थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियाँ
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. एम. वेंकटेश्वर15 May 2020 (अंक: 156, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
समीक्षित कृति : थर्ड जेंडर: हिंदी कहानियाँ
संपादक : डॉ. एम फिरोज़ खान
प्रकाशक : अनुसंधान पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रिब्यूटर्स
105/106 चनमगंज, कानपुर-208001 (उ प्र)
ISBN : 978-81-931165-5-5
डॉ. एम फिरोज़ खान द्वारा संपादित ‘थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियाँ’ किन्नर जीवन एवं संस्कृति पर आधारित अठारह कहानियों का संग्रह है। प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ विभिन्न लेखकों के द्वारा रचित हैं जिनके केंद्र में भारतीय समाज में किन्नर समुदायों के जीवन संघर्ष, उनके अभिशप्त जन्म की व्यथा, सभ्य समाज की उपेक्षा और शोषण के प्रसंग हैं। संपादकीय के अंतर्गत किन्नरों के लिए प्रयुक्त विभिन्न शब्दावली, उनके निहितार्थ, किन्नरों के विभिन्न वर्गों का विस्तृत विवेचन किया गया है। विभिन्न भाषाओं में किन्नरों के लिए प्रचलित शब्दावली से परिचय कराया गया है। किन्नरों के लिए हिंदी में प्रचलित सामान्य शब्द ‘हिजड़ा‘ है। किन्नर साहित्य को समझने के लिए किन्नरों कीसामाजिक, आर्थिक स्थितियों की जानकारी आवश्यक है और साथ ही उनकी धार्मिक प्रवृत्तियाँ, उनकी सामुदायिक परंपराएँ, अंधविश्वास और रूढ़ियों का समुचित ज्ञान आवश्यक है। किन्नरों की सामाजिक संरचना को समझे बिना उनके जीवन विधान को समझ पाना कठिन है। किन्नरों के पाँच सौ धाम हैं जहाँ उनके गुरु अथवा नायक बसते हैं। इनकी चार शाखाएँ हैं। ‘बुचरा, नीलिमा, मनसा, और हंसा‘। बुचरा की शाखा में पैदाइशी, नीलिमा शाखा में जबरन बनाए गए, मनसा शाखा में इच्छा से बने और हंसा में उन्हें जगह दी जाती है जो शारीरिक कमी के कारण किन्नर बनते हैं। विवेच्य संग्रह की कहानियों में आकार की दृष्टि से कुछ लंबी और कुछ लघु आकार की हैं जिनकी अंतर्वस्तु सशक्त है। प्रस्तुत कहानियाँ किन्नर समुदाय पर सभ्य समाज द्वारा आरोपित अनेक मान्यताओं और व्यवहारजनित ग़लतफ़हमियों को दूर करने में सहायक हुआ है। किन्नरों की श्रेणी में वर्गीकृत यह भी मानव समाज का ही एक अभिशप्त अंग है। संगृहीत कहानियों का मूल स्वर समाज की मुख्य धारा से बहिष्कृत भिन्नी लिंगी मानवों की पीड़ा और विवशता है। इन कहानियों में किन्नर पात्रों का मानवीय पक्ष, उनकी संवेदनशालता और उनके जीवन के भावुक क्षणों का चित्रण किया गया है। किन्नर समुदाय को तृतीय लिंग अर्थात ‘थर्ड जेंडर ‘ के नाम से संबोधित किया जाता है। उस समुदाय को संवैधानिक और न्यायिक संरक्षण प्राप्त है किंतु यह पर्याप्त नहीं माना जा रहा है। इनसे संबंधित प्रावधानों का उल्लेख संग्रह की भूमिका में किया गया है। संग्रह की कहानियों के मुख्य पात्र किन्नर हैं जो समाज से बहिष्कृत ओर सामाजिक रूप से उत्पीड़ित हैं। भारत में किन्नर अपनी सुरक्षा के लिए समूहों में रहते हैं, क्योंकि समाज इन्हें हिक़ारत और घृणा की दृष्टि से देखता है। इनका प्रवेश सभ्य समाज में निषिद्ध है। फूहड़ नाच-गाना अधिकांश किन्नर लोगों का पेशा है साथ ही शिशु जन्म के अवसरों पर बधाई और आशीष देकर नेग वसूल करना, इनकी दिनचर्या होती है। कुछ किन्नरों को सड़कों पर राहगीरों और वाहनों में सवार लोगों से अपनी जीविका के साधन जुटाते हुए दिखाई देते हैं। शिक्षा की दृष्टि से इनकी स्थिति अत्यंत दयनीय होती है, अधिकांश किन्नर निरक्षर होते हैं। सामाजिक तौर पर ये असुरक्षित और निस्सहाय होते हैं। यद्यपि हाल के दशकों में कई एक किन्नरों के राजनीति में प्रवेश करने से ये चर्चा के विषय बने हैं। कुछ शिक्षित किन्नर अपने वंचित अधिकारों के लिए मुहिम छेड़ रहे हैं।
समाज के साथ कला और साहित्य में भी किन्नर समाज उपेक्षित ही रहा है। फ़िल्मों में किन्नरों के प्रसंग अवश्य आते हैं, परंतु किसी संजीदा क़िस्म के चरित्र के बजाय कुछ अपवादों को छोड़कर ज़्यादातर हास्य-व्यंग्य के लिए इनका चित्रण होता है। साहित्य में भी इनका स्थान बहुत सिमटा हुआ है। आज का साहित्य विमर्श-प्रधान है, दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, आदिवासी विमर्श की विचारधाराएँ प्रबल हैं। साहित्यिक विमर्शों की इस शृंखला में अब किन्नर विमर्श भी समाहित हो गया है। किन्नर जीवन पर आधारित साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचित कृतियों की आलोचनात्मक पड़ताल, किन्नर विमर्श का लक्ष्य है। पिछले दशक से हिंदी साहित्य में किन्नर जीवन से संबंधित रचनाएँ यदाकदा प्रकट होती रही हैं। कोई दस के लगभग उपन्यास प्रकाश में आये हैं जिसने हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श के लिए जगह बनाई है। हिंदी में किन्नर उपन्यासों के लेखक के रूप में नीरजा माधव, चित्रा मुद्गल, महेंद्र भीष्म, निर्मला भुराड़िया, अनुसूइया त्यागी, प्रदीप सौरभ ने अपनी विशेष पहचान बनाई है। अपने विशेषांकों लिए चर्चित पत्रिका ‘वाङ्मय‘ ने तृतीय लिंगियों पर आधारित विशेषांक के माध्यम से हिंदी और दूसरी भाषाओं की किन्नर जीवन पर आधारित कहानियों को संकलित करने का महती प्रयास किया है।
संग्रह की कहानियों में शिवप्रसाद सिंह की द्वारा रचित ‘बिंदा महाराज‘ नई कहानी के दौर की महत्वपूर्ण कहानी है। यह एक चरित्रप्रधान कहानी है। अपूर्ण लिंगियों की सामाजिक संदर्भों में दयनीय स्थिति के कारण न केवल उनको भौतिक कष्ट सहन करना पड़ता है, अपितु उनके प्रति घृणापूर्ण दृष्टिकोण के कारण मानसिक संताप भी सहन करना पड़ता है। ऐसे पात्र लैंगिक दष्टि से भले ही अपूर्ण होते हैं परंतु इनमें प्रेम, करुण, दया, ममता आदि मानवीय संवेदनाएँ स्वाभाविक रूप विद्यमान रहती हैं, त्रासदी यह है कि वह अपनी इन संवेदनाओं को व्यक्त नहीं कर सकते हैं। उनके प्रति समाज का घृणात्मक व्यवहार उसको व्यक्त करने का अवसर नहीं देता। यदि वह व्यक्त करने का प्रयास करता भी है तो उसे दुत्कार दिया जाता है। इस कहानी का मुख्य पात्र बिंदा ऐसे ही चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है। उसका जन्म किन्नर के रूप में हुआ है। उसका सारा जीवन भटकन भरा है। वह पुरुष या स्त्री के रूप में अपने जीवन की कल्पना करता है जिससे उसे अपनी संतान का सुख नसीब होता। बच्चों की किलकारियों के लिए वह तरसता है । पहले चचेरे भाई के पुत्र से वह नाता जोड़ता है तो वह अपमानित होता है फिर दीपू मिसिर से नाता उसके दो-ढाई वर्ष के पुत्र के लिए लगाया तो उसकी मृत्यु हो गई। उस पर डायन का लांछन लगता है।प्यार उसकी आत्मा की प्यास थी । हाथ बटोरकर उसे समेटना चाहता है तो उसके हाथ कुछ नहीं आता है। यही उसकी नियति है।
उपर्युक्त कहानी के अतिरिक्त प्रस्तुत संग्रह में राही मासूम रज़ा कृत ख़लीक अहमद बूआ, सलाम बिन रज़ाक कृत बीच के लोग, एस आर हरनोट कृत किन्नर, कुसुम अंसल कृत ई मुर्दन का गाँव, किरण सिंह कृत संझा, कादंबरी मेहरा कृत हिजड़ा, पद्म शर्मा कृत इज्जत के रहबर, अंजना वर्मा कृत कौन तार से बीनी चदरिया, महेंद्र भीष्म कृत त्रासदी, ललित शर्मा कृत रतियावन की चेली, लवलेश दत्त कृत नेग, गरिमा संजय दुबे कृत पन्ना बा, श्रीकृष्ण सैनी कृत हिजड़ा, विजेंद्र प्रताप सिंह कृत संकल्प, चांद दीपिका कृत खुश रहो क्लीनिक, पूनम पाठक कृत किन्नर और पारस दासोत कृत गलती जो माफ नहीं, कहानियाँ संकलित हैं। सभी कहानियाँ किन्नर पात्रों के जीवन की विसंगतियों को उजागर करते हैं। ये कहानियाँ किन्नर पात्रों के माध्यम से उस सामाजिक यथार्थ को अनावृत्त करते हैं जो घोर अमानवीय और उत्पीड़क हैं। कमोबेश हर किन्नर पात्र की अंतर्वेदना उसके अभिशप्त जन्म की व्यथा व्यक्त करता है, लैंगिक दोष युक्त जन्म के लिए उन्हें क्यों ज़िम्मेदार ठहराया जाता है? मान मर्यादा के नाम पर माता-पिता ऐसे शिशुओं को त्याग देने को क्यों मजबूर हो जाते हैं? इन कहानियों से स्पष्ट हो जाता है कि किन्नरों का भी एक पृथक रूढ़िवादी समाज अस्तित्व में है जो स्त्री-पुरुषों से भिन्न दैहिकता में क़ैद हो गये हैं। किन्नर समाज अपने समुदाय को संगठित करके रखने का हर संभव प्रयास करता है। जिन परिवारों में ऐसे लैंगिक दोष के साथ शिशुओं का जन्म होता है, किन्नर समुदाय उन शिशुओं को हथियाकर अपने समाज में शामिल कर, उनका पालन-पोषण किन्नर परंपरा में करता है और उन्हें किन्नरों के प्रचलित पेशों को अपनाने के लिए विवश करता है। संकलित कहानियों की अंतर्वस्तुओं में विविधता है और परिवेश की भिन्नता है। इन कहानियों की भाषा-शैली विशिष्ट और परिवेशजनित है। कहानियों में स्थानीयता और आँचलिकता का भी पुट उल्लेखनीय है। किन्नर व्यक्तियों का चरित्र भी उज्ज्वल और उच्च कोटि के मानवीय मूल्यों को दर्शाता है, जिसकी दुहाई तथाकथित सभ्य समाज देता है। परोपकार सेवा और त्याग की भावना किन्नरों में भी वैसी ही होती है जैसी कि सामान्य व्यक्तियों में। इसके अनेक उदाहरण प्रस्तुत संकलन की कहानियों में दिखाई देते हैं। अपने मानवीय अधिकारों को हासिल करने के लिए यह समुदाय आँदोलन पर भी उतर आता है, समाज का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए किन्नर समुदाय सड़कों पर भी उतर आता है। सलाम बिन रज़ाक कृत कहानी ‘बीच के लोग‘ में सड़क पर हिजड़ों का जुलूस निकलता है। ऐसा विचित्र जुलूस कभी किसी ने नहीं देखा था। इसे देखने के लिए दर्शकों का मेला लग गया। जुलूस के आगे-आगे एक लंबे क़द का हिजड़ा एक लंबा सा बांस उठाये चल रहा था। बांस पर काले रंग का रेशमी दुपट्टा बँधा था, जो हवा में झंडे की तरह फहरा रहा था। दुपट्टे में सलमा सितारे टंके धूप में जगर-मगर कर रहे थे। उसके पीछे चलने वाले हिजड़े तीन-तीन की कतार में चल रहे थे। वे वेशभूषा से पहली दृष्टि में स्पार्टा के सिपाही लगते थे। बिना आस्तीनों के जैकेट, पैरों में कागज़ के कृत्रिम जूते, कमर में काठ की एक-एक तलवार ओर हाथों में चूड़ियाँ, बहुतों की छोटा-छोटी चोटियाँ कंधों पर दायें-बायें झूल रहीं थीं। उनके हाथों में जो बैनर लटक रहे थे उन पर विभिन्न प्रकार के नारे लिखे थे –
“सारी दुनिया के हिजड़े एक हैं, कल संसार हिजड़ों का होगा!
हम से जो टकरायेगा, हम जैसा हो जायेगा! हमारी माँगें पूरी करो।”
प्रशासन के लिए हिजड़ों के इस जुलूस को नियंत्रित करना कठिन हो जाता है। ऐसा जुलूस कभी किसी ने नहीं देखा था। इनसे बातचीत करने के लिए पत्रकार आ पहुँचते हैं। उनसे पूछा जाता है कि वे लोग लेफ़्टिस्ट हैं या राइटिस्ट । वे चतुराई से भरा व्यंग्यात्मक जवाब देते हैं, “न लेफ्टिस्ट न राइटिस्ट, हम तो बीच के लोग हैं।“
सचमुच वे बीच के लोग ही थे, क्योंकि वे पुरुष नहीं थे और न ही स्त्री थे, इसलिए वास्तव में वे इन दोनों के बीच के लोग ही तो थे। समाज पर यह एक करारा तमाचा है जिसे लेखक ने व्यंजना में व्यक्त किया है। इन लिंगविहीन ‘बीच के लोगों’ की सामाजिक स्थिति अपरिभाषित रह गई है। कहानी के चरम पर एक और मुश्किल खड़ी हो जाती है। जुलूस रोकने के लिए पुलिस को जब निर्देश दिया जाता है तो सिपाही लोग हिजड़ों पर कार्यवाही करने से पीछे हट जाते हैं। उच्च-अधिकारियों को आभास होता है कि इस संवेदनशील मामले में सिपाहियों पर दबाव नहीं डाला जा सकता। ऐसी स्थिति में लेडीज़ फ़ोर्स को बुलवाया जाता है। फिर से नारे बुलंद होने लगते हैं – “हमसे जो टकरायेगा, हम जैसा हो जायेगा।“ यह स्थिति पूरे परिदृश्य को हास्यास्पद बना देती है। जब महिला सिपाहियों की नज़र उन लहकते-मटकते हिजड़ों पर पड़ी तो तमाम महिला सिपाही उलटे क़दमों से लौटकर पुनः गाड़ियों में जाकर बैठ गयीं। इंचार्ज लेडी इंस्पेक्टर ने एस पी से जाकर कहा कि महिला पुलिस इन हिजड़ों पर हाथ डालने से इनकार कर रही हैं, वे केवल महिलाओं से ही निपट सकती हैं।
इस स्थिति में एस पी के मुख से यह वाक्य निकल जाता है, “मगर-मगर स्त्रियों और हिजड़ों में क्या अंतर है।”
एस पी ने कहने को तो यह वाक्य कह दिया, मगर तुरंत उसे आभास हो गया कि उसकी ज़बान से एक बेहद ग़लत बात निकल गयी है। लेडी इन्स्पेक्टर ने बुरा सा मुँह बनाया और जवाब दिया – “ऐसा न कहिए, सर! यों देखा जाये तो पुरुषों और हिजड़ों में भी कोई विशेष अंतर नहीं होता। फिर पुरुष सिपाहियों ने उन्हें गिरफ़्तार करने से इंकार क्यों कर दिया?“ कहानी में उक्त प्रसंग कई सवाल उठाता है। ‘हिजड़ा‘ का प्रयोग अक्सर डरपोक अथवा निकम्मे के व्यंग्यार्थ में अपशब्द के रूप में किया जाता है। पुरुषवादी मानसिकता सदैव स्त्रियों को अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ती। एस पी महिला सिपाहियों की तुलना हिजड़ों से कर देता है। बदले में लेडी इंस्पेक्टर का मुँह तोड़ जवाब ग़ौरतलब है। हिजड़ों का जुलूस सारे प्रशासन को हिलाकर रख देता है। कहानी का अंत बहुत करुण और मार्मिक होता है। जुलूस को नियंत्रित करने के सारे वैधानिक उपायों के ख़त्म हो जाने पर निहत्थे आँदोलनकारी हिजड़ों के जुलूस पर गोलियाँ चला दी जाती हैं। लेखक ने किन्नरों की असहायता और उनके मानवीय अधिकारों के हनन की एक जीती जागती तस्वीर प्रस्तुत की है। वे जब अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं तो सरे-आम उनकी हँसी उड़ाई जाती है, वे तमाशा बन जाते हैं और सारा सभ्य समाज तमाशबीन बनकर उनके अस्तित्व को ही नकार देता है।
एस आर हरनोट की ‘किन्नर‘ कहानी में हिमाचल के जनजातीय जिला किन्नौर के निवासियों के लिए प्रयुक्त ‘किन्नर और किन्नौरा‘ शब्द और हिजड़ा समुदाय के लिये प्रयुक्त ‘किन्नर‘ शब्द से उपजी ग़लतफ़हमी को दूर करने का प्रयास किया गया है। जब से किन्नर शब्द का प्रयोग ‘हिजड़ा समुदाय ‘ के लिये होने लगा है, किन्नर जनजाति के लिये अस्मिता का घोर संकट उत्पन्न हुआ है। इस असंगति के बावजूद किन्नर शब्द हिजड़ा समुदाय के लिए ही रूढ़ हो गया है। कहानी में बेलीराम, किन्नर प्रदेश का निवासी होने के करण अपने नाम के साथ ‘किन्नर‘ स्थानसूचक शब्द का प्रयोग करता था। वह राजनीति में सक्रिय था। बेलीराम किन्नर के नाम से जब वह राजनीतीक गलियारों में प्रसिद्ध होने लगा तो अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ हर तरफ़ फैलने लगीं। किन्नर समुदाय के लोग उसे अपने ही हिजड़ा समुदाय का मानने लगे । किन्नरों ने समझा कि एक नेता उन्हीं के बीच से पैदा हो गया है। किंतु बेलीराम इस भ्रमजाल से अलग था। उसे अपने किन्नर प्रदेश के विकास की चिंता थी और वह उसी दिशा में सक्रिय था। वह किन्नौर की सुनम नामक एक लड़की से प्रेम करने लगता है। जब जब वह किन्नर प्रदेश की समस्यों के लिये आवाज़ उठाता है तो राजनीतिक दलों के नेता उसे हिजड़ों के हितों के संघर्षरत मान लेते हैं। इस कारण उसकी ख़ूब फ़ज़ीहत होती है । विधान सभा में किन्नरों की समस्या पर सार्थक बहस के कोई तैयार नहीं होता। अंत में उसका भ्रम भंग होता है और वह अकेला पड़ जाता है। उसका साथ उसकी प्रेमिका सुनम ही देती है। यह कहानी किन्नर समुदाय और किन्नौर प्रदेश के अर्थ में उत्पन्न भ्रांति को परिस्थितिजन्य दोहरेपन के माध्यम से दूर करने का प्रयास करती है। यह कहानी हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जनपद के सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में रची गयी है। वहाँ के सांस्कृतिक त्यौहार ‘तोशिम किम‘ का वर्णन इस कहानी की प्रमुख विशेषता है। ‘तोशिम किम‘ किन्नौर का एक पारंपरिक सांस्कृतिक त्यौहार है जिसे सर्दियों के दिनों में मनाया जाता है। युवक-युवतियाँ अकेले घर को चुनकर साथ रहने की परंपरा इस त्यौहार की विशेषता है। इसे स्नेह और आगर का प्रतीक माना जाता है।
किरण सिंह कृत ‘संझा‘ ग्रामीण परिवेश की कहानी है। ठेठ देहाती भाषा में क़िस्सागोयी इसकी विशेषता है। रहमान खेड़ा गाँव के वैद के घर आठ बरस बाद एक बेटी का जन्म होता है। वैद-वैदाइन उसका नाम ‘संझा‘ रखते हैं। गाँव की स्त्रियाँ बैदाइन की बेटी को गोद में लेकर प्यार जताना चाहते हैं। लेकिन बैद और बैदायिन संझा को घर के भीतर ही रखकर रहस्यमय ढंग से पालते हैं। इस कहानी में अनेक अंतर्कथाएँ साथ-साथ चलती हैं। बैद जंगली जड़ी बूटियों से अपने गाँव के साथ आसपास के गाँवों के रोगग्रस्त लोगों का इलाज करता है। कुछ ही दिनों में बैद-बैदाइन को संझा के लिंग दोष का पता चलता है। वे बच्ची को घर में ही छिपाकर रखते हे और उसका पालन बहुत लाड़ प्यार से करते हैं। दुर्भाग्य से बैदाइन की असमय मृत्यु हो जाती है। बैद अकेले ही नन्हीं संझा को बाहरी लोगों की आँखों से छिपाकर नाना उपायों से पालना शुरू करता है। बिटिया की किन्नर दशा को जानकर बैद अपना सर्वस्व दाँव पर लगाकर उसे पालता है। उम्र के साथ संझा को अपनी शारीरिक भिन्नता का अहसास होने लगता है। पिता उसे उसकी लैंगिक अवस्था से अवगत करा देता है। संझा एक ख़ूबसूरत लड़की के रूप में दिखाई देती है। उसकी सुंदरता दूर दूर तक चर्चा का विषय बन जाती है। बैद जी संझा का विवाह चौगाँव के विलासी ललिता महराज के पुत्र कनाई से कर देता है। विवाह की रात संझा को पति कनाई के नपुंसक होने का पता चलता है। कनाई स्वयं अपनी स्थिति से उसे अवगत करा देता है। संझा अपनी किन्नर दशा को छिपाकर कनाई के संग जीवन बिताती है। दोनों अपने खेत की साथ-साथ रखवाली करते, दोनों का रहस्य गाँव वालों से छिपा ही रहता है। संझा ने अपने बैद पिता से जड़ीबूटी से चिकित्सा का हुनर सीख लिया था। आसपास के गाँवों में उसे लोगों के प्राणों की रक्षा करने वाली देवी के रूप में पहचान मिल रही थी।
नाटकीय परिस्थियों में ‘बसुकि‘ नामक गर्भवती लड़की जो संझा से अपना इलाज कराती रहती है, वह कनाई पर बलात्कार का आरोप लगाकर हल्ला मचाती है। कनाई स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए अपनी नपुसंकता की असलियत ज़ाहिर कर देता है। दूसरी ओर संझा से जब बलत्कार करने के लिए हमला होता है तो उसके किन्नर होने का रहस्य जग ज़ाहिर हो जाता है। गाँव वाले संझा के ख़ून के प्यासे हो जाते हैं। बूढ़े बैद जी अपनी प्राणों से प्यारी बेटी की रक्षा के लिए दौड़ पड़ते हैं। संझा क्रोधी गाँव वालों का सामना करती है। वह गाँव वालों को चुनौती देती है कि जो उसके अभिशप्त जन्म से प्राप्त किन्नर अवस्था के लिए उसे दंडित करना चाहते हैं, उन सारे गाँव वालों के अवैध संबंधों को छिपाने के लिए जो दवा-दारू उसने की थी, यदि वह सब उगल दे तो गाँव में कोई जीने लायक़ नहीं रह जायेगा। यह कहानी उस किन्नर लड़की की कहानी है जो समाज में बने रहने के लिए, किन्नर समुदाय द्वारा अपहरित होने से बचते हुए, पिता की सहायता से अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व स्थापित करती है। विवाह का ख़तरा मोल लेती है किंतु भाग्य वहाँ भी उसका साथ देता है। उसका पति नपुसंक निकलता है तो उसकी समस्या सुलझ जाती है । लेकिन अंत में उसे भी गाँव वालों का सामना करना पड़ता है। वह अपने अस्तित्व की रक्षा का ख़ुद कर लेती है। किन्नर संतान के जुझारू पिता का त्याग और संघर्ष कहानी का कथ्य है। यह एक प्रयोगधर्मी कहानी है।
‘खुश रहो क्लीनिक’ चांद दीपिका की एक रोचक कहानी है। डॉ. ऋषि नामक एक सर्जन स्पेशलिस्ट शहर से कुछ किलोमीटर दूर एक उपेक्षित बस्ती में ग़रीब और वंचित तबके के लोगों की सेवा करने के लिए अपना छोटा सा क्लीनिक खोलता है। इस बस्ती में मज़दूर थे तथा अधिकांश भिखारी, चोर, आवारा, लफंगे भी थे। कुछ सेवाभावी लोग उसकी मदद करते हैं और वह लोगों की चिकित्सा करता। उस डॉक्टर ने अपनी क्लीनिक का नाम ‘खुसरो क्लीनिक‘ रखा था पर बोर्ड बनाने वाले पेंटर को क्लीनिक का नाम जैसे भाया नहीं उसने भी अपनी मनमर्जी से ‘खुसरो‘ पर कूची फिरा ‘खुश रहो क्लीनिक‘ लिख दिया। क्लीनिक का नाम बदल गया परंतु डॉक्टर ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। इसका प्रतीकार्थ यही निकला कि ‘जो मिला उसी में ख़ुश रहो, रोने-धोने से कुछ भी बदलने वाला नहीं है।‘ अल्प मात्र दवाइयाँ नाममात्र फ़ीस, डॉक्टर के हाथ में जैसे जादू की छड़ी थी। हताश-निराश रोता आया और स्वस्थ सानंद लौट गया। ‘खुसरो क्लीनिक‘ नाम पढ़ने की सुध-बुध किसी को नहीं होती थी। डॉक्टर पैसे छूता नहीं था। लोग स्वेच्छा से यथायोग्य से भी बढ़कर पेटी में डाल जाते। कंपाउडर, सफ़ाई कर्मचारी बस्ती वाले स्वयं थे। निर्धन-भिखारी चोर-लफंगे आवारा सभी को डॉक्टर के आने पर काम मिल गया था। सभी को मेहनत की रोटी मिलने लगी थी। डॉक्टर ने सभी की रोज़ी-रोटी का प्रबंध परोक्ष-अपरोक्ष रूप से कर दिया था। डॉक्टर आयुर्वेद, यूनानी, अँग्रेज़ी सभी दवाइयाँ जानता था। उसकी दुकान के पीछे लोग दवाइयाँ पीसते रहते। महँगी दवाइयाँ वह स्वयं बनाता था। रात को कुछ समय बचता तो मोटी-मोटी पुस्तकों को पढ़ते-पढ़ते उसी का सिरहाना बनाकर सो जाता। उसका शोध को मन करता पर दिन के चौबीस घंटे जैसे छोटे पड़ जाते। रोग, निदान-उपचार उसका पीछा न छोड़ते। पूरे दस वर्षों के कठोर अनथक परिश्रम पश्चात डॉक्टर को फ़ुरसत के क्षण नसीब हुए थे। अपने आप से मिलने का सुअवसर सहज हाथ में आया था। इस बिंदु से कहानी फ़्लैश बैक शैली में उद्घाटित होती है। कथानायक डॉक्टर ऋषि अपने बीते जीवन के हर पल को याद करता है, पुनरावलोकन करता है। उसका जन्म किन्नर रूप में हुआ था। उसके माता-पिता उसे शैशवावस्था में बधाई माँगने के लिए आये किन्नर समुदाय को देकर उससे मुक्त हो गये थे। जो किन्नर उसे पालता है वह एक दिन एक रिटायर्ड हेडमास्टर के पैरों पर गिरकर अपने इस किन्नर बच्चे को पढ़ाने के लिए मिन्नतें करता है। उस हेडमास्टर का दिल पसीज जाता है और वह उसे पढ़ाने के लिए तैयार हो जाता है। “मेरा तो बच्चा नहीं फिर भी यह मेरा बच्चा है। आप मेरे ऋषि को पढ़ा दीजिए।” उसका नामकरण उसी दिन पहली बार हुआ था। पिता का नाम पूछने पर ‘बाबा‘ ने कहा था “इसके पिता तो मुझे मालूम नहीं। किसी अपरिचित व्यक्ति के द्वारा इसे मेरे पास भिजवाया गया था।” बदले में हेड मास्टर ने कह दिया कि “कोई बात नहीं तुम ही इसके पिता हो।” किन्नर बालक को पढ़ाना अपने आप में दुष्कर समस्या थी। सरकार समाज कोई भी इस विषय में जागरूक नहीं था। हेडमास्टर सहृदय निकले। ऋषि की देखा-देखी तीन और बच्चे पढ़ने को तैयार हो गये। वक़्त के साथ योग्यता को सीढ़ी बना ऋषि डॉक्टर बन गया। पालक पिता ‘उस्ताद बाबा‘ का स्वर्गवास हो चुका था। बाबा की सेवा न कर पाने का उसे हार्दिक दुःख था। उनकी मृत्यु उसके लिए एक बड़ा सदमा था। आत्मग्लानि और आंतरिक पीड़ा को भुलाने के लिए वह दुनिया से दूर अँधेरे में डूबे निर्धन बस्ती में डेरा डाले बैठा था।
बीते दिनों में किन्नरों के बीच रहते हुए उसे अपनी माँ की बहुत याद थी। प्रतिदिन वह रात तकिये में मुँह रखकर सिसक-सिसक कर रोते निढाल हो सोया करता था। पिता ने उसे नासूर समझ काट फेंक दिया था पर माँ भी उसे याद करती होगी, ऐसे उसका अनुमान था। उसे फूट-फूट रोते देख बाबा बहुत रोये थे। रुंधे गले से एक दिन समझाते हुए बोले थे, “किन्नरों का समाज में कोई स्थान नहीं है मेरे बच्चे। संसार में स्त्री-पुरुष मात्र दो जातियाँ मान्य हैं। इनसे इतर को कोई नहीं पूछता। शुक्र करो कि किन्नरों के रहने के लिए डेरे हैं। लोग इन बच्चों को यहाँ भेज देते हैं। रो-धोकर यही बच्चे इसी को अपनी छत मान सबर कर लेते हैं। स्त्री-पुरुष का अपना मन चाहा वेश धारण कर समाज में विचरते हैं।“ बाबा ने भी अपनी कहानी उसे सुनाई। बाबा जन्म से किन्नर नहीं थे, उन्हें किन्नरों ने बचपन में पकड़कर ज़बर्दस्ती हिजड़ा बना दिया और उसके माँ-पिता से छीनकर अपनी टोली में शामिल कर लिया था।
अपने किन्नर होने का पता चलते ही ऋषि ने ईश्वर को जमकर कोसा था, जी भर कर गालियाँ दीं थीं। पर उसके अभिशप्त जीन का उद्धार करने के लिए उसे किन्नरों के बीच उसकी रक्षा का लिए के लिये किन्नर डेरे के गुरु ‘बाबा‘ उसके संरक्षक के रूप में मिल गये। बाबा भले ही शुष्क और कठोर थे पर उनका हृदय मोम का था। डेरे वालों के दुःख में झट पिघल जाते। उन्होंने उस पर अपना समस्त प्रेम उड़ेल कर ही रख दिया था। बाबा से साथ उन तमाम लोगों ने उसकी पढ़ाई के लिए सूखी रोटी खाकर गुज़ारा किया था। तब वह मन ही मन सोचा करता ‘बाबा एक बार सिर्फ़ एक बार कुछ बन जाने दो। मैं तुम्हें सोने से तौल दूँगा। किन्नर समाज के दिन बदल दूँगा।’ उसके लिए सब कुछ था पर बाबा नहीं थे। सड़क दुर्घटना में उनकी जान चली गई। डेरे वालों के द्वारा दुर्घटना की सूचना उसे पहुँचाने नहीं दी ताकि उसकी डॉक्टरी की परीक्षा पर असर न पड़े। परीक्षा जिस दिन समाप्त हुई उस दिन साँझ उनका देहांत हो गया। बाबा अक्सर कहा करते थे ‘एक बार डॉक्टर बनकर आ डेरे को ही क्लीनिक बना दूँगा।’ ऋषि को पुरानी यादें विचलित कर जाती हैं। वह वीतरागी मानसिकता में निरुद्देश्य भटकते हुए अनाम बस्ती में सुस्ताने को जो टिका तो वहीं का होकर रह गया। बस्ती की क्लीनिक की आमदनी का बड़ा हिस्सा डेरे में भेज देता था।
एक दिन उसके क्लीनिक में एक बुज़ुर्ग दंपति इलाज के लिए आते हैं। पत्नी बीस वर्षों से बीमार चली आ रही थी। परीक्षण से पता चलता है कि उस स्त्री को कोई शारीरिक बीमारी नहीं थी। उसे कोई मानसिक क्लेश पीड़ित कर रहा था। इलाज करने के लिए डॉक्टर सच्चाई जानना चाहता था। आख़िर उसने बताया कि वह बीस वर्षों से अपने खोये हुये बेटे के लिए तड़प रही थी। पति के अनुसार उनका बेटा किसी हादसे का शिकार हो गया था। पत्नी, पति की इस बात को स्वीकार नहीं करती, इसीलिए वह अवसाद का शिकार हो जाती है।
इलाज के दौरान डॉक्टर ऋषि को उस स्त्री के प्रति अतिरिक्त संवेदना जागती है, उस स्त्री में उसे अपनी खोयी हुई ममता का आभास होता है। धीरे-धीरे उस स्त्री का मुख परिचित सा लगता है। वह पहचान जाता है कि वे दोनों ही उसके माता-पिता थे। उसके इलाज से वह स्त्री ठीक हो जाती है। पति ख़ुश होकर डॉक्टर को नोटों की गड्डी थमा देता है। जाते समय डॉक्टर की दृष्टि अनायास ही स्त्री की दृष्टि से जा मिलती है, उसकी आँखों में आश्चर्य मिश्रित हल्की प्रसन्नता झलकती है। उसे उसका बचपन याद आ जाता है। “जाते-जाते माँ मुस्कुरायी थी कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कह गई थी। बचपन वाली सहमी-सहमी पति के हाथों अपमानित बेदर्दी से पिटने वाली दब्बू माँ कितनी बदल चुकी थी।”
वह एक पत्र उस स्त्री के नाम लिखता है, “माँ, चरणवंदना। तुमने मुझे लगभग पहचान ही लिया होगा। पहचान तो मैं गया था, मैं ही तुम्हारा राजा बाबू हूँ। हम एक दूसरे को भूले नहीं यही हमारे लिए पर्याप्त है। इस जन्म में हमारा मिलना असंभव है। हम अवश्य मिलेंगे इस जन्म में नहीं अगले जन्म में मिलेंगे फिर कभी अलग न होने के लिए। आपका बेटा।”
पत्र को नोटों वाले लिफ़ाफ़े में बंद कर उस लिफ़ाफ़े को उस पेशेंट के पते पर पहुँचा देने के लिए नोट लिखकर, क्लीनिक सहायक को सौंपकर अपनी पुरानी मोटी-मोटी किताबें, पुरानी-सा अटैची, बड़ा सा बैग लेकर काली अँधेरी रात में बस्ती छोड़ कर अनजान राहों पर चल पड़ता है। शायद यही उसकी नियति थी। कहानी में नाटकीय मोड़ अधिक हैं, फिर भी रोचकता बनी रहती है। माता-पिता द्वारा परित्यक्त किन्नर बच्चे को समाज से बहिष्कृत एक उदारमना किन्नर अनेक मुसीबतों को उठाकर, इस बच्चे को पढ़ाने के लिए सभ्य समाज से सहायता की भीख माँगता है। हिजड़ों की संवेदनशीलता और आत्मत्याग के गुणों को यह कहानी प्रभावशाली ढंग से दर्शाती है।
रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आम लोगों का सामना देर-सबेर हिजड़ों से होता ही रहता है। ख़ासकर महानगरों में आये दिन सड़कों पर, बसों में या घरों में नेग वसूलने के लिए आने वाले हिजड़ों से। यह आम धारणा है कि किन्नर हमेशा लोगों को आतंकित कर पैसा वसूल करते हैं, यही इनका पेशा है। लेकिन यह सच नहीं है। ये लोग भी मसीहा बनकर लोगों की जान बचाते हैं और गाढ़े वक़्त में काम आते हैं। पूनम पाठक की कहानी ‘किन्नर‘ इसी कथ्य पर आधारित एक लघु कथा है। महानगर की भीड़ भरी बस यात्रा करते समय, मानसी एक हिजड़े की बगल वाली ख़ाली सीट पर संकोचवश नहीं बैठती है और भीड़ के बीच खड़ी रहकर ही यात्रा करती है। मनचले लड़के लड़कियों पर फब्तियाँ कसते, जानबूझकर टकराकर चलने जैसे दुर्व्यवहार करते रहते हैं। एक मानसी के साथ ऐसी ही घटना घटित होती है। मानसी जब प्रतिरोध करती है तो उसकी बाँह पकड़कर खींचना चाहता है। ठीक उसी क्षण उस लड़के का हाथ पकड़कर उसके गाल पर कोई झन्नाटेदार थप्पड़ मारता है। मानसी की नज़रें आश्चर्य से भर जाती हैं। वह सीट पर बैठा वही किन्नर था, जिसके पास बैठने में मानसी को झिझक हो रही थी। तभी भीड़ में से किसी की आवाज़ आती है, ‘अरे ये तो हिजड़ा है।‘ इस अप्रत्याशित घटना से अवाक् खड़ी मानसी में न जाने कहाँ से इतनी ताक़त आयी, किन्नर का हाथ पकड़कर बोली ”हिजड़ा ये नहीं बल्कि आप सभी हो, जो अभी तक सारा तमाशा देख रहे थे, किसी हिंदी फिल्म की तरह, पर मदद के लिए एक भी हाथ आगे नहीं आया।” धीरे धीरे भीड़ छँटने लगी थी। बस अपने गंतव्य को चल दी। मानसी ने उस देवदूत लग रहे किन्नर को नम आँखों से धन्यवाद कहा। यह छोटी सी सरल कहानी है परंतु अर्थगर्भित और प्रासंगिक है। कथा लेखिका ने सिद्ध किया है कि किन्नरों में मानवता के प्रति अन्यजनों के ही समान आस्था होती है, स्त्रियों के प्रति होने वाले अत्याचारों के प्रति उनकी सजगता, इस कहानी में किन्नर पात्र के द्वारा लड़की की रक्षा के दिखाई गई साहसपूर्ण तत्परता इसका प्रमाण है।
पद्मा शर्मा कृत ‘इज्जत के रहबर’ हिजड़ों की पृष्ठभूमि आधारित ऐसी कहानी है जिसके द्वारा हिजड़ों के त्रासद जीवन पर प्रकाश डाला है। उनके अंतरग जीवन के अँधेरे कोनों को उद्धाटित किया है। किन्नरों की हिम्मत और उनकी दिलेरी को प्रदर्शित किया है। समाज में स्त्रियों के प्रति होने वाले अपराध और अत्याचार के विरुद्ध किन्नर खड़े होने की हिम्मत रखते हैं। कहानी में क़स्बे के मुहल्ले में सोफिया के नेतृत्व में हिजड़ों का समूह रहता है। अपने समाज की परंपरा के अनुकूल उनकी जीवन शैली है। ‘बल्लू‘ एक अनाथ किशोर पात्र है जो उनके बीच पला-बढ़ा है। लेखक ने उसी की दृष्टि से किन्नरों के जीवन के विभिन्न पहुलुओं को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। किन्नरों की नशे की लत, अश्लीलता भरी जीवन शैली और उनकी अतृप्त वासना का चित्रण इस कहानी की अंतर्वस्तु का केंद्र बिंदु है। कहानी का आरंभ जिस श्रीलाल के भाई के विवाह के बाद सोफिया के नेतृत्व में नेग लेने आयी हिजड़ों की टोली से होता है उन्हीं श्रीलाल की बेटी का स्थानीय गुंडे बलात्कार कर देते हैं। सेफिया और उसके साथियों को इस बात का पता चल जाता है। वास्तव में बल्लू उस घटना का अप्रत्यक्ष गवाह था। सोफिया के नेतृत्व सें हिजड़े श्रीलाल के पास जाकर इस घटना की रिपोर्ट लिखवाने का अनुरोध करते हैं। श्रीलाल मान-मर्यादा के भय से चुप्पी साध लेने में ही भलाई समझते हैं। तब सोफिया के नेतृत्व में हिजड़ों का समूह गुंडे को पकड़कर उसको नपुंसक बनाकर उसके जघन्य अपराध की सज़ा देता है। हिजड़ों में अन्याय और अत्याचार का मुक़ाबला करने की शक्ति का परिचायक है यह कहानी।
महेंद्र भीष्म की कहानी ‘त्रासदी‘ समाज में हिजड़ों की हीन स्थिति की कहानी है। इनके प्रति समाज की कभी न ख़त्म होने वाली हिक़ारत और नफ़रत को यह कहानी प्रस्तुत करती है। एक बेटा अपनी माँ की दोस्ती उसकी परम हितैषी हिजड़ा स्त्री से बर्दाश्त नहीं कर सकता। कहानी का आरम्भ स्त्री की त्रासदी से ही होता है। असहाय स्त्री और हिजड़ा दोनों का जीवन भारतीय समाज में समान उपेक्षा, तिरस्कार और अत्याचार का शिकार होता है। रति और वंशी का सुखमय दांपत्य जीवन उस समय धवस्त हो जाता है जब पति वंशी की दुर्घटना में अकस्मात मृत्यु हो जाती है। रूपवती विधवा रति पर समाज के वहशी कामुक दरिंदों की नज़र पड़ती है। दो युवक बलात्कार के लिए उसे घसीटकर रेल के ख़ाली कोच में ले जाते हैं। ‘सुंदरी‘ नामक हिजड़ा उसे बचाने आ जाती है। वह उसे बचा भी लेती है परंतु बलात्कारी के चाकुओं के वार उसके चेहरे को बिगाड़ देते हैं। इससे उसकी आमदनी का एक मात्र ज़रिया, नाच-गाना, ख़त्म हो जाता है। वह भीख माँगकर अपना गुज़ारा करने लगती है। ऐसे में रति उसे मानसिक रूप से सहारा देती है। इस हादसे के बाद सुंदरी और रति में गहरी दोस्ती हो जाती है। उन दोनों की दोस्ती रति का बेटे को फूटी आँख नहीं सुहाती। सुंदरी से दोस्ती के कारण उसे अपनी माँ चरित्रहीन लगती है, जब कि वह स्वयं चरित्रभ्रष्ट युवक था। एक दिन जब सुंदरी रति से रेल स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर बात कर रही होती है तो वह इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता और वह सुंदरी को उठाकर रेल की पटरी पर फेंक देता है। रेल सुंदरी को कुचलकर निकल जाती है। उस युवक के आक्रोश का कारण सुंदरी का हिजड़ा होना ही था। रति का युवा पुत्र समाज की उस घृणित मानसिकता को दर्शाता है जो एक त्रासदी के रूप में विद्यमान है।
श्रीकृष्ण सैनी कृत ‘हिजड़ा‘ में एक किन्नर के द्वारा अपनी मृत मित्र परिवार से बेदख़ल कर दिये गए लड़के को पाल-पोस कर जीवन देती है। यह एक हिजड़े के त्याग और परोपकार की मार्मिक कहानी है। राघव और निर्मला उर्फ़ निम्मी दंपति की मृत्यु एक सड़क दुर्घटना में हो जाती है। इनका तीन-चार साल का बेटा सुनील माता-पिता की मृत्यु से बेख़बर रजिया बेगम की गोद में बेचैन बैठा है। उसे इस बात का अहसास नहीं है कि वह अचानक लावारिस हो गया है। रजिया और निम्मो में बहुत प्यार था। भले ही रजिया एक हिजड़ा थी किंतु वह भी एक संवेदनशील इंसान थी। निम्मो के सादेपन व सरल स्वभाव को देखकर रजिया उसकी मुरीद हो गई थी। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के घटित होते ही सारे परिजन रजिया के हिक़ारत भरी नज़रों से देखने लगे। रजिया और निम्मो का रिश्ता काफ़ी पुराना था जो सगी बहनों जैसा बन चुका था। राघव के कोई भाई-बहन नहीं थे, शेष परिजन राघव की बची-खुची संपत्ति को हथियाकर चले जाते हैं। बालक सुनील बेसहारा रह जाता है। रजिया उस परिवार की स्थितियों से अवगत थी, वह सुनील को अपने साथ रखने का निर्णय सुनाकर उसे अपने साथ लेकर चली जाती है। उसके हिजड़ेपन के लेकर लोग आपत्ति करते हैं लेकिन रजिया का दृढ़ संकल्प के सामने सब सहम गये थे।फिर भी उसका विरोध दबे स्वर में जारी रहता है। सभी जानते थे कि हिजड़ों को समाज में कोई इज़्ज़त से नहीं देखता भले ही उसमें इंसानियत हो या न हो।
कुछ दिनों बाद रजिया सुनील को लेकर एक स्कूल में दाख़िल करवाने पहुँची तो समस्या हुई उसके माँ-बाप के नाम की। स्कूल वाले उसे अनाथ के बच्चे के रूप में दाख़िल करने को तैयार थे। पहले तो रज़िया अभिभावक के तौर पर रजिस्टर में अपने नाम लिखवाना चाहा लेकिन न जाने क्या सोचकर क़दम पीछे हटा लिया। उसे भारी मन से अनाथ बच्चा लिखवाकर रज़िया ज़हर का घूँट पी कर रह गई। उसने हेडमास्टर को यह ताक़ीद की कि किसी भी हालत में सुनील को यह पता नहीं चलना चाहिए कि उसकी पढ़ाई का ख़र्च रजिया उठा रही है। हेडमास्टर ने रजिया की यह बात मान ली। रजिया मे सुनील को हॉस्टल में दाख़िल करवा दिया। सुनील ने अपनी मेहनत से पढ़ाई में ऊँचा मुक़ाम हासिल किया। एम.ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर वन विभाग में उच्च अधिकारी बन गया। वह हमेशा उस गुमनाम हितैषी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना चाहता था जिसने उसके जीवन के सँवारा था। उसने कई बार हेडमास्टर साहब से इस बारे में जानना चाहा तो वे उसे टाल गए।
एक बार सुनील अपने एक मातहत के घर पर किसी शादी के जश्न में शामिल होने के लिए जाता है। वहाँ हिजड़ों का जमावड़ा बधाई का नेग माँगने पहुँचता है। हिजड़ों और शादी के घरवालों के बीच नेग की राशि को लेकर झड़प होने लगती है। हिजड़ों की माँग पूरा करने में वह लोग असमर्थ लग रहे थे। हिजड़े उस परिवार का जमकर अपमान करते हैं। हिजड़ों के इस रवैये के देखकर सुनील को हिजड़ों से नफ़रत हो जाती है। कुछ दिनों बाद सुनील की शादी होती है। हेडमास्टर साहब हर किसी को सुनील को अपनो बड़े बेटे के रूप में परिचय कराते हैं। शादी को दो दिनों बाद परंपरा अनुसार हिजड़े नाचने के लिए आ पहुँचते हैं। उनकी माँग के अनुसार नेग न मिलने से हिजड़ों का समुदाय नाराज़ होकर झगड़े पर उतर आते हैं। हालात बिगड़ जाते हैं। नए हिजड़े बहुत ही उग्र हो उठते हैं। सुनील के मन में पहले से हिजड़ों की छवि धूमिल बनी हुई थी। उसके दिल-दिमाग़ में ग़ुस्सा छा चुका था। क्रोध में आकर हिजड़ों के समूह को वह अपमानित करता है और उन्हें जल्लाद कहता है। तभी एक ज़ोरदार तमाचा सुनील के गाल पर पड़ता है, जिसे जड़ने वाले और कोई नहीं, हेडमास्टर ही थे।
“अरे डूब कर मर जाओ...। आज तुम्हें बेटा कहते हुए शर्म आ रही है...। तुम हमेशा पूछा करते थे कि तुम्हारी फ़ीस, कपड़े वग़ैरह पर कौन ख़र्च कर रहा है... अरे जान जाओगे तो यह अकड़ी हुई गर्दन ज़िंदगी में कभी नहीं उठेगी। तुम्हें पालने वाली रजिया थी जो ख़ुद एक हिजड़ा थी।“
“अरे यह जान जिसके बल पर तुम अकड़ रहे हो, यह एक देवता स्वरूप हिजड़े की ही बख्शी हुई है तुम्हें। याद है तुम्हें इस सभ्य दुनिया के लोग बुरी तरह घायल करके सूनसान इलाक़े में फेंक गए थे। अगर यह देवता तुम्हें ख़ून नहीं देती तो आज तुम यह दिन देखने के लिए ज़िंदा नहीं होते।”
यह सुनते ही सुनील फूटफूटकर रो पड़ा। तभी किसी कोने से रजिया की आवाज़ सुनाई दी, वह किसी के कह रही थी “अरे छोड़ो मुझे, मैं नहीं जाऊँगी उसके पास।...। इतना बड़ा अफ़सर है मेरा बेटा और जब लोग यह जानेंगे कि मैंने उसे पाला है तो क्या कहेंगे लोग?”
लेकिन तभी सुनील जिसकी मन की आँखों ने रजिया के पहचान लिया था, भाग कर उसके पाँवों से लिपट गया। सब लोग उस अद्भुत मिलन के देखकर आँखे नम कर रहे थे। यह कहानी रवीदरनाथ टैगोर के उपन्यास ‘गोरा‘ और आचार्य चतुरसेन शास्त्री कृत ‘धर्मपुत्र‘ की याद दिलाता है। यह कहानी किन्नरों के उस मानवीय संवेदना की ओर इशारा करती है जो व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर एक उसी क्रूर समाज के प्रति सहृदयता प्रदर्शित करती है। किन्नरों में भी मानवता, प्रेम, ममता और सेवा का भाव सामान्य मनुष्यों की ही भाँति मौजूद रहता है।
इस तरह प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ किन्नर जीवन के मानवीय पक्ष के प्रभावशाली ढंग से प्रकाश में लाती हैं। किन्नरों के सामाजिक व्यवहार के प्रति समाज में व्याप्त नकारात्मक सोच को बदलने में इस संग्रह की कहानियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाएँगी। संग्रह की अधिकतर कहानियों की भाषा और शैली में आँचलिकता के चिह्न स्पष्ट दिखायी देते हैं। सभी कहानियाँ किन्नर समुदाय के सामाजिक अधिकारों के पक्ष में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। उन्हें तृतीय लिंग (थर्ड जेंडर) की स्थिति के स्थान पर अपने लिए पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग को चुनने के अधिकार की माँग पर विचार करने के लिए ये कहानियाँ बाध्य करती हैं। इन कहानियों में क़िस्सागोयी के साथ-साथ किन्नर विमर्श का चिंतन पक्ष प्रबल रूप में विद्यमान है।
डॉ. एम वेंकटेश्वर
हैदराबाद।
9849048156
mannar.venkateshwar9@gmail।com
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