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विश्व के महान कहानीकार : अंतोन चेखव

 (विश्वविख्यात कहानीकार चेखव की 154 वीं जयंती के अवसर पर)

विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय कहानी लेखक अंतोन चेखव की कलम से 19वीं शताब्दी के मध्य में ही विश्व के सर्वश्रेष्ठ कहानीकारों की अग्रिम पंक्ति में स्थान प्राप्त कर चुके थे। उनके परवर्ती काल के विश्व के सभी महान कथाकारों ने उनकी कहानी कला का लोहा माना है। सन् 1888 में उन्हें रूस का सर्वोच्च सम्मान 'पुश्किन पुरस्कार' प्राप्त हुआ। अति सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं, चरम पीड़ा की वेदना और मनुष्य के दुर्भाग्य का अत्यंत सहज अकृत्रिम चित्रण करने वाले साधारण किस्म के मनुष्य थे। उनकी कहानी कला और नाट्य लेखन ने उन्हें गोर्की, टॉलस्टाय और दास्तोवास्की के जीवित रहते ही किंवदंती पुरुष बना दिया था। गोर्की उनके सरल और जुझारू व्यक्तित्व से प्रभावित थे और उनकी लेखकीय प्रतिभा के प्रबल प्रशंसक थे। गोर्की और चेखव की मैत्री उस युग के रूसी साहित्य जगत में ईर्ष्या का विषय बन चुकी थी। चेखव के अंतरंग होने के कारण मेक्सिम गोर्की ने उनके जीवन और लेखन पर काफी प्रकाश डाला है। गोर्की - चेखव संबंधों की पड़ताल करने पर विश्व साहित्य के जिज्ञासुओं को चेखव के व्यक्तित्व के कई अल्पज्ञात और अज्ञात पहलुओं की जानकारी मिलती है। चेखव का जीवन विचित्र विरोधाभासों से भरा था। रूसी समाज बदलाव की क्रांतिकारी प्रक्रिया से गुज़र रहा था। रूसी बुर्जुवा समाज और सर्वहारा वर्ग के मध्य भयानक वर्ग संघर्ष छिड़ चुका था। रूस में दास प्रथा के अवसान का वह समय था। सामाजिक जीवन में चेखव पीड़ितों के मसीहा और गरीबों के मददगार थे। पेशे से वे डॉक्टर तो थे लेकिन उनका अंत: मानस साहित्य में रमता था। वे जन्मजात प्रतिभावान कलाकार थे। वे लेखकीय जीनियस थे। उन्हें क़िस्सागोई स्वाभाविक रूप से जन्म से ही उपलब्ध थी इसीलिए उनकी कहानी कहने की कला सहज और स्वाभाविकता से लैस हुआ करती थी।

जीवन की छोटी-छोटी बातों में निहित दुखद, कड़ुवाहट को जितनी बारीकी और स्पष्टता से चेखव समझते थे, वैसे और कोई नहीं समझता था। उनसे पहले अन्य कोई भी लेखक लोगों को उनकी बेढब, कूपमंडूकी ज़िंदगी की शर्मनाक और नीरस तस्वीर इतनी निर्मम सच्चाई से नहीं दिखा सका था। ओछी ज़िंदगी से चेखव की शत्रुता थी; वे ताउम्र उससे संघर्ष करते रहे, उसका मज़ाक उड़ाते रहे, अपनी तीखी लेखनी से वे रूसी जीवन में व्याप्त आडंबर और दिखावे का पर्दाफाश करते रहे।

गोर्की ने चेखव की कहानी कला का वर्णन करते हुए लिखा है - "चेखव की कहानियाँ पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है मानो तुम शरद ऋतु के उदास अंतिम दिनों में टहल रहे हो, जब वायु इतनी पारदर्शी होती है और उसमें बूटे पेड़, तंग मकान और धूमिल से लोग इतने स्पष्ट दिखाई देते हैं। सब कुछ इतना विचित्र - एकांत, निश्चल और निश्शक्त लगता है। गहरी नीली दूरियाँ रीती-रीती होती हैं और फीके-फीके आकाश से जा मिलती हैं। ठंड से जमे कीचड़ से भरी ज़मीन पर आसमान सर्द आहें भरता है। लेखक की बुद्धि शरद ऋतु के सूरज की भांति निर्मम स्पष्टता के साथ ऊबड़-खाबड़ रास्तों, टेढ़ी-मेढ़ी गलियों, तंग और गंदे मकानों पर प्रकाश डालती हैं, इन मकानों में दीन-हीन तुच्छ लोगों का ऊब और काहिली से दम घुटा जाता है और वे चूहों जैसी अपनी निरर्थक, उनींदी भाग-दौड़ में लगे रहते हैं।"

टॉलस्टाय को भी चेखव से प्रेम था, वे चेखव के गहरे मित्र थे। दोनों में परस्पर एक दूसरे के लिए अपार स्नेह के साथ आदर और गौरव का भाव कूट-कूट कर भरा था। गोर्की के ही शब्दों में "जब भी चेखव, टॉलस्टाय की चर्चा करते, तो उनकी आँखों में एक ख़ास ही तरह की, स्नेह और संकोच भरी, प्राय: अदृश्य सी मुस्कान चमकती, वह आवाज़ नीची करके बोलते मानो किसी रहस्यमय, दैवी बात की चर्चा हो, जिसके लिए बड़ी सावधानी से, मृदुतापूर्ण शब्द ही उपयुक्त हैं।"

चेखव का जीवन प्रारम्भ से ही प्रताड़नाओं और उत्पीड़न से भरा था, यह सिलसिला अंत तक चलता रहा। वे कुल 44 वर्ष ही जीवित रह पाए। जीवन का हर नया अनुभव उन्हें कड़ुवाहट से भर देती। वे आजीवन बेचैन और अतृप्त रहे। उन्हें न जाने कितनी चिंताएँ एक साथ घेरे रहतीं जिसके बारे में उन्होंने अपने मित्रों को लिखे पत्रों में कुछ कुछ ख़ुलासा किया है। इस दृष्टि से उनका पत्र साहित्य बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने एक मित्र 'लज़ारेव ग्रूजिस्को' को लिखा - "काश! मुझे चालीस साल और मिल जाते, तो मैं खूब पढ़ता और मेहनत के साथ लिखना सीखता। अब क्या है? जैसे दूसरे बौने हैं, वैसा एक मैं हूँ। अभी तक मैंने जो कुछ लिखा है, पाँच-दस साल में लोग सारा कुछ भूल जाएँगे, फिर भी मुझे यह संतोष है कि मैंने जो रास्ता दिखा दिया है, वह ज़िंदा रहेगा। लेखक की दृष्टि से यह मेरी सबसे बड़ी सफलता है।"

17 जनवरी सन् 1860 को एक गुलाम मिख़ाइलोविच चेखव के बेटे पावेल इगोरोविच के घर रूस के एक समुद्र तटीय गाँव 'तागान रोग' में अंतोन (एंटन) चेखव का जन्म हुआ। तब किसे अनुमान था कि यही बच्चा आगे चलकर विश्व-कथा साहित्य का कथा-पुरुष और इतिहास बन जाएगा। अंतोन चेखव के दादा ने गुलामी से मुक्त होने के लिए अपने मालिक को 3500 रूबल भरे थे। अपना प्रारम्भिक जीवन एक दास के रूप में बिता चुकने के बावजूद चेखव के पिता पावेल इगोरोविच संगीत के मर्मज्ञ ही नहीं एक कुशल संगीतकार भी थे। चेखव अक्सर कहा करते थे "अपनी प्रतिभा हमें अपने पिता और आत्मा अपनी माँ से विरासत में मिली।" 17 जनवरी 1860 से 2 जुलाई 1904 के बीच का लगभग 44 वर्षों का चेखव का जीवन कुछ ऐसी असाधारण परिस्थितियों में विकसित हुआ की उसमें चेखव के प्रारम्भिक दिनों की पृष्ठभूमि हमेशा झलकती रही। हालाँकि चेखव ने अपने मित्र सुवेरिन को एक पत्र में लिखा कि 'उसने अपने भीतर से गुलामी की आखिरी बूँद तक निचोड़ फेंकी है', लेकिन यह सही है कि उसके पात्रों में छाई उदासी, निराशा की अमिट छाप उस 'गुलाम' की ही देन है।

चेखव की प्रारम्भिक शिक्षा 'तागन रोग' में ही जारी थी। पढ़ने में फिसड्डी लड़का पता नहीं कैसे स्कूल से डॉक्टरी तक पहुँच गया। एक तरफ अपनी पढ़ाई और दूसरी तरफ पूरे परिवार का बोझ साथ ही अपने भाइयों के दुर्व्यसनों को भी पूरा करने की मजबूरी ने चेखव के जीवन को त्रस्त कर दिया। कर्ज़दार हो जाने के कारण पूरा परिवार बाद में मॉस्को चला आया। मॉस्को आकर उसने डॉक्टरी की पढ़ाई शुरू की। यह जीवन उसके कठिनतम संघर्षों का युग था। चेखव ने ट्यूशन किए, दर्जी के यहाँ नौकरी की और गोर्की के अनुसार - "उसे जवानी की सारी शक्ति जीवित रहने के लिए झोंक देनी पड़ी।" उसने एक से अधिक बार कहा कि "मैंने बचपन जाना ही नहीं।" स्कूल में भी हमेशा संगी-साथीहीन अकेले ही उसका समय बीतता। अपनी 'तीन वर्ष' शीर्षक लंबी कहानी में लैवितन के बचपन के रूप में चेखव ने बहुत कुछ अपना ही जीवन दिया है और इसी सबको को लिखने को एक बार उसने सुवेरिन को पत्र में लिखा था - "यदि तुम लिख सकते हो तो एक ऐसे लड़के की कहानी लिखो जिसे ज़िंदगी में सिवाय दु:ख के कुछ नहीं मिला - अच्छा खाना-पहनना नहीं मिला। मार के सिवा जिससे कभी किसी ने प्रेम से बात नहीं की। स्कूल में हमेशा फिसड्डी रहा और अछूत की तरह माना जाता रहा।"

'एक समझदार पड़ोसी' चेखव की सबसे पहली रचना थी जो 'ड्रैगन फ्लाई' नामक पत्रिका में छपी। उसके बाद वह लगातार लिखते-छपते रहे। उनकी सफलता का पता उन्हें तब तक नहीं चल पाया जब वे सेंट पीटर्सबर्ग पहुँचे जहाँ लोगों ने उनका भव्य स्वागत किया। सिर्फ उन्हें देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। शुरुआती दौर में वे 'ए चेखोंते' के नाम से लिख रहे थे। उन्हें लेखन से ख़ासी अच्छी आमदनी होने लगी। उन्होंने 'अलार्म क्लॉक और ड्रेगन फ्लाई' जैसी पत्रिकाओं में लिखा। लेखन ने ही उन्हें जूझने की ताकत दी। आखिर 1888 में उन्हें पुश्किन पुरस्कार जैसा प्रतिष्ठित सम्मान मिल गया। अब तक वे ऐसे लेखक बन चुके थे, जो उदीयमान लेखकों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते थे। वे स्थापित हो चुके थे। गोर्की और टॉलस्टाय जैसे बड़े लेखक उन पर टिप्पणियाँ करने लगे थे।

पेशे से वे डॉक्टर थे। डॉक्टरी को उन्होंने वैध पत्नी कहा जब कि साहित्य को उन्होंने प्रेमिका स्वीकार किया। वे जब 'मिलीखोव' में बस गए तो रोज़ तीन घंटे मरीजों को देखा करते थे और मुफ़्त इलाज किया करते थे। डॉक्टरी के प्रति वे उतने समर्पित नहीं थे जितना वैध पत्नी के प्रति होना चाहिए।

1890 में जब चेखव के भाई मिखाइल को अपनी कानून की पढ़ाई के दौरान कारावासों के प्रबंधन पर लिखी गई किताबों को पढ़ना पड़ा तो चेखव के भीतर इन कैदखानों की अंदरूनी दुनिया को जानने की इच्छा जागी और उन्होंने सखालिन द्वीप में स्थित एक कुख्यात कारावास की स्थितियों को प्रत्यक्ष रूप से देखने का फैसला किया। इससे पहले एक अन्य लेखक 'केनान' साइबेरिया के यातनागृहों के बारे में लिख चुके थे, इसलिए चेखव को अनुमान था कि उन्हें सखालिन के कारागृहों में जाने की अनुमति नहीं मिलेगी। उन्होंने कारावास प्रबंधन से अनुमति-पत्र प्राप्त करने की कोशिश की, और जब उनके ये प्रयास विफल हो गए तो उन्होंने एक मामूली पत्रकार के 'पास' के जरिये ही सखालिन जाने का निर्णय ले लिया। साइबेरियन रेल लाईन तब तक नहीं बनी थी। तूफानों, असमय बाढ़ और खस्ताहाल सड़कों के बीच से अपना रास्ता तय करते हुए कोई साढ़े छ: हजार मील के लंबे और जोखिम भरी यात्रा पर वे निकल पड़े। यह बड़ी दुर्गम यात्रा थी। घोड़े, घोड़ा-गाड़ी और नाव के सिवा कोई दूसरा साधन नहीं था। बीमारी की हालत में भी उन्हें अपनी परवाह नहीं थी। इस यात्रा से चेखव को अपनी डॉक्टरी के प्रति न्याय करने की धुन सवार थी, इसलिए बर्फ की आँधियों, दलदलों और बाढ़ों की परवाह किए बिना वे आगे बढ़ते गए और साखालिन पहुँचकर ही उन्होंने दम लिया। साखालिन कारागृह में रूस में उम्र कैद पाए कैदी रखे जाते थे। इस यात्रा से उन्होंने विश्व साहित्य को अवश्य समृद्ध कर दिया। चेखव ने इस यात्रा के दौरान अपनी बहन 'मारिया कैसीलोवा' और प्रसिद्ध लेखक 'अलेक्सी सुवोरिन' को ढेर सारे पत्र लिखे। इन पत्रों में उन्होंने संपूर्ण यात्रा वृत्तान्त विस्तार से दिया है। साहित्य के महारथियों ने इन्हें चेखव के पत्र-साहित्य में प्रतिष्ठापित कर दिया। उन्होंने 'साखालिन' नाम से एक पुस्तक लिखी। उस कारागृह की अमानवीय स्थितियों का विशद वर्णन इस पुस्तक में मिलता है। वहाँ कैदियों को कड़कड़ाती ठंड में मारे हुए चूहों की तरह रखा जाता था। उनके साथ जंगली जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता। उन्होंने जाना कि इन कैदखानों में लाखों इन्सानों को पूरी तरह तबाह कर डालने का मुहिम छेड़ रखा है। साखालिन का बाह्य वर्णन करने के लिए यद्यपि उसने 'साखालिन' नाम की पुस्तक लिखी, लेकिन उसकी मानसिक उथल-पुथल का विशद चित्रण उन्हीं दिनों लिखे गए लघु उपन्यास 'टक्कर' में मिलता है। उसकी दूसरी लंबी कहानी 'वार्ड नं 6' तथा 'मेरा जीवन' को आलोचकों ने अधिक महत्त्व दिया है। उन दिनों चेखव - मानस को समझने के लिए 'टक्कर' से अच्छा कोई अदाहरण नहीं है। सुवेरिन को लिखे एक पत्र में उन्होंने साखालिन के बारे में लिखा था - "मेरा तो कहना यह है कि हर एक लेखक को साखालिन अवश्य ही जाना चाहिए। मैं भावुक नहीं हूँ। अगर होता तो यहाँ तक कहने को तैयार हो जाता कि हमें साखालिन जैसी जगहों की उसी तरह तीर्थयात्रा करनी चाहिए, जैसे तुर्क मक्का की करते हैं ... हम मंदिरों में बैठकर मानवता की भलाई की प्रार्थना करते हैं; लेकिन कभी हमने सोचा है, साखालिन जैसी जगहों में मानव पर क्या बीतती है? साखालिन ऐसी असहाय यंत्रणाओं का स्थान है जिन्हें मानव के सिवाय - चाहे वे गुलाम हों या स्वतंत्र - कोई और सह ही नहीं सकता। कल्पना करो हमने लाखों आदमियों को किस तरह सड़ने, मरने और कुत्तों की मौत पाने के लिए वहाँ छोड़ दिया है। कड़कड़ाती ठंड में जंज़ीरों से बांधकर हाँका है। हाँ, हमें अपने देश के कलंक इस साखालिन को देखने की बेहद ज़रूरत है। दु:ख मुझे यह था कि कोई और इस सबको देखने के लिए मेरे साथ नहीं था।" इसके लिए समूची रूसी व्यवस्था ज़िम्मेदार थी। उन सिसकती लाशों को देखने-जानने के अनुभव ने चेखव की आत्मा को बुरी तरह ज़ख़्मी कर दिया। 'संघर्ष' उपन्यास में उनके भीतर पल रही इस बेचैनी का आभास होता है। जाहिर है कि उस समय के रूस में चेखव को अपना 'एक स्वतंत्र कलाकार से अधिक कुछ भी न होने' का सपना काफी असंगत और दोषपूर्ण लगा होगा। संभवत: चेखव के सामाजिक सरोकारों को पुख्ता करने में सखालिन के इन अनुभवों का महत्वपूर्ण योगदान रहा।

चेखव के अन्य जीवनी लेखकों ने - यहाँ तक कि उसके चचेरे भाई मिखाइल चेखव तक ने - उसकी साखालिन - यात्रा को काफी हद तक नज़रंदाज़ किया है। प्रसिद्ध आलोचक 'शुस्तोव' के शब्दो में हमें यह स्वीकार करना होगा कि चेखव की पूरी जीवनी कोई नहीं जानता। फिर भी डेविड मैगार्शक ने इस सिलसिले में उसकी महिला मित्र या प्रेमिका - 'लीडिया एविलोव' -को लिखे गए पत्रों तथा एविलोव की पुस्तक 'मेरे जीवन में चेखव' की ओर ध्यान खींचा है।

चेखव सखालिन से सीधे लौटने की जगह भारत उपमहाद्वीप और सुएज नहर होते हुए जहाज़ द्वारा रूस लौटे। वे जापान भी जाना चाहते थे लेकिन वहाँ फैली महामारी के कारण उनके जहाज़ को वहाँ लंगर डालने की अनुमति नहीं मिली। हिंद महासागर से गुज़रते समय वे अक्सर नहाने के लिए जहाज़ के डेक से समुद्र में कूद जाते और फिर जहाज़ में लटकी रस्सी के सहारे समुद्र में दूर तक तैरते चलते। ऐसा करते हुए एक बार उन्होंने एक बड़ी शार्क मछली को अपने करीब पाया। इस घटना का ज़िक्र उनकी कहानी 'गुसेव' में हुआ है। अपनी सखालीन यात्रा के अनुभवों को उन्होंने अनेक लेखों में प्रस्तुत किया है। इन्हीं अनुभवों पर आधारित उनकी कहानी 'देशनिकाला' बहु-चर्चित हुई। उनके सखालिन लेखों का पीटर्सबर्ग में काफी स्वागत हुआ और कहा जाता है की इसके परिणामस्वरूप सखालिन की जेल संहिता में कई सुधार भी लाये गए।

1886 में चेखव को थूक में खून आने की शिकायत हुई। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। निस्संदेह ये लक्षण क्षय रोग के थे, लेकिन वे जैसे स्वयं ही इसे स्वीकार नहीं करना चाहते थे। उनकी मौज-मस्ती उसी तरह चलती रही, यद्यपि नींद में अक्सर उन्हें भयानक दु:स्वप्न दिखाई देते। ऐसे ही एक दु:स्वप्न से प्रभावित होकर उन्होंने 'काला पादरी' नामक कहानी का सृजन किया था। उन्हीं दिनों चेखव के मस्तिष्क में एक बड़े उपन्यास का विषय रूप ले रहा था और वे उठते-बैठते इसके बारे में सोचते रहते। वे चाहते थे कि यह उपन्यास उनके विचारों को व्यक्त करे, जिसे अपने दोस्त को लिखे गए एक पत्र में उन्होंने इस तरह रखा -

"मैं न उदारवादी हूँ न रूढ़िवादी .. मैं एक स्वतंत्र कलाकार से अधिक कुछ भी होना नहीं चाहता। लेकिन अफसोस है कि ईश्वर ने मुझे इतनी शक्ति नहीं दी है। मुझे झूठ से नफ़रत है और मैं हर प्रकार की हिंसा को नापसंद करता हूँ। अगर मैं एक महान कलाकार होता तो हिंसा और छल से मुक्ति ही मेरा चरम उद्देश्य होता .." लगता है चेखव ने किसी बिन्दु पर जाकर अपने इस उपन्यास को नष्ट कर दिया होगा क्योंकि इसका कोई अवशेष उनकी मृत्यु के बाद उनके कागजों में नहीं मिला।

1896 में उनका मशहूर नाटक 'सी गल' (हिंदी में हंसिनी नाम से अनूदित) पहली बार पीटर्सबर्ग में खेला गया। लेकिन अभिनेताओं की खामियों के कारण यह प्रदर्शन विफल हुआ। इससे चेखव को इतनी निराशा हुई कि मंचन की समाप्ति पर वे बाहर ही नहीं निकले। बाद में जब अभिनेताओं ने अपने किरदारों को अच्छी तरह से समझा तो 'सी गल' के कई सफल प्रदर्शन हुए।

चेखव के पास पुस्तकों का एक अपार संग्रह था। 1896 में उन्होंने इन सारी पुस्तकों को अपने गाँव 'तगान रोग' के सार्वजनिक पुस्तकालय में देने का फैसला कर लिया। पीटर्सबर्ग और मॉस्को से किताबों के अनेक गट्ठर 'तगान रोग' के मेयर के नाम भेजे गए। चेखव ने काफी प्रयासपूर्वक इस पुस्तकालय के लिए व्यवसायिक कैटलॉगों और सरकारी सूचनाओं की पुस्तिकाएँ इकट्ठी कीं, ताकि आवश्यकता पड़ने पर पाठक को सारी जानकारी एक ही स्थान पर मिल सके। आज तागान रोग का वह पुस्तकालय एक बेहतरीन शैक्षणिक संस्थान में तबदील हो चुका है, जहाँ का नया पुस्तकालय भवन चेखव की स्मृति को समर्पित है।

1897 तक चेखव बुरी तरह अस्वस्थ हो चुके थे। उनके फेफड़ों से भयानक रक्तस्राव होने लगा था। डॉक्टरों ने तयशुदा ढंग से ऐलान किया कि क्षय रोग चेखव के फेफड़ों को बुरी तरह जकड़ चुका है। अब उनके लिए किसी भी कीमत पर इस रोग से मुक्ति पाना आवश्यक हो गया। इसके लिए वे फ्रांस में कुछ समय तक 'नीस' में रहे और वहीं से वे अपना लेखन कार्य करते रहे। दिन पर दिन उनकी हालत बिगड़ती जा रही थी। वे स्वास्थ्य लाभ के लिए नए नए जगहों में जाकर रहते। उन्होंने कुछ समय पेरिस में भी बिताया लेकिन उन्हें अपने घर और रूस की बहुत याद आती। चेखव अपनी अस्वस्थता के बावजूद रूस के तमाम छोटे बड़े शहरों में जाकर साहित्यिक गोष्ठियों में भाग लेते, मित्रों से मिलते और अपने नाटकों पर चर्चा करते। 1900 तक उनके साहित्यिक सरोकारों में नाटकों ने सबसे महत्वपूर्ण जगह ले ली थी। मॉस्को के नए थियेटर में उनके नाटकों का नियमित मंचन आरंभ हो चुका था और इस दौरान चेखव ने कई बेहतरीन नाटक लिखे। इसी दौर में उनके सर्वाधिक लोकप्रिय नाटक 'तीन बहनें' की रचना हुई।

25 मई 1901 को चेखव का विवाह मॉस्को आर्ट थियेटर की प्रसिद्ध अभिनेत्री 'ओल्गा निपर' से हुआ। वह उसके नाटक 'सी गल' में आर्कदीना ईरीना निकोलाएवना बनी थी। मॉस्को आर्ट थियेटर में चेखव के नाटकों का नियमित रूप से मंचन होता था, उसी दौरान ये दोनों एक दूसरे के निकट आते गए। विवाह के विषय में चेखव के विचार बड़े विचित्र थे। रोज़-रोज़ दिखने वाली पत्नी के पक्ष में वह नहीं था - वह तो ऐसी पत्नी चाहता था जो चाँद की तरह दिखे और छिप जाए।

मॉस्को के बिना चेखव जीवित नहीं रह सकता था और वहाँ की जलवायु उसे वहाँ रहने नहीं देती थी। इसलिए कभी मॉस्को और कभी मॉस्को से बाहर आते-जाते ही उसका समय बीतता गया। अंतिम दिनों में जब उसकी तबीयत बहुत खराब हो गई तो डॉक्टरों की सलाह पर वे जर्मनी के बेडेनवेलर नामक शहर में चिकित्सा के लिए चले गए, दुर्भाग्य से चेखव की उसकी मृत्यु वहीं हुई। वास्तव में वह इतनी प्रचंड जिजीविषा वाला व्यक्ति था कि उसने कभी हार नहीं मानी। उसने अपने एक मित्र को लिखा था - "बीमारी से लड़ना मेरा स्वभाव बन गया है। बिलकुल ऐसा लगता है कि एक राक्षस है जो हमेशा मेरे सामने रहता है। कभी वह मुझे पछाड़ देता है, कभी मैं उस पर चढ़कर बैठता हूँ।" मृत्यु के कुछ मिनट पहले तक वह अंग्रेज़ों और अमेरिकनों के खाऊपन पर एक ऐसा मज़ेदार किस्सा निपर को सुना रहा था कि वह मारे हँसी के सोफ़े पर दुहरी हो गयी थी। चेखव के अंतिम समय का जो हृदयस्पर्शी वर्णन निपर ने दिया है, वह 'व्यक्ति' चेखव के साहस का अद्वितीय उदाहरण है : 2 जुलाई 1904 को बात करते - करते उसे दौरा आ गया, जीवन में पहली बार उसने डॉक्टर के लिए कहा। डॉक्टर आया तो उसने शैम्पेन दी। बड़े विचित्र ढंग से मुस्कुराकर चेखव ने कहा - 'बहुत दिन हो गए हैं शैम्पेन पिए।' और जर्मन में बोला -'अब मैं जा रहा हूँ'। और वह सचमुच चुपचाप चला गया।

चेखव को नीचता, ओछेपन और गंदगी से सदैव घृणा रही - वह इनका कट्टर दुश्मन था। इनको उसने कभी क्षमा नहीं किया और गोर्की के अनुसार मृत्यु के बाद जैसे इन्हीं सब चीज़ों ने उससे बदला लिया। 'उसकी शवयात्रा में मुश्किल से सौ आदमी थे।'

गोर्की, स्तेनिस्लेव्स्की, प्लेश्चयेव, कोरोलेंकों, टॉलस्टाय इत्यादि चेखव के घनिष्ठ मित्रों में से थे। ओल्गा निपर और एविलोव के पत्रों में, जो प्रेमपत्रों के अद्भुत उदाहरण हैं, उसने जिस ढंग से गोर्की का ज़िक्र किया है, उससे तो ऐसा लगता है कि पुरुष मित्रों में सबसे अधिक स्नेह उसे गोर्की से ही था। एविलोव को उसने लिखा : "तुम गोर्की से मिली हो? देखने में वह आवारा - सा लगता है, लेकिन वास्तव में वह बहुत ही शिष्ट और सभ्य व्यक्ति है। स्त्रियों से बहुत शर्माता है। मैं चाहता हूँ, उसे कुछ स्त्रियों से मिलाऊँ।"

साहित्य की तीन विधाओं में चेखव संसार के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में हैं : कहानी, नाटक और व्यक्तिगत पत्र - और तीनों में ही उसका निश्छल 'महान मानव हृदय' बोलता है। चेखव की कला और विषयवस्तु की एकमात्र विशेषता है - सादगी और बनावट से बचना। कहानी को इतने सादे और सीधेपन से अनायास ही वह प्रारम्भ और समाप्त कर देता है कि पाठक चकित रह जाता है। उसमें तकनीक और शिल्प 'ओ हेनरी' जैसा नहीं हैं। सामाजिक आडंबर को तेज़ नश्तरी चाकू की तरह इस्तेमाल करके वह मोपांसा की तरह पाठक को स्तंभित नहीं करता - बल्कि ऐसी स्वाभाविकता से अपनी कहानी को कहना प्रारम्भ कर देता है कि उसकी कथा, उसके पात्र, वार्तालाप सब कुछ हमारे हृदय की धड़कनों में बस जाते हैं ; बरसों याद रहते हैं!

कथाकार राजेन्द्र यादव के अनुसार "मुझे तो सबसे आकर्षित चेखव की इसी बात ने किया है कि न तो उसमें तीखापन है और न उसके पास 'विलेन' है। व्यंग्य और हास्य, संसार के किसी भी लेखक से उसके पास कम हैं, यह कहना गलत होगा; लेकिन उसका व्यंग्य तिलमिलाने वाला व्यंग्य नहीं, रुलाने वाला व्यंग्य है - जैसे 'दिल का दर्द' या 'दूसरा शमादान' कहानी में। और, जब वह हँसता है तो बिना किसी द्वेष के जी खोलकर हँसता है, जैसे 'अपराधी, गिरमिट' आदि कहानियों में। सचमुच कितने छोटे-छोटे विषयों पर उसने कहानियाँ लिखीं हैं - लेकिन कितनी प्रभावशाली और स्मरणीय ! उनकी 'प्रियतमा' कहानी की आलोचना करते हुए टॉलस्टाय ने लिखा था – "अद्वितीय चुहल और हास्य के बावजूद, मेरी आँखों में तो कम से कम इस आश्चर्यजनक कहानी के कुछ हिस्सों को पढ़कर बिना आँसू आए नहीं रहे।"

उसका स्वयं का विचार था कि आप संसार की हर चीज़ के साथ चालाकी और धोखा कर सकते हैं, लेकिन कला के सामने तो आपको मुक्त हृदय से ही आना होगा। या "साहित्य एक ऐसी मरखनी पत्नी है जो आपसे पूरी ईमानदारी की माँग करती है !" अलेक्ज़ेंद्र को लिखे एक पत्र में उसने लिखा था - "लेखक की मौलिकता उसकी शैली में ही नहीं, उसकी आस्थाओं और उसके विश्वासों के रूप में भी अपने आपको अभिव्यक्त करती है।"

उस युग के तमाम आलोचकों ने स्वीकार किया है कि तत्कालीन रूसी हृदय को समझने के लिए चेखव से अधिक सही, सच्ची और जीवित तस्वीर हमें कहीं मिल सकती। यही वह रूसी हृदय था जो सन् 1917 की महान क्रान्ति के लिए तैयार हो रहा था। अगर चाहें तो कह सकते हैं कि रूसी हृदय की वास्तविकता को चेखव ने पकड़ा और उसकी महत्त्वाकांक्षाओं, परिवर्तन की अदम्य इच्छा को गोर्की ने ऊँचा उठाया। अपनी विवशता को चेखव ने बड़ी ईमानदारी से स्वीकार किया है : "अक्सर मेरी भर्त्सना की गई है - और उन भर्त्सना करने वालों में टॉलस्टाय भी हैं - कि मैंने बहुत छोटी-छोटी चीज़ों पर लिखा है, मेरे पास कर्मठ नायक नहीं हैं, अलेक्ज़ेंद्र और मेकेदोन जैसे क्रांतिकारी नहीं हैं, यहाँ तक कि लेस्कोव की कहानियों जैसे ईमानदार पुलिस इंस्पेक्टर भी नहीं हैं। लेकिन आप बताइए, यह सब मैं कहाँ से लाता? घोर साधारण हमारा जीवन है, हमारे शहर ऊबड़-खाबड़, और गाँव गरीब हैं। लोग जीर्ण-शीर्ण हैं। जब हम लोग बच्चे होते हैं तो चूहों, गिलहरियों की तरह घूरों पर आनंद से खेलते हैं - और जब चालीस पर पहुँचते हैं तब तक बूढ़े हो चुके होते हैं - मृत्यु के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं ... सोचिए तो सही, किस तरह के नायक हम लोग हैं? और इसीलिए उसने जिस यथार्थवाद को अपनाया वह था : "आदमी तभी अच्छा बन सकेगा जब आप उसे दिखा देना कि वास्तव में वह है क्या?" (चेखव - नोटबुक 55)

चेखव की महत्त्वाकांक्षा, अकुलाहट और विवशता सभी को गोर्की की इस कल्पना में कितनी सुंदर अभिव्यक्ति मिली है : "मानो चेखव, उदास और दुःखी ईसा की तरह मुरझाए, निर्जीव और हताश लोगों की भीड़ के सामने गुज़र रहा हो और मन-ही-मन पीड़ा से कराह उठता हो -'भाई, सचमुच तुम बहुत बुरी दशा में हो'।"

इस सहज और स्वाभाविक कथा-वाचक की कलम से सैकड़ों कहानियाँ रची गईं किन्तु चेखव को बाहरी दुनिया में तब तक पहचान नहीं मिलीं जब तक कि प्रथम विश्व युद्ध काल में इनकी कहानियाँ अंग्रेज़ी में अनूदित नहीं हुईं। अनुवाद के माध्यम से ही इस महान रूसी कथाकार की कालजयी कहानियाँ विश्व के सम्मुख उद्घाटित हुईं।

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टिप्पणियाँ

शान्ति प्रकाश जिज्ञासु 2021/05/05 12:34 PM

अंतोन चेखव का शोधात्‍मक परिचय प्रस्‍तुत करने के लिए लेखक को कोटि कोटि बधाइयां ।

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