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मुड़-मुड़के देखता हूँ... ... और राजेन्द्र यादव

हिंदी साहित्य के आधुनिक युग में अन्य गद्य विधाओं के साथ आत्मकथा एवं जीवनी लेखन का प्रारम्भ हुआ। ऐतिहासिक दृष्टि से हिंदी की प्रथम आत्मकथा बनारसीदास कृत 'अर्धकथानक' मानी गई है। बनारसीदास का 'अर्धकथानक' एक अद्वितीय और अनोखी रचना है। यह हिंदी में लिखी हुई पहली आत्मकथा मानी जाती है। बनारसीदास ने अपनी आत्मकथा समकालीन ब्रजभाषा में सन् 1641 में लिखी। उस समय वे पचपन वर्ष के थे। जैन शास्त्रों के अनुसार मनुष्य का पूर्ण जीवन काल 110 वर्षों का होता है इसलिए बनारसीदास ने अपनी इस पचपन वर्षों की कहानी को 'अरध कथान' कहा है। परंतु यह उनकी पूर्ण कथा ही कही जा सकती है, क्योंकि 'अर्धकथानक' लिखने के दो तीन वर्षों बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। हिंदी साहित्य का मध्यकाल ब्रज, अवधी, राजस्थानी आदि भाषाओं में पद्य साहित्य का रचना काल था इसीलिए बनारसीदास ने अपनी इस आत्मकथा को दोहा-चौपाई शैली में पद्य में ही लिखा है। प्रकारांतर से मूल पाठ के साथ हिंदी गद्यानुवाद को जोड़कर इसे पुन: प्रकाशित किया गया। हिंदी में आत्मकथा साहित्य के लेखन की परंपरा का श्रीगणेश इसी से माना जाता है। कदाचित समस्त आधुनिक आर्यभाषा साहित्य में इससे पूर्व की कोई आत्मकथा नहीं है। आत्मचरित लिखने वालों में जिस निरपेक्ष और तटस्थ दृष्टि की आवश्यकता होती है, वह निश्चय ही बनारसीदास में थी। उन्होंने अपने सारे गुण-दोषों को सच्चाई के साथ व्यक्त किया है। आधुनिक हिंदी गद्य के विकास में आत्मकथा और जीवनी साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान है। हिंदी साहित्य में आत्मचरित बहुत कम लिखे गए हैं। आत्मचरित्र लिखने की परंपरा का विकास आधुनिक युग में ही हुआ है। हिंदी साहित्यकारों की आत्मकथाओं में राहुल सांकृत्यायन (मेरे जीवनयात्रा 1946 ), पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र (अपनी खबर 1960), आचार्य चतुरसेन शास्त्री (मेरे आत्मा कहानी 1963) आदि ने इस विधा को संवर्धित किया। हिंदी की प्रमुख और लोकप्रिय आत्मकथाओं में हरिवंशराय कृत क्या भूलूँ क्या याद करूँ नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर और दशद्वार से सोपान तक(1969-1985), डॉ. देवराज उपाध्याय कृत यौवना के द्वार पर (1970), वृंदावनलाल वर्मा कृत अपनी कहानी (1970), बलराज साहनी कृत मेरी फिल्मी आत्मकथा, रामविलासशर्मा कृत घर की बात (1983), अमृतलाल नागर कृत टुकड़े टुकड़े दास्तान (1986), रामदर्स मिश्र कृत सहचर है समय (1991) विशेष रूप से चर्चित हुईं। इस संदर्भ में कुछ नए प्रयोग भी हुए। गर्दिश के दिन (1980) शीर्षक से कमलेश्वर के संपादकत्व में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के बारह रचनाकारों का 'आत्मकथ्य' एक साथ प्रकाशित हुआ है। इसमें इन रचनाकारों ने अपने जीवन की संघर्ष कालीन मानसिकता का उद्घाटन किया है। ये आत्मकथ्य, पूर्ण आत्मकथा नहीं हैं। इनमें रचनाकारों का अलग-अलग व्यक्तित्व और अलग-अलग मानसिकता व्यक्त हुई है। कुछ ने जीवन से अधिक अपने रचना संघर्ष को व्यक्त करने की कोशिश की है।

पिछले कुछ वर्षों में आत्मकथा लेखन की परंपरा में एक उल्लेखनीय बात यह हुई है की अब महिला लेखिकाएँ भी मुक्त मन से अपनी आत्मकथाएँ लिखने लगीं हैं। कालक्रम से देखा जाए तो 'दस्तक ज़िंदगी की (1990) और मोड़ ज़िंदगी का (1996) इन दो खंडों में प्रकाशित प्रतिभा अग्रवाल की आत्मकथा सबसे पहले आती है। इसी क्रम में क्रमश: जो कहा नहीं गया (1996) कुसुम अंसल, लगता नहीं है दिल मेरा (1997) कृष्णा अग्निहोत्री, बूंद बावड़ी (1999) पद्मा सचदेव, कस्तूरी कुंडल बसै (2002) मैत्रेयी पुष्पा, हादसे (2005) रमणिका गुप्ता, एक कहानी यह भी (2007) मन्नू भण्डारी, अन्या से अनन्या (2007) प्रभा खेतान, गुड़िया भीतर गुड़िया (2008) मैत्रेयी पुष्पा, पिंजरे की मैना (2008) चंदरकिरण सौनेरिक्सा, और और औरत (2010) कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथाएँ प्रकाशित हुईं। इसी दौर में दलित लेखकों का ध्यान भी आत्मकथा लेखन की ओर गया। अपने अपने पिंजरे (दो भाग)- मोहनदास नैमिशराय, जूठन - ओमप्रकाश वाल्मीकि, मेरा बचपन मेरे कंधों पर - श्योराज सिंह बेचैन, मेरी पत्नी और भेड़िया – डॉ. धर्मवीर, मुर्दहिया- डॉ. तुलसीराम, शिकंजे का दर्द - सुशीला टाकभौरे की आत्मकथाओं ने हिंदी जगत का ध्यान आकृष्ट किया है।

उपरोक्त में से अधिकांश आत्मकथाएँ उपन्यास के तत्वों से भरपूर हैं इसीलिए इन्हें औपन्यासिक आत्मकथाओं की संज्ञा दी गई है । मैत्रेयी पुष्पा कृत कस्तूरी कुंडल बसै और गुड़िया भीतर गुड़िया - ऐसी ही औपन्यासिक आत्मकथाएँ हैं जिसमें लेखिका के बचपन से लेकर वर्तमान तक का जीवन उपन्यास की शक्ल में पर्त दर पर्त खुलता जाता है। लेखिका अपना जीवन संघर्ष, उत्पीड़न और अपनी अस्मिता की लड़ाई को औपन्यासिक रोचकता के साथ चित्रित करती हैं। वही स्वर प्रभा खेतान की 'अन्या से अनन्या' का है। लेखिका ने बिना किसी दुराव के अपने जीवन के गोपनीय हिस्सों को आत्म-स्वीकृति या कनफेशन के रूप में पाठकों के सम्मुख उजागर किया है।

आत्मकथा लेखन व्यक्तित्वप्रधान विधा है जिसमें लेखक का व्यक्तित्व, सम्पूर्ण या आंशिक रूप में प्रस्तुत होता है। यह आवश्यक नहीं कि इसमें लेखक के समूचे जीवन का चित्रण हो। कभी कभी लेखक अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण अंशों का ही चित्रण करता है इसलिए इन्हें आत्मकथांश कह सकते हैं। यह आत्मकथा और जीवनी लेखन की नई पद्धति है जो लोकप्रिय हो रही है। आत्मकथा, लेखक के जीवन की दैनंदिन डायरी नहीं होती। उसमें केवल घटनाओं का चित्रण ही नहीं होता अपितु जीवन की परिस्थितियों के प्रति लेखक की चिंतन प्रणाली भी शामिल होती है। हर लेखक का आत्मकथा लिखने का उद्देश्य अलग-अलग होता है। भोगे हुए यथार्थ की प्रस्तुति, शोषण का विरोध, जीवन संघर्ष का उद्घाटन, व्यवस्था के प्रति आक्रोश, निजी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति, आत्मस्वीकृति और स्पष्टीकरण आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आत्मकथाएँ लिखी जाती हैं। इस विधा में लेखक अपनी चिंतन प्रणाली, जीवन दर्शन और आत्म-परीक्षण प्रस्तुत करता है। अपनी रचना प्रक्रिया तथा उसके सामाजिक सरोकारों को स्पष्ट करने का यह अत्युत्तम माध्यम बन जाता है।

आत्मकथा, लेखक के अंतरंग को प्रकट करती है - ऐसा पाठक समझता है। किन्तु इसकी कोई गारंटी नहीं होती कि आत्मकथा में उल्लिखित एवं वर्णित हर प्रसंग सत्य हो। आत्मकथा की सच्चाई को प्रमाणित करना कठिन होता है। कोई भी लेखक अपना सम्पूर्ण अंतरबाह्य शत-प्रतिशत कभी प्रकट नहीं करता। सामाजिक रूप से मान्यता प्राप्त विचारों, संवेदनाओं एवं अनुभवों को ही आत्मकथाकार प्रस्तुत करता है। उसका अपना निजत्व अंतत: सुरक्षित ही रहता है। आत्मकथाओं के आलोचक अक्सर आत्मकथा में उल्लिखित स्थितियों की वास्तविकता तथा लेखक की ईमानदारी को चुनौती देते हैं और उन्हें असत्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। किन्तु जो पाठक लेखक से केवल पाठकीय संबंध रखते हैं उन्हें आत्मकथा में असत्य का आभास नहीं होता।

हिंदी साहित्य जगत में राजेन्द्र यादव एक सशक्त कहानीकार, उपन्यासकार, समीक्षक, अनुवादक, पत्रकार और विचारक के रूप में जाने जाते हैं। लोकप्रियता की दृष्टि से तमाम व्यक्तिगत और साहित्यिक विवादों के बावजूद व्यक्ति के रूप में वे हर वर्ग के पाठकों के प्रिय रहे हैं। असहमतियों और घोर प्रतिस्पर्धा के साथ उनके आलोचक और विरोधी भी उनसे प्यार करते हैं और उन्हें आदर की दृष्टि से देखते हैं। राजेन्द्र यादव एक जीते जागते हाड़-मांस के विश्वकोश थे। उनकी अध्ययन क्षमता अपार और स्मरणशक्ति अतुलनीय थी। नित-नूतन ज्ञान की परिसीमाओं को लांघकर बौद्धिक चिंतन के नए क्षितिजों को छूने की अदम्य लालसा उनमें मौजूद थी। वे पढ़ते-पढ़ते थकते नहीं थे। वे पाश्चात्य और भारतीय कथा साहित्य, साहित्य विमर्श और पाश्चात्य साहित्य चिंतन के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनसे व्यक्तिगत रूप से भेंट करना अपने आप में एक सुखद ऊर्जस्वी अनुभव होता था। जो लोग उनके करीब रहे हैं वे इस बात को पहचानते हैं कि वे अभूतपूर्व जुझारू, कर्मठ और जीवट किस्म के व्यक्ति थे। उन्होंने अपना जीवन अपनी शर्तों पर जिया। उन्होंने कभी किसी भी परिस्थिति से समझौता नहीं किया। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और सांप्रदायिक मुद्दों पर वे अपने विचार खुलकर निर्भीक होकर चुनौतीपूर्ण लहजे में 'हंस' पत्रिका के संपादकीयों के माध्यम से पाठकों के सम्मुख रखते थे। उनके विचार हर वर्ग के बुद्धिजीवियों के वैचारिक विमर्श के विषय बनकर चर्चा के केंद्र में रहते। जब जब देश के किसी भी कोने में सांप्रदायिक हिंसा भड़की है राजेन्द्र जी की प्रतिवादी आवाज 'हंस' में गूँजी है। चाहे किसी भी धर्म अथवा संप्रदाय की ओर से मनुष्यता पर आक्रमण हुआ हो, उन्होने अविलंब मनुष्यता के पक्ष में कलम उठाई। वे मानवता के प्रबल पक्षधर थे। सांप्रदायिक हिंसा के विरोध में वे हमलावरों के लिए बहुत ही सटीक रूपकों और प्रतीकों का इस्तेमाल करने में वे माहिर थे। इसी कारण वे अक्सर विवादों में फंस जाते, लेकिन उन विवादों का निराकरण वे अपनी सूझ-बूझ से कर लिया करते थे। राजेन्द्र यादव साहित्य में स्त्री विमर्श की नई परिभाषा गढ़कर उसे सैद्धान्तिक और व्यवाहारिक धरातल पर प्रोत्साहित करने वाले प्रथम पंक्ति के चिंतक हैं। वे स्त्री विमर्श की देहवादी वैचारिक परंपरा को भेदकर स्त्री की अंतश्चेतना की स्वतन्त्रता की मुहिम चलाने वाले प्रथम आंदोलनकारी बने। 'आदमी की निगाह में औरत' कृति उनकी स्त्री विमर्श की आधुनिक प्रगतिशील दृष्टि की साक्षी है। जीवन के सांध्य काल में अपने जीवन के कुछ टुकड़ों को चुनकर साहित्य जगत में प्रस्तुत करने का संकल्प लेते हैं। इस प्रयास में वे अपने बीते जीवन को पीछे मुड़कर देखने का उपक्रम करते हैं। इसी संकल्प का परिणाम है 'मुड़-मुड़के देखता हूँ' जिसे राजेन्द्र यादव की आत्मकथा के रूप में साहित्य जगत में पहचान मिली। इसमें वास्तव में वे अपने समूचे जीवन का लेखा-जोखा अथवा अपने जीवन की कहानी नहीं लेख रहे थे। उन्होने यहाँ भी एक नया प्रयोग ही किया है। वे एक प्रयोग-धर्मी कथाकार तो थे ही। उन्होंने 60 के दशक में मन्नू भण्डारी के साथ मिलकर 'एक इंच मुस्कान' उपन्यास की रचना की थी जो कि सहलेखन का प्रथम उपन्यास है। इस उपन्यास का प्रकाशन सर्वप्रथम 'ज्ञानोदय' पत्रिका में धारावाहिक रूप में हुआ था। 'मुड़-मुड़के देखता हूँ' में लेखक ने अपने जीवन के चुने हुए अंशों को एक कोलाज के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसे वे सायं 'आत्मकथ्यांश' कहते हैं। उन्हीं के शब्दों में "यह मेरी आत्मकथा नहीं है। इन 'अंतरदर्शनों' को मैं ज्यादा से ज्यादा 'आत्मकथ्यांश' का नाम दे सकता हूँ। आत्मकथा वे लिखते हैं जो स्मृति के सहारे गुज़रे हुए को तरतीब दे सकते हैं। लंबे समय तक अतीत में बने रहना उन्हें अच्छा लगता है। लिखने का वर्तमान क्षण, वहाँ तक आ पहुँचने की यात्रा ही नहीं होता, कहीं न कहीं उस यात्रा के लिए 'जस्टीफ़िकेशन' या वैधता की तलाश भी होती है - मानो कोई वकील केस तैयार कर रहा हो। 'लाख न चाहने पर भी वहाँ तथ्यों को काट-छांटकर अनुकूल बनाने की कोशिशें छिपाए नहीं छिपतीं : देख लीजिए, मैं आज जहाँ हूँ वहाँ किन-किन घाटियों से होकर आया हूँ। अतीत मेरे लिए कभी भी पलायन, प्रस्थान की शरणस्थली नहीं रहा। ये दिन कितने सुंदर थे .... काश, वही अतीत हमारा भविष्य भी होता - की आकांक्षा व्यक्ति को स्मृति-जीवी, निठल्ला और राष्ट्र को सांस्कृतिक राष्ट्रवादी बनाती है।

ज़ाहिर है इन स्मृति-खंडों में मैंने अतीत के उन्हीं अंशों को चुना है जो मुझे गतिशील बनाए रखे हैं। जो छूट गया है वह शायद याद रखने लायक नहीं था, न मेरे, न औरों के .... कभी कभी कुछ पीढ़ियाँ अगलों के लिए खाद बनाती हैं। बीसवीं सदी के 'उत्पादन' हम सब खूबसूरत 'पैकिंग' में वही खाद हैं। वह हताशा नहीं, अपने 'सही उपयोग' का विश्वास है, भविष्य की फसल के लिए ... बुद्ध के अनुसार ये वे नावें हैं जिनके सहारे मैंने ज़िंदगी की कुछ नदियाँ पार की हैं और सिर पर लादे फिरने की बजाय उन्हें वहीं छोड़ दिया है।" (मुड़ मुड़के देखता हूँ - भूमिका से)

राजेन्द्र यादव एक संवेदनशील कथाकार हैं। उनकी कहानियों और उपन्यासों में मध्यवर्गीय जीवन और स्त्री-पुरुष संबंधों की पड़ताल निरंतर होती रही है। रूसी कहानीकार 'चेखव' उनके प्रिय और आदर्श कहानीकार और किस्सागो रहे। 'रोम्या रोलां' की चर्चा वे बार-बार अपनी रचनाओं में करते हुए अघाते नहीं हैं। रोम्या रोलां के उपन्यास 'ज्यां क्रिस्टोफ' का नायक क्रिस्टोफ उनका प्रिय कथा नायक है। राजेन्द्र यादव एक कुशल अनुवादक थे, उन्होने चेखव के रूसी नाटकों का हिंदी में अनुवाद किया था। उनके अनूदित नाटकों में 'तीन बहनें' और 'हंसिनी' प्रमुख हैं। भोगे हुए जीवन की विसंगतियों को ठीक करने की एक कल्पना उन्हें सदैव बेचैन करती रही जिसका उल्लेख उन्होने एकाधिक बार अपनी रचनाओं में किया है। बीतते हुए जीवन के हर पल की सार्थकता और व्यर्थता पर उनकी पैनी नजर रहती थी। उन्हीं के शब्दों में - "और क्या यह सारी ज़िंदगी यों ही व्यर्थ गई? यह मेरी व्यक्तिगत अर्थहीनता है या एक विशेष समय में होने की नियति जहाँ कुछ भी सार्थक नहीं रह गया है? मुझे अक्सर चेखव के नाटक 'तीन बहनें' की याद आती है। इस व्यर्थता-बोध की मारी इरीना अवसाद के क्षणों में कहती है, "काश, जो कुछ हमने जिया है, वह सिर्फ ज़िंदगी का रफ-ड्राफ्ट होता और इसे फेयर करने का अवसर हमें और मिलता!" सुनते हैं इस पर एक जर्मन या फ्रेंच नाटककार ने एक नाटक लिखा है। इसी वाक्य से प्रेरित एक साहब इस "रफ ड्राफ्ट" को फेयर करने बैठे हैं और ज़िंदगी की एक एक निर्णायक घटना को उठाकर जांच-परख रहे हैं कि अगर फिर से वह क्षण आए तो वे क्या करेंगे ? .... मित्रो, प्रेमिका या जीवन के एक विशेष ढर्रे से लेकर हर जगह वे पाते हैं कि उस समय जो निर्णय उन्होंने लिए हैं; सिर्फ वही लिये जा सकते थे। जो कुछ उन्होंने किया, उसके सिवा वे कुछ कर ही नहीं सकते थे। रफ हो या फेयर, उनकी ज़िंदगी वही होती, जो है।" (मुड़ मुड़के देखता हूँ)

राजेन्द्र यादव का जीवन दर्शन आत्मविश्लेषणवादी रहा है। वे अपने जीवन को अनेक कोणों से परखने का प्रयास करते हैं और फिर उसे आज की सामाजिकता से जोड़कर अपने सामाजिक सरोकारों को तलाशते हुए दिखाई देते हैं। समाज में व्याप्त आडंबर, पाखंड, बनावटीपन और दिखावे को सिरे से खारिज करते हैं। आज की उपभोक्तावादी सोच और स्वार्थभरी जीवन शैली के बीच पनपे हुए कपटी मानव संबंधों के प्रति वे सचेत हैं लेकिन उसके जाल में फँसने से न तो वे स्वयं को बचा पाए हैं और न ही दूसरों को इस तरह की कुटिलता से ही मुक्त कर पाये हैं। जिस तरह समाज में लोग अपना असली चेहरा छिपाकर नकली मुखौटे पहने अपनों को ही छलते हैं, उसका आकलन वे इस तरह करते हैं - "हममें से अधिकांश अपने कीमती कागजों की मूल प्रति कहीं तिजोरियों-लॉकरों या आलमारियों में बंद रखते हैं और अपने साथ लिए फिरते हैं, प्रतिलिपियाँ। कल को नष्ट हो जाएँ या खो जाएँ तो मूल प्रति बची रहे। क्या सारे बहुरूपिये अपने 'मूल चेहरे' को कहीं सुरक्षित जगहों पर छोड़ आते हैं, और सिर्फ मुखौटों के सहारे ही ज़िंदगी काट देते हैं? एक विशेष मेकअप में रहने वाली सुंदरी जब लोगों को अपने रूप पर मुग्ध होते देखती है तो कहीं यह आशंका भी उसको लगातार कचोटती ही होगी कि किन्हीं आत्मीय क्षणों में इनमें से किसी ने 'असली रूप' देख लिया तो? क्या गुज़रेगी उस पर …? और वह आत्मीय क्षण हमेशा स्थगित होता रहता है, अभिनंदन और प्रशंसाएँ बटोरता 'मेकअप' ही हम सबके लिए असली व्यक्ति बन जाता है।" (पृ 14 - मुड़ मुड़के देखता हूँ) इस तरह राजेन्द्र यादव का समूचा जीवन ऐसे अंधे कुओं से बाहर आने की प्रक्रिया रही है।

राजेन्द्र यादव के जीवन के दो भिन्न धरातल हैं। एक साहित्यिक (सामाजिक ) धरातल और दूसरा निजी (व्यक्तिगत धरातल), एक साहित्य का समाज और दूसरा उनका व्यक्तिगत समाज। उनकी वैयक्तिक दुर्बलताएँ जिस पर बाह्य समाज उनके साहित्यिक जीवन के प्रारम्भ से उन पर आक्रमण करता रहा है, उनकी राजेन्द्र यादव ने कभी परवाह नहीं की। बचपन से लेकर अंत समय तक अनेकों दुर्घटनाओं से क्षत-विक्षत शरीर और उसकी पीड़ा को सहते-सहते ही उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन के लक्ष्य को साधा था। शारीरिक यंत्रणाएँ कभी उनकी साहित्य साधना के रास्ते में अवरोध बनकर नहीं उभरीं। साहित्य-जगत में उनकी लोकप्रियता और स्वीकृति का कारण उनका लेखन और उनकी अपनी विशेष चिंतन परंपरा रही है।

नई कहानी आंदोलन के पुरोधा लेखक-त्रयी की अंतिम कड़ी के रूप में वे कमलेश्वर के जाने के बाद भी बरसों उस परंपरा का निर्वाह, उत्तरशती की साहित्यिक मान्यताओं के परिवर्तन के झंझावात में खड़े रहकर करते रहे। 'नई कहानी' के दौर से उनकी कहानी कहने और लिखने की जो शैली विकसित हुई उस शैली में आगे तक बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ। उपन्यास के क्षेत्र में उन्होंने नए रचनाकारों को आज के सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों के अनुकूल स्थापित किया। उन्हें आज की चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रेरित किया और स्वयं संबल बनकर उनके साथ खड़े रहे। मैत्रेयी पुष्पा जैसी जुझारू प्रतिभावान लेखिकाओं के निर्माण में उनका सहयोग अप्रतिम माना जाता है। लेखिकाओं से पेशागत निकटता उन्हें संदेहों के कठघरे में हमेशा खड़ी करती रही लेकिन राजेन्द्र जी ने इन बातों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया और अपने रचना कर्म में डूबे रहे। उनके सान्निध्य और मार्गदर्शन से अनेकों नवोदित कथाकारों को साहित्यिक पहचान मिली।

राजेन्द्र यादव और मन्नू भण्डारी के दांपत्य संबंधों में दरारें साहित्य जगत से छिपी नहीं हैं। उन दोनों के अलगाव के लिए राजेन्द्र यादव को दोषी माना गया है। यह एक सर्वस्वीकृत सत्य है। राजेन्द्र यादव की मानसिकता कुछ कुछ अभिनेता 'गुरुदत्त' की अशांत और नीति छटपटाती मानसिकता से काफी समानता रखती है। कुछ लोग यश, मान, प्रतिष्ठा और सफलता के चरम पर पहुँचकर सबसे अधिक अशांत और अतृप्त रहते हैं। राजेन्द्र यादव के जीवन में धन उस मात्रा में कभी नहीं आ सका और फिर उन्हें उसकी चाहत भी नहीं थी लेकिन उनका जीवन ऐशो-आराम और सुविधा संपन्न हो इसकी आकांक्षा उन्होंने अवश्य थी। उनके जीवन के बिखराव के लिए उनके आलोचकों द्वारा लगाए गए आरोपों के प्रति वे सजग थे। वे समय-समय पर अपने पक्ष में स्पष्टीकरण भी देते रहते थे और साथ ही वे अपने व्यवहार के औचित्य को भी सिद्ध करने का प्रयास करते रहते। 'मुड़ मुड़के देखता हूँ' ऐसा ही एक प्रयास है जिसमें अपने पक्ष में उनकी आत्म-स्वीकृतियाँ मिलेंगी। मन्नू भण्डारी ने इन आत्म-स्वीकृतियों का विश्लेषण अंत:साक्ष्य और बहिर्साक्ष्य के आधार पर अपनी आत्मकथा 'एक कहानी यह भी' में किया है। इस तरह 'मुड़ मुड़के देखता हूँ' और 'एक कहानी यह भी' दोनों एक दूसरे की पूरक बन जाती हैं। राजेन्द्र यादव के हर तर्क को उनके अंतर्विरोधों से भरे दुराग्रहपूर्ण व्यवहार को मन्नू भण्डारी अस्वीकार करती हैं। उनके अनुचित दांपत्य आचरण और अस्वीकार्य नैतिक मूल्यों तथा उनके तथाकथित 'संबंधों' को जब वे सृजनशीलता के लिए अनिवार्य और उचित ठहराने सतही दलील देते हैं तो उन सारी खोखली दलीलों को मन्नू भण्डारी उनके सम्मुख ही खारिज करती हैं। मन्नू भण्डारी राजेन्द्र जी के असली स्वरूप को लोगों के सामने लाती हैं। दोनों के मध्य का यह तार्किक और बौद्धिक द्वंद्व अद्भुत है। राजेन्द्र यादव जीवन-पर्यंत बाल-हठ धारण किए हुए थे और आत्मग्लानि से परे थे। अलग होकर भी वे मन्नू भण्डारी से अलग नहीं हो सके थे। मन्नू भण्डारी न चाहते हुए भी इस स्थिति को स्वीकार करने के लिए अभिशप्त हैं। अजीब सी कड़ुवाहट के बावजूद भी इनके संबंधों में मानवीय ऊष्मा जीवित रही। राजेन्द्र यादव की असामाजिकता और छद्म व्यवहार से मन्नू भण्डारी त्रस्त होकर ही उनसे अलग रहने का निर्णय लेती हैं लेकिन यह अलग होने की प्रक्रिया विचित्र थी। एक बार नहीं कई बार वे अलग होते और राजेन्द्र जी मन्नू भंडारी के द्वार पर फिर हाजिर हो जाते। इन विसंगतियों के बावजूद राजेन्द्र यादव बहुत ही प्यारे इंसान थे, इस सत्य को मन्नू भण्डारी ने कबूल किया है। मन्नू भण्डारी की निर्मिति में राजेन्द्र यादव के बौद्धिक संबल और मार्गदर्शन को दरकिनार नहीं जा सकता। इसे मन्नू जी ने स्वीकार किया है।

राजेन्द्र यादव की एक महत्त्वपूर्ण आत्मस्वीकृति है - "मैं अपनी आन्तरिक ईमानदारी से स्वीकार करता हूँ कि जो कुछ मेरे भीतर अच्छा, प्यारा या जीवन्त है, वह सब कुछ मित्रों, आत्मीयों और मेरे अन्तरंगों ने दिया है, और जो कुछ गलत, खराब या अरुचिकर है - वह सब मेरी अपनी कमाई है। चाहे तो इसे आत्मस्वीकृति कह लें कि मैं तहेदिल से आप सभी का बहुत कृतज्ञ हूँ और यह कृतज्ञता ही मेरा बल है। लोग शिकायतें करते हैं कि ज़िंदगी में उन्हें कटुता, विश्वासघात, अपमान और गलतफहमियाँ ही मिली हैं। लोगों ने उनके साथ न्याय नहीं किया। यह बात नहीं कि यह सब मेरे साथ नहीं हुआ - मगर मित्रों ने जितना सम्मान, प्यार और अपनापन दिया है वही सब बार बार उफन-उफनकर आता है। हम जो कुछ भी दूसरों को देते हैं, या तो अपने-आपको उससे वंचित करके देते हैं या किसी और का हिस्सा देते हैं। कभी कभी सचमुच यह सोचकर अभिभूत हो उठता हूँ कि अपने को कितना स्थगित और वंचित करके मित्रों ने मेरे अस्तित्व और व्यक्तित्व को अपना खून दिया है ! इस तरह दूसरों से यों लेते रहना भीतर कहीं अपराध-बोध पैदा करता है। मैं तो शायद बदले में एक प्रतिशत भी नहीं दे पाता। अगर आप सब लोगों के हाथों का सहारा न होता तो मैं शायद ज़िंदगी के न जाने किन गुमनाम अंधे कुओं में ही शेष हो गया होता।" (मुड़ मुड़के देखता हूँ - पृ 15)

राजेन्द्र यादव ने अपनी रचना प्रक्रिया के संदर्भ में साहित्यकार की सामाजिक प्रतिबद्धता और ईमानदारी का मुद्दा अपनी आत्मकथा में उठाया है। कहानी के रूप और शिल्प की उन्होंने कभी चिंता नहीं की। उनके लिए कहानी एक सचेत प्रक्रिया है और अनुशासित, सार्थक अभिव्यक्ति है। 'मुड़ मुड़के देखता हूँ' में राजेन्द्र यादव के जीवन के कुछ हिस्से बिखरे-बिखरे से टुकड़ों-टुकड़ों में व्यक्त हुए हैं। उन्हें कलकत्ता प्रवास का समय बहुत प्रिय है क्योंकि वे ही उनके निर्माण के दिन थे, मन्नू भण्डारी के परिवार से निकटता पनपने के दिन थे। वहीं मन्नू भण्डारी से उन्हें अपार संबल प्राप्त हुआ जिसे वे अपनी आत्मकथा में आत्ममुग्ध होकर याद करते हैं। शुरू में ही मन्नू जी का, घर परिवार के बोझ को स्वयं संभालने का उन्हें दिया गया आश्वासन उनके लिए वरदान सिद्ध हुआ। वे मन से यही तो चाहते थे। यह उनकी फितरत रही है शुरू से, ताकि वे फ्री लांसिंग लेखन कर सकें। मन्नू भण्डारी उनकी फ्री लांसिंग प्रवृति की आजीवन पोषक बनकर रहीं। असंख्य असहमतियों के बावजूद भी मन्नू ने स्वयं जल-जल कर राजेन्द्र के जीवन को दीप्त किया है। राजेन्द्र यादव के निर्माण में मन्नू जी के त्याग और समर्पण को कमतर नहीं आँका जा सकता। इन बातों का उल्लेख राजेन्द्र जी ने निश्चित ही आपने आत्मकथ्य में किया है। कलकत्ता से दिल्ली आकर 'हंस' के प्रकाशनार्थ अक्षर प्रकाशन को स्थापित करने में मन्नू भण्डारी की प्रेरणा, समर्थन और आर्थिक सहयोग उल्लेखनीय है। मन्नू जी राजेन्द्र जी की प्रेरणा और आन्तरिक संबल रहीं। इसीलिए राजेन्द्र यादव चाहे जीवन की पारंपरिक लीक से कितने भी भटके हों (जैसा कि लोग समझते हैं) 'हंस' के संचालन में उन्हें सफलता ही मिली। हंस के माध्यम से राजेन्द्र यादव ने अपार यश अर्जित किया। राजेन्द्र यादव की समस्त शारीरिक और मानसिक ऊर्जा 'हंस' की स्थापना और उसे सुस्थिर करने में लग गई। 'हंस' राजेन्द्र यादव की आत्मा का अविभाज्य अंग बन चुका था। उनके बाद 'हंस' के अस्तित्व की रक्षा कैसे हो, इसकी चिंता धीरे-धीरे उन्हें सताने लगी थी। इसके लिए उन्होंने संजीव जैसे कथाकार का सहयोग लेकर एक स्थाई समाधान खोजने का प्रयास किया।

उनका लेखन त्रि-आयामी था - कहानी, उपन्यास और पत्रकारिता का। वे सभी क्षेत्रों में अत्यधिक सफल हुए। 'मुड़ मुड़के देखता हूँ' में राजेन्द्र यादव आत्म-साक्षात्कार करते हैं। यह सर्वव्यापी सत्य है कि मन्नू से विवाह की रात ही उन्होंने 'मीता' के साथ प्रेम संबंध को ज़ाहिर कर दिया। मन्नू की उस मानसिक स्थिति का अंदाज़ा लगाना किसी के लिए भी आसान नहीं। लेकिन इस विषम स्थिति में भी सबसे सबसे ज़्यादा नॉर्मल अगर कोई था तो वह थे राजेन्द्र यादव। उनकी इस स्वीकारोक्ति को क्या कहिएगा ..... "आज लगता है कि मैं शायद अपने आप में ही इतना डूबा रहा हूँ कि न मन्नू को एक अच्छा पति दे पाया, न मीता को अच्छा प्रेमी या दीदी को अच्छा मित्र। बेटी को एक अच्छा बाप या बहनों को भाई भी कहाँ मिला? लगता है किसी से मेरा कोई संवाद ही नहीं है, सिर्फ औपचारिकता है।" इसके साथ वे स्वयं पर भी तरस खाते हैं - "मगर अपने आपको भी भी मैंने क्या दिया? रातों की नींद, आँखों की रोशनी और दिमागी शांति सब कुछ अमूर्तनों में ही झोंकता रहा। शरीर और व्यक्ति को सिर्फ माध्यम बनाकर पानी पर लकीरें खींचता और संतोष निचोड़ता रहा कि कुछ विशिष्ट हो रहा है। यह कौन सा फितूर है कि अपने आपको और दूसरों को आप सिर्फ इस्तेमाल करें और इस प्रक्रिया को ही 'रचना प्रक्रिया' की अनिवार्य आवश्यकता मान लें?"

(पृ 130) जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुँचकर हर व्यक्ति को वह प्रस्थान बिन्दु नज़र आता है जहाँ से वह अपनी यात्रा (या दौड़) शुरू करता है। फिर एक हलचल होती है जो आत्मा की परतों को उघाड़कर रख देती है। राजेन्द्र जी के साथ भी ऐसा ही हुआ - लगता है। इसीलिए वे कह उठते हैं - "आज देख पा रहा हूँ कि 'मीता' संगीत के निश्शब्द अंतरे की तरह बनी रही तो जिस तार ने सुर संभाले रखा, या लगभग संचालित करती रही वह तो दीदी है। उधर मन्नू न होती तो ज़मीनी सच्चाइयों की यह अनुभव-संपन्नता कहाँ से आती .... ठहराव और गहराई तो मन्नू ने ही दी। तब फिर इस क्रमहीन और अतार्किक रूप से चलते जीवन के पीछे क्या सचमुच एक अंतरसूत्र बना रहा है ? देयर इज़ ए मैथड इन मैडनेस।" (पृ 131)

राजेन्द्र यादव की मानसिक संरचना बहुत ही जटिल और अनगिनत उलझनों के गुंजलक से युक्त थी। ऐसे व्यक्तियों को समझ पाना बहुत कठिन होता है जो देखने में अत्यंत सरल होते हैं लेकिन भीतर से अथाह गहराई लिए हुए जिनकी गहराई का अनुमान लगाना भी कल्पनातीत होता है। उनमें जीवन के लिए कभी न मिटाने वाली प्यास थी जिसे वे पल पल अपने ढंग से बुझाने की कोशिश में मग्न थे। उनकी अशांति, व्याकुलता और अमिट प्यास उनके जीवन को संचालित करती रही। लेकिन एक न एक दिन सबको जाना ही है। तो फिर वे भी ऐसे ही चुपचाप चल दिए। अपने रचनाकर्म का बेशुमार ज़ख़ीरा पीढ़ियों के चिंतन लिए छोड़कर।

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टिप्पणियाँ

सिद्धार्थ सिंह 2024/08/29 07:38 PM

बेहद सराहनीय लेख जिसमें हिन्दी साहित्य जगत में रचित आत्मकथाओं का गंभीर विश्लेषण किया गया है. वेंकटेश्वर जी को धन्यवाद एक अति अनिवार्य विषय पर विस्तृत जानकारी एक मझे तरीक़े से प्रस्तुत करने के लिए.

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