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फाइटर की डायरी : मैत्रेयी पुष्पा

पुस्तक - फाइटर की डायरी 
लेखिका - मैत्रेयी पुष्पा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन प्रा लि
1-बी नेताजी सुभाष मार्ग,
नई दिल्ली - 110002
पृष्ठ : 232,
मूल्य 350/-

"फाइटर की डायरी" सुविख्यात उपन्यासकार और स्त्री सशक्तीकरण की प्रबल पक्षधर तथा नारी मुक्ति संग्राम की सशक्त आंदोलनकर्ता मैत्रेयी पुष्पा द्वारा रचा गया अनुभवजन्य रिपोर्ताज है जिसे लेखिका ने "डेमोक्रेसी का दस्तावेज़" कहा है। पुस्तक का शीर्षक "फाइटर की डायरी" जीवन में व्याप्त विषमता, अन्याय और अत्याचार से संघर्ष का संकेत देता है। इस रचनात्मक प्रस्तुति में अधिकारों और जीने की मूलभूत स्वतन्त्रता से वंचित और लांछित स्त्रियों की दास्तान है। आज की युवा लड़कियाँ जो अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ रही हैं, हर मोर्चे पर। घर और बाहर दोनों जगहों पर इनकी अंतहीन लड़ाई आख़िर कुछ समझौतों और शर्तों के बीच घिसटने वाली विवशता बनकर रह गई है, लेकिन इन महिलाओं ने अपनी जद्दो- जहद नहीं छोड़ी है। निम्न वर्ग की ये लड़कियाँ जो घरेलू हिंसा, पारिवारिक दमन और यौन-शोषण के साथ तमाम अन्य सारे पुरुषवर्चस्ववादी अत्याचारों का शिकार हो रहीं हैं, उनके जीवन की वास्तविकता को लेखिका ने इस "डायरी" में साक्षात्कार विधि से समाज की सुप्त चेतना को झझकोरने के लिए लिखा है। यह पुस्तक "स्त्री विमर्श" के नए अर्थ खोजती है। पुलिस की उच्च स्तरीय नौकरी जितनी आकर्षक और शक्तिशाली दिखाई देती है उतनी ही निचले स्तर पर यानी सिपाही के स्तर पर वह महिलाओं के लिए भयावह, दुष्कर और चुनौतीपूर्ण है। पारिवारिक शोषण और दमन से छुटकारा पाने और अपने अस्तित्व को बचाए रखने की आकांक्षा से आजीविका की तलाश में थोड़ा बहुत पढ़ लिखकर पुलिस में भर्ती होने का साहस दिखाने वाली स्त्रियों की जीवन गाथा को उन्हीं के मुख से सुनकर लेखिका हतप्रभ हो जाती हैं और उन मार्मिक प्रसंगों को साक्षात्कार शैली में लिखकर उसे पुस्तकाकार देती हैं। यह रचना अनेकों पीडिताओं के जीवन की मार्मिक गाथाओं से भरी हुई है जो अपनी समस्याओं का समाधान पुलिस में भर्ती होकर "नारी सशक्तीकरण" के माध्यम से अपना सपना पूरा करना चाहती हैं। पुस्तक के तेरह अध्यायों को लेखिका ने पीडिताओं के जीवन-प्रसंगों के आधार पर विभाजित कर नामकरण किया है। इन साक्षात्कारों को लेखिका ने डायरी, संवाद और कथात्मक शैली में स्वाभाविक बेबाकी से प्रस्तुत किया है। मैत्रेयी पुष्पा कारनाल स्थित महिला पुलिस प्रशिक्षण केंद्र में इन भर्ती सिपाही लड़कियों से मिलती हैं और उनसे उनके जीवन की दशा और दिशा को जानने का जब प्रयास करतीं हैं तो हर सिपाही लड़की उनके सामने अपने नारकीय शोषण का इतिहास खोलकर रख देती है।

मैत्रेयी पुष्पा स्त्रियों के असुरक्षित अस्तित्व को लेकर अपने सम्पूर्ण लेखन में बेहद बेचैन और चिंतित रहीं हैं। अपनी उस बेचैनी और स्त्रियों के उत्पीड़न की पर्तों को खोलने की उत्कंठा उन्हें इन सिपाही लड़कियों के बीच खींच लाती है जहाँ उनकी अंतश्चेतना उन सिपाही लड़कियों के जीवन प्रसंगों को सुनकर उसे तथाकथित सभ्य समाज के सम्मुख यथावत प्रस्तुत कर स्त्रियों के प्रति एक विशेष सकारात्मक "चेतना" को जागृत करने का प्रयास करती हैं। लेखिका ने प्रस्तुत ग्रंथ को "नई पीढ़ी की बहादुर लड़कियों के नाम" समर्पित किया है। इस पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने दर्शाना चाहा है कि लड़कियाँ पारिवारिक कठघरों को तोड़कर मुक्ति की तलाश में और ताक़त हासिल करने के लिए उस क्षेत्र में हस्तक्षेप करती हैं जिसमें अभी तक उनके लिए सामाजिक मान्यता प्राप्त जगह नहीं थी। लेखिका सोचती हैं कि इस क्षेत्र में आने के बाद क्या इन्हें वह ताक़त मिल पाई जिससे ये अपने मुक्ति संघर्ष को आगे बढ़ा सकें और स्त्री समाज के लिए आपराधिक माने गए मामलों की बेगुनाही साबित कर सकें। मैत्रेयी पुष्पा ने इन्हीं अनुभवों के आधार पर अपना "गुनाह बेगुनाह" उपन्यास रचा है जिसमें महिला सिपाहियों के जीवन की क्रूर सच्चाईयों को उन्होने उजागर किया है। इस संदर्भ में लेखिका ने स्वीकार किया है कि उनका यह उपन्यास इन्हीं फाइटर्स के वृत्तान्त की अगली रचनात्मक कड़ी है। इस पुस्तक में दर्ज साक्षात्कारों के संदर्भ में वे अपना असुरक्षित बचपन याद करती हैं - "मुझे याद आ रहा है वह मंजर, जहाँ मैं नवविकसित बदन की किशोरी थी। पढ़ने स्कूल जाती थी। गाँव से छ: मील दूर था विद्यालय। बस में जाया करती। बसें प्राइवेट ही चलती थीं। ड्राइवर - कंडक्टर मुझे पहचान गए थे, क्योंकि मैं गाँव से पढ़ने जाने वाली अकेली लड़की थी। आने-जाने के दौरान मेरे साथ एक बार नहीं, अनेकों बार ड्राइवर-कंडक्टर ने बदसलूकी की। वे इतनी पीड़ा देते थे, वे इतनी छेड़छाड़ करते कि मैं रोने लगती। बस थाने के सामने होकर निकलती थी, मैं बड़ी हसरत से थाने में उपस्थित सिपाहियों को देखती, लेकिन उनसे डर जाती। वे शिकायत करने वाली औरतों को अकसर रात तक थाने में बिठाए रखते। मैंने कुछ कहा तो मुझे भी बैठा लेंगे, मुझे लेने भी कौन आएगा, मेरे न पिता हैं न भाई। थाना डराता था, बस वाला तड़पाता था। ऐसे पूरी कर रही थी मैं अपनी पढ़ाई।"

मैत्रेयी पुष्पा उन सिपाही लड़कियों की ओर इशारा करते हुए कहती हैं - "काश, तुम होतीं उस थाने में तो मैं भागकर आती और तुमसे लिपटकर रो पड़ती और तुम बिना कहे ही मेरी मुश्किल समझ जाती। समझ जातीं क्योंकि तुम भी लड़की होतीं।" लेखिका के इन उद्गारों को सुनकर सिपाही लड़कियाँ एक-एक कर सामने आकर बोलने लग जाती हैं।

आत्मकथा के दो भाग लिखने वाली मैत्रेयी पुष्पा का माथा इन लड़कियों की आत्महंता स्थितियों और उनका सामना करने के साहस के सामने झुक गया। इसके बाद ही वे इन सिपाही लड़कियों के संघर्ष और साहस को दर्ज करने का बीड़ा उठाती हैं जिन्होंने उनके भीतर के रचनाकार को इस हद तक बेचैन किया।

यह पुस्तक हर तरह के उत्पीड़न, शारीरक और मानसिक हिंसा की शिकार लता, रीना, संगीता, हिना, चाँदनी, सुनीता, अंशु, मंजू, कामिनी, रूबी, पूनम, तृप्ति, प्रीति, शबनम, सुमन, पवित्रा आदि सिपाही लड़कियों की जुबानी अपनी अपनी स्वीकारोक्तियों का मार्मिक संकलन है जो आज के समाज में छिपे हुए सहस्त्रों चेहरों को बेनक़ाब करता है। स्त्रियों के प्रति होने वाले अत्याचारों की अकल्पनीय अमानवीय नृशंसता से मैत्रेयी पुष्पा समाज को रूबरू कराती हैं।

"वर्दी क्या होती जानती है, जानती हो? वह क्या महज कोई पोशाक होती है, जैसा कि समझा जाता है। सुनो वह पोशाक के रूप में "ताक़त" होती है। उसी ताक़त को तुम चाहती हो। जिसको कमज़ोर मान लिया गया है, उसे ताक़त की तमन्ना हर हाल में होगी। हाँ, वह वर्दी तुम पर फबती है। ताक़त या शक्ति हर इंसान पर फबती है। लेकिन फबती तभी है जब वर्दी रूपी ताक़त का उपयोग नाइंसाफ़ी से लड़ने के लिए होता है। यह मनुष्यता को बचाने के लिए तुम्हें सौंपी गई वह ताक़त है, जो तुम्हारे स्वाभिमान की रक्षा करती है। सच मानो वर्दी तुम्हारी शख़्सियत का आईना है।\

स्त्री की कोशिश में अगर ज़िद न मिलाई जाए, तो उसका मुकाम दूर ही रहेगा। सच में औरत की अपनी ज़िद ही वह ताक़त है जो उसे रूढ़ियों, जर्जर मान्यताओं के जंजाल से खींचकर खुली दुनिया में ला रही है। \

नहीं तो सुमन जैसी लड़कियों की पढ़ाई छुड़वाकर उसे घर बैठा दिया जाता।" - इसी पुस्तक से।

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