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चूड़ी बाज़ार में लड़की

पुस्तक: चूड़ी बाज़ार में लड़की 
लेखक: कृष्ण कुमार 
पृष्ठ: 148 
मूल्य: 300/- 
प्रथम संस्करण: 2014 
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन प्रा लि
1-बी नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिली - 110002 

"चूड़ी बाज़ार में लड़की" कृष्ण कुमार द्वारा रचित स्त्री विषयक चिंतन को नवीन आयाम प्रदान करने वाली विचारोत्तेजक कृति है। इसे संस्कृति और शिक्षा की स्त्री-केन्द्रित विवेचना कहा जाना तर्क संगत है। कृष्ण कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा के प्रोफेसर हैं और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद के निदेशक रह चुके हैं। वे शिक्षाविद, साहित्य चिंतक, कथाकार एवं निबंधकार हैं। "चूड़ी बाज़ार में लड़की" उनका सद्य: प्रकाशित स्त्री विषयक समाजशास्त्रीय आलोचनात्मक विचारों की शृंखला है। स्त्री विषयक समस्याओं के प्रति साहित्यकारों और सृजनशील रचनाकारों के सैद्धान्तिक विमर्श के बीच "चूड़ी बाज़ार में लड़की" में संग्रहीत निबंध स्त्री जीवन को आँकने और पहचानने के लिए नई एवं तरो-ताज़ा दृष्टि उपलब्ध कराते हैं। इन निबंध नाइरेटिव और डिसकोर्स के रूप में पठनीय हैं। इन निबंधों के शीर्षक लेखक की वैचारिक दिशा को निर्धारित करते हैं जो कि इन सुदीर्घ निबंधों को रोचक एवं पठनीय बनाते हैं। यह पुस्तक लड़कियों के मानस पर डाली जाने वाली सामाजिक छाप की जाँच करती है। समाज में छोटी लड़की को बच्ची कहने का चलन है पर उसके दैनंदिन जीवन की जाँच पड़ताल यह बताती है कि लड़कियों के संदर्भ में 'बचपन' शब्द के क्या निहितार्थ होते हैं। लेखक ने लड़कियों के जीवन की विभिन्न अवस्थाओं से जुड़े भाषिक मुहावरों का समाज और संस्कृति सापेक्ष अर्थ तलाशने का प्रयास किया है। निश्चित ही प्रस्तुत शोधपरक चिंतन समाजभाषा विज्ञान का विषय है। समाज में लड़कियों और स्त्रियाँ की संवेदनाओं पर उनके सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य का जो प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रभाव पड़ता है उसका विश्लेषण लेखक ने इस संग्रह में किया है। कृष्ण कुमार ने स्त्रियाँ के बचपन, युवावस्था और प्रौढ़ावस्था के लिए अभिव्यंजित शब्दों की जाँच करने के लिए दो परिधियाँ चुनी हैं। पहली परिधि है घर के संदर्भ में परिवार और बिरादरी द्वारा किए जाने वाले समाजीकरण की। इस परिधि की जाँच संस्कृति के उन कठोर और पैने औजारों पर केन्द्रित है जिनके इस्तेमाल से लड़की को समाज द्वारा स्वीकृत औरत के साँचे में ढाला जाता है। दूसरी परिधि है शिक्षा की, जहाँ स्कूल और राज्य अपने अपने सीमित दृष्टिकोण और संकोची इरादे के भीतर रहकर लड़की को एक शिक्षित नागरिक बनाते हैं। लड़कियों का संघर्ष इन दो परिधियों के भीतर और इनके बीच बची जगहों पर बचपन भर ज़ारी रहता है। यह पुस्तक इसी संघर्ष को व्याख्यायित करती है।

कृष्ण कुमार निरंतर स्त्री के पारिवारिक और परिवारेतर अस्मिता पर गहरी और पैनी नज़र डालते हैं। भारतीय परिवार में पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, बहन-भाई, के आंतरिक और सामाजिक संबंधों के प्रति जो सजगता लेखक ने दर्शाई है वह स्त्री के समाजशास्त्रीय मूल्यों और उसके मानवीय सरोकारों को व्याख्यायित करता है। कृष्णा सोबती ने इस कृति को भारतीय स्त्री की सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक व्यवस्था पर लिखी गई क्लासिक कृति कहा है। मानवीय अधिकारों से वंचित स्त्री को जिस चक्रव्यूह से लेखक बाहर लाना चाहते हैं, वह निश्चय ही उसके अस्तित्व के संघर्ष की पराकाष्ठा है। इस कृति के पांचों निबंधों में संकल्पनात्मक और लक्ष्यात्मक एकसूत्रता निहित है। ये निबंध या आलेख स्त्री विमर्श के लिए प्रयुक्त चालू मुहावरों के स्थान पर स्त्री के मूक दर्द को अपने भाषिक संस्कारों द्वारा एक आत्मीय संस्पर्श प्रदान करते हैं।

स्त्री को मात्र एक देह मानने वाले आज के उपभोक्तावादी समाज को, स्त्री को मनुष्य रूप में स्वीकार करने के लिए निर्मित चिंतन परंपरा पर लेखक पुनर्विचार करते हैं। लेखक के अनुसार पुरुष के भीतर स्त्री और स्त्री के भीतर पुरुष की पारस्परिकता के सिद्धान्त के अनुसार पुरुष और स्त्री का पृथक शारीरिक अस्तित्व भी एक वृहत्तर संरचना के भीतर रचा हुआ है, पर उसे शिक्षा, विचार और चिंतन से दूर करके पारिवारिक संस्था ने स्त्री को सांस्कारिक सुख - साधन व्यवस्था का प्रतीक बना दिया है। लेखक इस चिंतन परंपरा का विलोम स्थापित करना चाहते हैं। इस विषय का अध्ययन करने के लिए लेखक ने जिस वैचारिक प्रस्थान बिन्दु को चुना है वह गौरतलब है। मूलत: इस पुस्तक में निहित आलेखों का संकल्पनात्मक आधार पुरुष और स्त्री की पारस्परिकता का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार पुरुष और स्त्री का पृथक अस्तित्व एक वृहत्तर संरचना के भीतर है। उनके अस्तित्व की पृथकता आंशिक है और इस कारण हम कह सकते हैं कि स्त्री और पुरुष की पूरकता का अर्थ महज उनकी एक दूसरे पर निर्भरता नहीं है जैसा कि आम तौर माना जाता है।

"पुरुष और स्त्री जीवन की गाड़ी के दो पहिये हैं" - इस कथन को हम सदियों से सुनते और मानते आ रहे हैं। लेखक के अनुसार पूरकता को इस तरह की यांत्रिक निर्भरता में तबदील करते ही हम पुरुष और नारी की सामाजिक भूमिकाओं की भिन्नता की सैद्धांतिकी में भटक जाते हैं। इन भूमिकाओं की पृथकता दर्शाना और उसे बढ़ावा देना एक सांस्कृतिक उपक्रम होने के अलावा बाकायदा एक व्यापारिक उद्योग बन चुका है। लेखक ने इसी प्राक्कल्पना को लेकर ही अपने विश्लेषणात्मक चिंतन के लिए पुख्ता जमीन तैयार की है। लेखक ने इस सत्य को अपने ढंग से सिद्ध करने का प्रयास किया है। भाषा, साहित्य, धर्म और सिनेमा व टेलीविज़न के ज़रिये स्त्री की विभिन्न मनोहारी भूमिकाओं का मनमोहक प्रसारण रात-दिन होता रहता है। इस मीडिया उद्योग के जरिए लड़कियों को यह बात एक अंतिम या अकाट्य सत्य के रूप में बताई जाती है कि वे मुख्यत: एक देह हैं और यदि उनकी देह में दिमाग शामिल है तो वह वैसा नहीं है जैसा लड़कों की देह में होता है और यदि किसी ख़ास लड़की की देह में अपवाद स्वरूप वैसा दिमाग हो भी तो उसका विकास उस विशेष लड़की को इस तरह करना होगा कि स्त्री के रूप में उपलब्ध भूमिकाएँ भी उसे याद रहें। क्योंकि उसे भी स्त्री की तरह ही जीना है। स्त्री-देह को लेकर व्याप्त आम डर उसके शैशव काल से ही पैदा कर दिए जाते हैं अथवा परिस्थितिवश हो जाते हैं। बलात्कार की अवधारणा का संज्ञान होने से बहुत पहले वह बलात्कृत होने की आशंका से ग्रस्त हो चुकी होती है। अज्ञात जगहों पर या अंधेरे में अकेले न रहने की हिदायत उसने न भी सुनी हो, तो भी उसका आशय वह अपनी देह के संदर्भ में भाँप चुकी होती है। लेखक के अनुसार स्त्री देह को दुर्बलता के रूपकों में बाँधने वाली भाषा अपने आप में लड़कियों के लिए दीक्षा का काम करती है। इन रूपकों के ज़रिए बालिकाएँ समझ जाती हैं कि वे प्राकृतिक रूप से ऐसी बनी हैं कि उन पर कभी भी आक्रमण और उनकी देह का अतिक्रमण हो सकता है। स्त्री का एक व्यक्ति के रूप में स्वीकारा जाना फिलहाल बहुत दूर की बात है। इस तरह के विचारों से ग्रस्त मानसिकता वैश्विक परिदृश्य में आज सर्वव्यापी है। कृष्ण कुमार ने अपनी चिंतन प्रणाली में इन मुद्दों को नए सिरे से उठाया है और उसकी विस्तृत पड़ताल की है।

"चूड़ी का चिह्न शास्त्र" आलेख स्त्री के लिए निर्मित आभूषणों का स्त्री देह के साथ संबंध को एक नई दृष्टि देता है। लेखक की यह स्थापना महत्त्वपूर्ण है कि स्त्री की देह पर गहने उन सांस्कृतिक स्थलों की रचना करते हैं जिनका इस्तेमाल पुरुष सत्ता अपनी अभिव्यक्ति और अक्षुण्णता के लिए करती है। स्त्री के शरीर पर हर गहने का स्थान पुरुष के निर्देशन में बने संस्कृति के मानचित्र के अनुसार निर्धारित हुआ है। गहने को पहने खड़ी या बैठी स्त्री मात्र एक माध्यम है। उसकी देह एक सार्वजनिक केनवास है जिस पर पुरुष सत्ता में निहित कल्पना, सौन्दर्य - दृष्टि और कौशल इस तरह अभिव्यक्ति पाते हैं कि वह एक निश्चित नाम से पहचानी जाने वाली औरत गायब हो जाती है और सिर्फ देह की सामान्यता बची रह जाती है। स्त्री जब कोई गहना पहन या उतार रही होती है तो इन दोनों कामों में वह संस्कृति की एक समर्पित, और अपनी भूमिका व हैसियत के प्रति चौकस, सेविका की भाँति व्यवहार कर रही होती है। गहने को पहनकर खड़ी, बैठी या लेटी अवस्था में वह संस्कृति में एकमेव हो जाती है अर्थात संस्कृति की उस वृहत्तर संरचना का अंग बन जाती है जिसकी खातिर जीने के लिए उसे जन्म से तैयार किया जाता है। उपरोक्त विचारों को लेखक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से विश्लेषित करते हैं। आभूषणों की साज-सज्जा भारतीय समाज में स्त्री सौन्दर्य को द्विगुणित करने का एक सशक्त उपकरण है जिसके पीछे छिपे पुरुषवादी उपभोक्ता की भूमिका स्पष्ट दिखाई देती है। ऐसे जटिल और अनछुए सौंदर्यशास्त्रीय संबंधों को व्याख्यायित करने में कृष्ण कुमार अपने मौलिक चिंतन और शोध की एक नवीन दृष्टि विकसित करते हैं। इसलिए वर्तमान स्त्री विमर्श की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए कृष्ण कुमार ने इस पुस्तक द्वारा निश्चित ही एक नई विचार धारा को संप्रेषित किया है।

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