परिधि–परिधि में घूमता हूँ मैं
काव्य साहित्य | कविता डॉ. तारा सिंह24 Feb 2008
निस्तब्धता से आती आवाज
अब चली आओ तुम मेरे पास
परिधि-परिधि में घूमता हूँ मैं
गंध – गात्र में रहता हूँ मैं
हवाओं की पटि उठाकर, जीर्ण
का शीघ्र विनाश करता हूँ मैं
धरा पर सुंदरता का है मोल क्या
गूढ़ संकेतों में हिलाकर पात देता हूँ मैं
चल रहा जब भू का निर्माण काल
ऐसे में, हँसता नव जीवन का अरुणोदय
छोड़ो यह आस, चली आओ मेरे पास
तुम्हारे मुख की हँसी, होने लगी अब म्लान
कंठ रुँधने लगा, निकलता नहीं पहले सा गान
दृग में है अगर मेरे दर्शन की प्यास
तो छोड़ो सागर समुद्र झरने की आस
तुम चली आओ अब मेरे पास
मैं पिलाऊँगा तुमको अमरता का जल
दिखलाऊँगा कमल – वन का नया प्रभात
जगत की मादकता में अक्षय तत्व नहीं है
न ही आकर्षण में तृप्ति, सुंदरता में अमरत्व है
वहाँ रोते जग की अनित्यता, विषमता का राग है
जलता वहाँ चिता – दीपक में यौवन का हास
छोड़ो मनुज लोक को, चली आओ मेरे पास
घूम –घूमकर कल्पना के जग में
पाँव तुम्हारा गया है थक
मैं दूँगा वह पंख तुमको, जिसे
लगाकर व्योम का कूल – किनारा
दीखेगा तुमको आँखों के पास
चली आओ तुम अब मेरे पास
अब मरु आन बसा है नंदन में
तन की आअग जलती सावन जल में
धर धीर दीवाने की कथा, कोई नहीं सुनता
छोड़ो सोचना, सुधा रहती छुपी पाषाण में
अब जग पहले सा नहीं रह, हर तरफ़
बह रही है यहाँ ज्वलंत आग
तुम चली आओ अब मेरे पास
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