं की अभिव्यक्ति को लेकर चलने वाली यह 'नयी कविता' सन् 1960 तक रूढ़ हो गयी। इसमें बौद्धिक अनुभूति आरोपित हो चली, मौलिकता का अभाव हो गया।1

नयी कविता में एक नहीं, कई प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं, एक व्यवस्था नहीं, कई व्यवस्थाएँ विद्यमान हैं। यह स्थिति उसकी संवेदनात्मक अनेकरूपता को व्यक्त करती हैं। तार सप्तक (1943) तथा उसके बाद की कुछ रचनाओं के लिए वादप्रिय समीक्षकों ने 'प्रयोगवाद 'शब्द का अवधारणात्मक प्रयोग किया। प्रयोग काव्य का साध्य नहीं है, कहकर संकलनकर्त्ता ने आग्रहपूर्वक प्रयोगवादी होने का निषेध किया। अज्ञेय ने इस उलझन को 'दूसरा सप्तक' की भूमिका में अपने शब्दों में इस प्रकार स्पष्ट किया - "हम समझते हैं कि इस भूमिका के बाद उन आक्षेपों का उत्तर देना अनावश्यक हो जाता है जो हमें 'प्रयोगवादी' कहकर हम पर किए गए हैं। कुछ आक्षेपों को पढ़कर तो बड़ा क्लेश होता है, इसलिए नहीं कि उन में कुछ तत्व है, इसलिए कि उन में तर्क-परिपाटी की ऐसी अद्भुत विकृति दीखती है, जो आलोचक से अपेक्षित नहीं होती। आलोचक में पूर्वग्रह हो सकता है; पर कम से कम तर्क-पद्धति का ज्ञान उसे होगा, और उसे वह विकृत नहीं करेगा ऐसी आशा उस से अवश्य की जाती है। श्री नन्ददुलारे वाजपेयी का 'प्रयोगवादी रचनाएँ 'शीर्षक निबंध तर्क-विकृति का आश्चर्यजनक उदाहरण है। इस प्रकार के आक्षेपों का उत्तर देना एक निष्फल प्रयोग होगा; और हम कह चुके हैं कि निष्फल प्रयोगों का कोई सार्वजनिक महत्त्व नहीं है।"2

प्रयोगवाद के साथ को 'नयी कविता' को परिभाषित करने के लिए प्रयोगवादी कवियों के अतिरिक्त नए कवियों की तत्संबंधी धारणाओं को जानना आवश्यक है। नए कवियों में अज्ञेय, मुक्तिबोध, भवानीप्रसाद मिश्र, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता आदि के साथ रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, कुँवर-नारायण, जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकान्त वर्मा, धर्मवीर भारती, श्रीकांत वर्मा, केदारनाथ सिंह आदि भी सम्मिलित किए जाते हैं। 'नयी कविता' के काव्यशास्त्र में लक्ष्मीकान्त वर्मा ने 'लघुमानववाद' को और डॉ. जगदीश गुप्त ने 'अर्थ की लय' को जोड़ा है। डॉ. गुप्त का कथन है कि 'नयी कविता' में संगीतात्मकता के स्थान पर अर्थ की लय रहती है। उन्होंने अर्थ की लय से ही पद्य और लय से युक्त पद्य - दोनों के उदाहरण दिये। रघुवीर सहाय ने 'विचार-वस्तु का कविता में खून की तरह दौड़ते रहने' की बात कही तो धर्मवीर भारती ने 'एक स्वस्थ आत्म-विश्लेषण' को प्रधानता देकर भाषा के प्रश्न को गौण बना दिया। कुंवर नारायण ने 'नयी कविता' में 'बौद्धिक - स्वतन्त्रता' की बात उठाकर एक सत्य को अगले सत्य तक पहुँचने का साधन माना। सर्वेश्वर ने कविता के रूप- विधान को भावनाओं की नयी परतें खोलने का, संवेदना के स्तरों को छूने का एक माध्यम भर स्वीकार किया और घोषणा की कि 'कवि के वक्तव्य और कविता के वक्तव्य में अंतर होता है।' केदारनाथ सिंह ने आरंभ से ही बिम्ब निर्माण की प्रक्रिया पर सर्वाधिक ज़ोर दिया क्योंकि उनके मतानुसार, 'आज काव्य के मूल्यांकन का प्रतिमान लगभग वही मान लिया गया है।' इसके अतिरिक्त उन्होंने माना कि "शुद्ध कविता जैसी किसी चीज़ की कल्पना बिलकुल बेमानी है।" और "कला का संघर्ष एक तरह का आत्म-संघर्ष होता है - विशेष रूप से एक नए कवि के लिए।"

कविता की दिशाएँ:

'नयी कविता' प्रयोगवादी अथवा परंपरागत कविता से संभवत: इस बात से बिलकुल भिन्न है कि यह अपने परिवेश के प्रति अत्यधिक जागरूक है। परिवेश की यह जागरूकता साहित्य की अन्य विधाओं, जैसे नयी कहानी में समान रूप से परिलक्षित होती है। 'नया 'विशेषण लगाकर पुराने से अपने को अलगाने की प्रवृत्ति इसके मूल में है, जिसने 'नयी कहानी', 'नयी समीक्षा' नामों को जन्म दिया। लेखक के परिवेश ने आधुनिक बोध को इन विधाओं के माध्यम से नए रूपों में परिभाषित किया। इसलिए 'नयी कविता' की प्रवृत्तियों, अभिव्यक्तियों को लेखकीय परिवेश की पृष्ठभूमि में देखना आवश्यक है। परिवेश के प्रति यह जागरूकता आधुनिक वर्जनाओं, एवं कुंठाओं के स्थान पर उनके मुक्त भोग का समर्थन करती है। इसके अतिरिक्त वह क्षण के दायित्व अथवा खंड सत्य के साक्षात्कार पर विश्वास करती है जिसे अनुभूति की प्रामाणिकता कहा जाता है। जीवन की समसायिकता से यह भावबोध को ग्रहण करती है और काव्य-मूल्यों में अनुभव की सचाई पर ज़ोर देती है। भावुकता के स्थान पर बौद्धिकता उसके मूल्यांकन की कसौटी है। उसकी मुख्य प्रवृत्तियाँ हैं:
1 पीड़ा बोध - इस कविता में व्यक्ति जीवन की समस्त अनास्था, पराजय, संघर्ष और कुण्ठाएँ पीड़ा-बोध के धरातल पर व्यक्त हुई हैं। इस बोध के एकाधिक स्तर हैं - (1) आत्मपीड़ा, उत्पीड़न, प्रतिबंध, भटकाव द्वारा स्वयं भोगा हुआ, जिया हुआ पीड़ा-बोध। (2) अंतर्द्वंद्व, अवसाद, निराशा, विवशता, विकलता को स्वीकार कर भावात्मक रूप से अनुभूत पीड़ा बोध। (3) दमित कामवासना, मौन- पीड़ा से उद्भूत पीड़ा बोध (4) उलझी हुई संवेदनाओं को रूपायित करने वाला पीड़ा-बोध जो पीड़ा को जीवन का समग्र दर्शन मानकर चला। 'नयी कविता' में कामजन्य संवेदनाओं की एकाधिक भंगिमाएँ अनिवार्यत: इसे अस्पष्ट और दुरूह बना देती हैं। यह प्रवृत्ति प्रयोगवाद में भी है।
2 स्थूल के स्थान पर सूक्ष्म, महान के स्थान पर लघु की स्थापना - इसे आधुनिक भावबोध अथवा क्षणबोध कह सकते हैं। इसमें बड़े जीवन प्रसंगों को न लेकर क्षणों की सूक्ष्म अनुभूतियों को काव्य - विषय बनाया गया और मन की विभिन्न स्थितियों पर अत्यंत छोटी, किन्तु प्रभावपूर्ण कविताएँ लिखीं गईं। मनुष्य को उसकी लघुता में उसकी यथार्थ दुर्बलताओं, हीनताओं के बीच महान देखा गया। क्षण को सत्य मानने का अर्थ है जीवन की एक-एक अनुभूति को सत्य मानकर उसे पूर्णता से स्वीकार करना। लघुमानव की स्थापना का अर्थ है उपेक्षित सामान्य मनुष्य की भूख-प्यास का वर्णन करना। यहाँ 'नयी कविता' प्रगतिवाद से भिन्न हो गयी।
3 आधुनिक भावबोध - इसने नयी कविता को तीन स्तरों पर प्रभावित किया : (1) व्यक्ति के धरातल पर आत्मकेंद्रित, खंडित व्यक्तित्व का चित्रण करना (2) संवेदना के धरातल पर अकेलेपन की नियति का वर्णन और (3) विचारों के धरातल पर अतिबौद्धिकता का आग्रह। सैद्धान्तिक रूप में इस भावबोध को ग्रहण करने के कारण नयी कविता का सार तत्व प्रयोगवाद से भिन्न हो गया। यह भावबोध बुद्धिमूलक यथार्थवादी दृष्टि का परिचायक है।
4 अनुभूति की सचाई - 'नयी कविता' जीवन के क्षणों को ईमानदारी के साथ जीने की शर्त निभाती है इसलिए यथार्थ से उसकी संपृक्ति गहरी है। युग - जीवन के संदर्भ में कवि के व्यक्तित्व का जितना और जैसा संस्कार हो सका, वही उसका काव्यगत सत्य है। प्रयोगवादी कवि अपने रोमांटिक मोनोभावों के कारण इस दृष्टि को विकसित नहीं कर पाये। 'नयी कविता' के समर्थकों ने अनुभूति को अधिक से अधिक प्रामाणिक बनाया। इस आधार पर अपनी अलग पहचान बनाई। ये अनुभूतियाँ परंपरागत न होकर नवीन हैं।
5 लोक-जीवन से संपृक्ति - प्रयोगवाद अपनी शिल्पसाधना के कारण जब जन-जीवन से कट रहा था तभी कविता ने उसे उदार मानवीय भूमि पर ग्रहण किया। उसकी यह संपृक्ति प्रगतिवादी दृष्टि से भिन्न थी क्योंकि उसने वर्ग-भावना की दृष्टि से इस पर विचार नहीं किया। उसने मानव जीवन को समग्र जीवन की दृष्टि से देखा। इस प्रकार उपेक्षित मनुष्य के प्रति सहानुभूति से देखने का मार्ग प्रशस्त किया। साथ ही पारंपरिक सांस्कृतिक मूल्यों को देखने की दृष्टि डाली। लोक - संपृक्ति के कारण 'नयी कविता' ने सभी प्रकार के संदर्भों के लिए लोकजीवन की शब्दावली प्रयुक्त की। यह महत्वपूर्ण है कि 'नयी कविता' की भाषा बोलचाल के निकट है। इसे कहीं-कहीं सपाट बयानी का शिकार होना पड़ा है।
6 शिल्पगत सजगता - 'नयी कविता' प्रयोगवाद की भाँति शिल्प सजग है, फिर भी इसकी सजगता कवि-व्यक्तित्व के अनुसार भिन्न स्तरीय है। कुछ कवि अनुभव शून्यता को अस्पष्ट, अटपटे प्रतीकों और बिंबों द्वारा ढंकने का प्रयत्न करते हैं तो दूसरे कवि बिना किसी बिम्ब और प्रतीक के अपनी बात सीधे-सीधे कह डालते हैं। किसी की कथन - प्रणाली स्फीत है, कोई एक-दो शब्दों से अथवा विराम चिह्न लगाकर काम निकालना चाहता है। किसी की बिम्ब योजना शिल्प प्रयोग बनाकर रह जाती है तो किसी की विशेष संवेद्य होती है। शिल्पगत इस सजगता को काव्यरूप, उपमान रूप, प्रतीक विधान, बिम्ब विधान और भाषा के विभिन्न स्तरों पर देखा जा सकता है।

'नयी कविता' के विकास में अज्ञेय द्वारा संपादित 'तारसप्तकों' का योगदान महत्वपूर्ण है। तारसप्तकों के सभी कवि 'नयी कविता' की प्रवृत्तियों को अनायास प्रतिपादित करते हैं। भवानीप्रसाद मिश्र की कविताओं को अज्ञेय ने अपने दूसरे सप्तक के लिए चुना, जो कि उनको नए कवि के रूप में एक विशिष्ट पहचान दिलाने में सफल हुआ है। इससे पहले 'तारसप्तक' (प्रथम) में मुक्तिबोध, नेमिचन्द्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथुर, रामविलास शर्मा और अज्ञेय स्वयं शामिल हो चुके थे। 'दूसरा सप्तक' के लिए भवानीप्रसाद मिश्र, शकुंत माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती की कविताओं को चुना गया। अज्ञेय ने दूसरा सप्तक की भूमिका में नयी कविता और प्रयोगवाद के संबंध को स्पष्ट किया है तथा इन कवियों की विशिष्टताओं को रेखांकित किया। इसकी भूमिका में अज्ञेय ने लिखा है - "दूसरा सप्तक में फिर सात नए कवियों की संग्रहीत रचनाएँ प्रस्तुत की जा रही हैं। सात में से कोई भी हिंदी जगत का अपरिचित हो, ऐसा नहीं है, लेकिन किसी का कोई स्वतंत्र कविता-संग्रह नहीं छपा है, अत: यह कहा जा सकता है कि प्रकाशित कविता-ग्रंथ के जगत में ये कवि इसी पुस्तक के साथ प्रवेश कर रहे हैं। और हमारा विश्वास है कि हिंदी में संप्रति जो काव्य संग्रह छपते हैं; उनमें कम ऐसे होंगे जिन में अच्छी कविताओं की इतनी बड़ी संख्या एकत्र मिले, जितनी 'दूसरा सप्तक' में पायी जाएगी।3

भवानीप्रसाद मिश्र का पहला कविता संग्रह 'गीत फ़रोश' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। उनके अन्य महत्त्वपूर्ण संग्रह हैं - खुशबू के शिलालेख, अँधेरी कविताएँ, चकित है दुःख, बुनी हुई रस्सी, व्यक्तिगत, गांधी पंचशती आदि। 'दूसरा सप्तक' के आत्मवक्तव्य में उन्होंने अपनी कविता के संबंध में अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट किया है - "कवि और कविता के बारे में जितनी बातें प्राय: कही और लिखी जाती हैं, उनके आस-पास जो प्रकाश - मण्डल खींचा जाता है और उन्हें जो रोज़मर्रा मिलने वाले आदमियों और उन की कृतियों से कुछ अलग स्वभाव, प्रेरणाओं और सामर्थ्यों की चीज़ माना जाता है, वैसा कम-से-कम अपने बारे में मुझे कभी नहीं लगा। तो हो सकता है कि मैं कवि ही न होऊँ। मुझ पर किन किन कवियों का प्रभाव पड़ा है, यह भी एक प्रश्न है। किसी का नहीं। पुराने कवि मैंने कम पढ़े, नए कवि जो मैंने पढ़े, मुझे जँचे नहीं। मैंने जब लिखना शुरू किया तब अगर श्री मैथिलीशरण गुप्त और श्री सियारामशरण को छोड़ दें तो छायावादी कवियों की धूम थी। 'निराला ,प्रसाद और पंत' फैशन में थे। मेरी कम्बख्ती (जिसे कहने में डर लगता है) - ये तीनों ही बड़े कवि मुझे लकीरों में अच्छे लगते थे। किसी एक की भी एक पूरी कविता बहुत नहीं भा गयी। तो उन का क्या प्रभाव पड़ता। अंग्रेज़ी कवियों में मैंने वर्ड्सवर्थ पढ़ा था और ब्राउनिंग - विस्तार से। बहुत अच्छे लगते थे दोनों। वर्ड्सवर्थ की एक बात मुझे बहुत पटी कि 'कविता की भाषा यथा संभव बोलचाल के करीब हो। तत्कालीन हिंदी कविता, इस खयाल से बिलकुल दूसरे सिरे पर थी। तो मैंने जाने- अनजाने कविता की भाषा सहज रखी। प्राय: प्रारम्भ की एक रचना में ('कवि से') मैंने बहुत सी बातें कीं थीं : दो लकीरें याद हैं -

जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख
और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।"4

भवानीप्रसाद जी ने 'दूसरा सप्तक' में यह स्वीकार किया है कि इस संग्रह में प्रकाशित कविताएँ उनकी प्रतिनिधि कविताएँ नहीं हैं, इसलिए इन कविताओं के आधार पर उनकी समूची काव्य चेतना का आकलन करना कठिन है। उन्हीं के शब्दों में "दूसरा सप्तक की मेरी कविताएँ मेरी ठीक प्रतिनिधि कविताएँ नहीं हैं। जगह की तंगी सोचकर मैंने छोटी-छोटी कविताएँ ही इसमे दी हैं। 'आशा गीत, दहनपर्व, अश्रु और आश्वास, बंधा सावन और ऐसी अन्य लंबी कविताएँ अगर पाठकों के सामने पेश कर सकता तो ज़्यादा ठीक अंदाज़ उन से लगता। बहुत मामूली रोज़मर्रा के सुख-दुःख मैंने इन में कहे हैं, जिन का एक शब्द भी किसी को समझाना नहीं पड़ता।"5 उपरोक्त आत्मकथन के बावजूद 'दूसरा सप्तक' में भवानीप्रसाद जी की ग्यारह प्रतीकात्मक, बिंबप्रधान, वर्णनात्मक और संवेदनात्मक कविताएँ शामिल हैं जिसमे से एक उनकी सर्व-लोकप्रिय लंबी कविता 'गीत फ़रोश' भी है। ये कविताएँ हैं - 'कमल के फूल, सतपुड़ा के जंगल, सन्नाटा, बूँद टपकी एक नभ से, मंगल वर्षा, टूटने का सुख, प्रलय, असाधारण, स्नेह-शपथ, गीत फ़रोश और वाणी की दीनता'। दूसरे सप्तक के उनके वक्तव्य से स्पष्ट है कि साधारणता उनके जीवन और काव्य दोनों की मूलभूत विशेषता है। इसी साधारण जीवन को उन्होंने सहज शैली में अपनी कविताओं में व्यक्त किया है। वास्तव में वे साधारणता के असाधारण कवि हैं।

राजेन्द्र अवस्थी द्वारा लिए गए एक साक्षात्कार में जब उनसे उनके 'प्रयोगवादी कविता' या 'नयी कविता' से संबद्धता के संबंध में प्रश्न पूछ गया तो उनका उत्तर था - "लोग मुझे इन दोनों प्रकार की कविता से जुड़ा हुआ मानते हैं और मैं इनकार यों नहीं करता कि मेरी कविता में प्रारम्भ से ही ऐसा कुछ आता चला गया जो तब तक की कविता में नहीं था। भाव, भाषा और विचार तीनों की दृष्टि से मैं, जिसे छायावाद कहते हैं, लोगों को उससे अलग लगा और द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मक शैली के कवियों से भी। मेरे लिखने में छंद जो था, वह बोलचाल का स्वाभाविक और सरल-सा छंद था। उसमें छंद भरपूर था और फिर भी छंद का छल नहीं था। यही बाद में 'नयी कविता' का, रूप की हद तक, स्वभाव बनने लगा। ठीक उतरा नहीं, यह अलग बात है, और उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, बनावटीपन अगर एक सिरे से गलत चीजें हैं तो उन्हें हम दूसरे सिरे से मुक्ति-भाव व्यक्तिमत्ता और सोचे-समझे शिल्प से भी जोड़ सकते हैं। अनेक नए कवियों में ये गुण-अवगुण देखे जा सकते हैं। इसके सिवा 'सायर सिंघ सपूता' लीक छोड़कर चलते हैं, यह तो प्रसिद्ध ही है। यह अनुशासनहीनता श्लाघ्य है।"6

इस देश के साधारण लोगों के रोज़मर्रा के सुख-दुखों को उन्होंने अपनी ऐसी कविताओं में व्यक्त किया है, जिनका एक शब्द भी किसी को समझाना नहीं पड़ता। वास्तव में उनकी सहजता आधुनिक हिंदी कविता में अपने जैसी एक ही है। सहज अनुभूति को सहज भाषा में असाधारण अभिव्यक्ति प्रदान कर देना इनके कवि कर्म की प्रमुख विशेषता है। एक प्रेमपूर्ण, राग-भीगा मानववाद उनकी एक-एक पंक्ति में बसा हुआ है। समष्टि के सामने समर्पण की भावना उनके काव्य में प्रबल है। अपने गीतों को कमल के फूलों की तरह वे मनुष्यता के आँचल में रख देना चाहते हैं:

'फूल लाया हूँ कमल के, क्या करूँ इनका ?
पसारें आप आँचल, छोड़ दूँ हो जाय जी हलका !'7

यह राग भावना उनकी कविताओं की केंद्रीय विशेषता है। उनका हृदय अत्यंत स्नेहशील और अनुराग पूर्ण है। उनका यह अनुराग जड़ और चेतन तथा मानव और प्रकृति के प्रति समान रूप से है। एक और तो वे मानवतावादी और मानवमात्र के प्रेमी हैं और दूसरी और प्रकृति का सौंदर्य उन्हें इतना प्रिय है कि वह उन्हें आत्मसात सा कर लेता है। प्रकृति सुंदर तो है ही - उसकी सुंदरता का बखान करते हुए कवि थकता नहीं है - वह दलितों और दुखियों को सहानुभूति भी देती है :

'कितनी बार लगा है मेरे दुःख के ये साथी हैं
रात रात भर इसीलिए तो जगने के आदी हैं
मैं पृथ्वी का मानव हूँ, ये आसमान के तारे
तो भी मेरे दुःख में साथी रहते हैं बेचारे।'

भवानीप्रसाद मिश्र जी ने लोकगीतों की धुनों और चेतना को आत्मसात करके उन्होंने कुछ सुंदर गीत भी लिखे हैं लेकिन उनके कृतित्व का अधिकांश मुक्त छंद में ही है। तुक की प्रभावशीलता का उपयोग उन्होंने हमेशा कुशलतापूर्वक किया है। गीत फरोश (1956), चकित है दुःख (1968) और अंधेरी कविताएँ और बुनी हुई रस्सी (1972) उनके प्रमुख संकलन हैं। प्रकृति और मानव के स्वस्थ प्रेमी कवि की भावनाएँ और स्वर, गीतफ़रोश का प्रमुख स्वर है। कवि का दृष्टिकोण संकलन की पहली ही कविता में स्पष्टता-पूर्वक हुआ है :

'कलम अपनी साध,
और मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध !
ये कि तेरी भर न हो तो कह
और बहते बने सादे ढंग से तो बह !
चीज़ ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाय
बीज ऐसी बो कि जिसकी बेल बन चढ़ जाय
फल लगें ऐसे कि सुखरस, सार और समर्थ
प्राण-संचारी कि शोभा भर न जिनका अर्थ।'- कवि, गीत फरोश

कवि के दृष्टिकोण के लगभग सभी आयाम जो कि कविता के प्रति प्रगतिशील दृष्टिकोण का सही प्रतिनिधित्व करते हैं - इन पंक्तियों में व्यक्त हो गए हैं। वह मन की ठीक-ठीक कहना चाहता है, पर ऐसी भाषा शैली में, जिसमें कि उसके पाठक बोलते हैं। वह सीधे सादे ढंग से बहना चाहता है। पर उसका उद्देश्य ऐसे बीज बोना है, जिनके फलों का अर्थ शोभा मात्र नहीं है। अपनी वाणी की सार्थकता पर, उसके उद्देश्य पर कवि का आग्रह और भी कई जगह व्यक्त हुआ है :

'मेरी इच्छा है दो जीभों वाली तू अपना रूप दिखा
हर अत्याचार सूख जाए छूकर तेरा विष भरा लिखा
तेरी ज्वाला में पड़ते ही हर स्वेच्छाचार झुलस जाए
तेरी करुणा की बूँद पड़े, हर पत्थर में पानी आए। '- लेखनी से, गीत फ़रोश।

'गीत फ़रोश' संकलन की महत्वपूर्ण कविताओं में 'कवि, राजपथ, सन्नाटा, सतपुड़ा के जंगल, मधुमास, आशागीत, पहला पानी, घर की याद, दहन पर्व और गीत फ़रोश के नाम लिए जा सकते हैं। 'राजपथ, सन्नाटा और सतपुड़ा के घने जंगल' मिलती-जुलती शैली की तीन सुंदर कविताएँ हैं। पहली दोनों में राजपथ और सन्नाटा की आत्मकथा के सहारे सामाजिक यथार्थ को रूपायित किया गया है। ये कविताएँ कवि की विकसित संवेदनशीलता की भी प्रमाण हैं, जिसके कारण वह एक सड़क और सन्नाटे को उसी दृष्टि से देखता है जिससे किसी सजग, सचेतन मनुष्य को देखा जाता है। दोनों कविताएँ असफल प्रेम के ताने बाने से बुनी हुई हैं। 'सतपुड़ा के जंगल' भवानीप्रसाद मिश्र की ही नहीं, आधुनिक हिंदी काव्य की भी श्रेष्ठ रचनाओं में से एक है। एक अंचल विशेष के प्राकृतिक और सामाजिक यथार्थ का इतना प्रभावशाली रूपायन बहुत कम हिंदी कविताओं में किया गया है। कविता की एक-एक पंक्ति कवि की वातावरण - निर्माण की क्षमता का प्रमाण है।

"झाड़ ऊँचे और नीचे, चुप खड़े हैं आँख मीचे
घास चुप है, कास चुप है, मूक शाल पलाश चुप है
नींद में डूबे हुए से, ऊँघते अनमने जंगल
सतपुड़ा के घने जंगल !"

और :

अजगरों से भरे जंगल, आगम गति से परे जंगल
सात सात पहाड़ वाले, बड़े छोटे झाड़ वाले
शेर वाले, बाघ वाले, गरज और दहाड़ वाले
कंप में कनकने जंगल, सतपुड़ा के घने जंगल !"

इन जंगलों में रहने वाले लोग :

"इन वनों के खूब भीतर, चार मुर्गे चार तीतर
पाल कर निश्चिंत बैठे, विजन वन के बीच पैठे
झोपड़ी पर फूस डाले, गोंड तगड़े और काले
जब कि होली पास आती, सरसराती घास गाती
और मछुए से लपकती, मत्त करती बास आती
गूँज उठाते ढोल इनके, गीत इनके गोल इनके !"

'पहला पानी' भवानीप्रसाद मिश्र की प्रकृति संबंधी कविताओं का एक और महत्वपूर्ण संग्रह है। प्रकृति के प्रति आकर्षण कवि की अनुभूतियों की एक प्रमुख दिशा रही है। प्रकृति और उसमें भी वर्षा ऋतु की प्रकृति की अनेक आकर्षक मुद्राएँ इस संकलन की कई कविताओं के विषय हैं। इन कविताओं में प्रकृति के कई सुंदर, सादगी के साथ अंकित और प्रभावक चित्र मिलते हैं जो कि कवि के स्वस्थ मन और अकुंठ कल्पना के प्रमाण हैं। संकलन की लगभग दस कविताएँ पावस-प्रकृति से ही संबंधित हैं।

'घर की याद' बरसते पानी में उगते हुए गृह स्नेह की एक सुंदर अभिव्यक्ति है -

"बहुत पानी गिर रहा है, घर नज़र में तिर रहा है
घर कि मुझ से दूर है जो, घर खुशी का पूर है जो
घर कि घर में सब जुड़े हैं, सब कि इतने कब जुड़े हैं
चार भाई चार बहिने, मुजा भाई प्यार बहिने
और मां बिन पढ़ी मेरी, दुःख में वह गढ़ी मेरी
मां कि जिसकी स्नेह धारा का यहाँ तक है पसारा
उसे लिखना नहीं आता जो कि उसका पत्र पाता
और पानी गिर रहा है घर चतुर्दिक घिर रहा है
पिता जी भोले बहादुर, वज्रभुज नवनीत सा उर ....
आज गीता पाठ करके, दंड दो सौ साठ करके
जब कि नीचे आए होंगे, नैन जल से छाए होंगे
हाय पानी गिर रहा है, घर नज़र में तिर रहा है !'

'गीत फ़रोश' भवानी प्रसाद जी की चिर-प्रसिद्ध लोकप्रिय कविता है। बाज़ार की माँग के अनुसार गीत लिखने वालों - और बाजार की माँग को पूँजीवादी समाज में कितने गीतकार झुठला सकते हैं? यह एक सूक्ष्म और सुंदर व्यंग्य है। स्मित हास्य का वातावरण उसे कटु कहीं नहीं बनने देता।

"जी बहुत देर लग गयी हटाता हूँ
गाहक की मर्जी अच्छा जाता हूँ
या भीतर जाकर पूछ आइये आप
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप
क्या करूँ मगर लाचार, हार कर गीत बेचता हूँ
जी हाँ हुजूर मैं गीत बेचता हूँ।"

कविता की ये अंतिम पंक्तियाँ उस व्यंग्य को एक करुण स्पर्श दे जाती हैं। गीतों की जो किस्में कविता में गिनायी गयी हैं, वे बहुत ही मनोरंजक हैं। एक फेरीवाले की शैली का सहज और सार्थक निर्वाह पूरी कविता में किया गया है -

'यह गीत सुबह का है, जा कर देखें,
यह गीत गजब का है, ढा कर देखें;
यह गीत ज़रा सूने में लिखा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिखा था।
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है
यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है;
यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जी, यह मसान में भूत जगाता है;
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर
यह गीत तपेदिक की है दवा हुजूर।
मैं सीधे - सादे और अटपटे
गीत बेचता हूँ ;
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।'

डॉ. रामदरस मिश्र के इन शब्दों में बहुत सचाई है कि "भवानीप्रसाद मिश्र दृष्टिकोण से भले ही प्रगतिवादी न हों पर उनकी संवेदनाएँ इतनी मानवीय हैं कि वे प्रगतिशील कविता के सम्पूर्ण वर्ण्य-विषय के क्षेत्र को घेर लेती हैं। संवेदना की दृष्टि से ही नहीं, अपनी अभिव्यक्ति की सहजता की दृष्टि से भी उनकी कविताएँ प्रगतिशील कविता के आदर्श का प्रतिनिधित्व करती हैं।"7

'नयी कविता' के संदर्भ में कहा गया है कि "भवानीप्रसाद मिश्र की प्रतिभा शमशेर बहादुर सिंह की तरह अतिक्रामक नहीं है। उनका वैशिष्ट्य वह आत्मीय सहजता है जो काव्यानुभव को ही नहीं, भाषा और लय को भी एक निर्व्याज गति देती है। भवानीप्रसाद मिश्र आरंभ से ही यह अनुभव करते रहे हैं कि आज के जीवन को, उसके प्रामाणिक अस्तित्व को बातचीत की लय के जरिये ही पहचाना जा सकता है। इस लय की तलाश ही उनके लिए अभिव्यक्ति की तलाश है। यह सहजता दरअसल अपने आसपास की दुनिया को केवल देखने की आकांक्षा से नहीं, बल्कि उसमें हिस्सा लेने की नैतिक चेतना से पैदा हुई है।"8

भवानीप्रसाद मिश्र की कविताएँ बिम्ब-केन्द्रित नहीं हैं। उन्होंने अक्सर सामान्य संलाप के नाटकीय तंत्र का उपयोग करना चाहा है। इसके सहारे ही वह आज के जीवन की विसंगति और विडम्बना को अभिव्यक्त कराते हैं। बहुत हल्के-फुल्के ढंग से गंभीर चोट करने वाली उनकी कविताएँ प्रताड़ित मनुष्य के प्रति बुनियादी सरोकारों को व्यक्त करती हैं।

'अंधेरी कविताएँ' व्यंग्य नहीं करतीं, और न चोट ही, वे गहरे स्तर पर जीवन के व्यंग्य और चोट को टटोलती हैं। बाद की कविताओं में यह प्रवृत्ति और भी अधिक सघन होती गयी है। 'गीत फ़रोश' की रचनाएँ सतह के रूपाकारों के सहारे भीतरी संसार में प्रवेश करतीं थीं, लेकिन 'अंधेरी कविताएँ 'अपनी आंतरिक चेतना में ही बाहरी दुनिया को एकाग्र कर लेना चाहती हैं। दोनों के बीच का द्वन्द्वात्मक रिश्ता धीरे- धीरे कमज़ोर होता गया है। इस प्रक्रिया में भाषा का समरूप उपयोग कहीं से रचना को आहत भी करता है। 'नयी कविता' की व्यापक वैचारिकता के आलोक में भवानीप्रसाद मिश्र के काव्य का क्रमागत और वस्तुपरक अध्ययन स्पष्ट करता है कि उनकी रचनाएँ आधुनिक मनुष्य को, उसकी परिस्थितियों के भूगोल और इतिहास को, कला - व्यवस्था के भीतर जानने और परिभाषित करने का यत्न करती हैं।

संदर्भ सूची :-

1 लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय- द्वितीय महायुद्धोत्तर साहित्य का इतिहास : पृ : 250
2 अज्ञेय - दूसरा सप्तक - भूमिका : पृ : 5/6
3 भवानीप्रसाद मिश्र - दूसरा सप्तक : पृ : 20
4 भवानीप्रसाद मिश्र - दूसरा सप्तक : पृ : 21
5 राजेन्द्र अवस्थी - प्रश्नों के घेरे : पृ : 137
6 भवानीप्रसाद मिश्र - कमल के फूल- दूसरा सप्तक : पृ : 22
7 रामदरस मिश्र - साहित्य, संदर्भ और मूल्य : पृ : 41
8 डॉ. राजेन्द्र मिश्र - नयी कविता की पहचान : पृ : 49

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

गीत फरोश कविता की टप्पणी 2023/02/13 12:39 AM

गीत फरोश कविता की टिप्प्णी

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

शोध निबन्ध

पुस्तक समीक्षा

साहित्यिक आलेख

सिनेमा और साहित्य

यात्रा-संस्मरण

अनूदित कहानी

सामाजिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं