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सीमा

क्यों कहते हो मुझे 
असीमित प्यार करने को 
क़दमों पर चाँद-तारे रखने को 
उन कल्पनाओं की भी तो 
सीमा होती है। 
 
न जाने किस गली में 
उम्र की शाम हो जाये 
और प्यार के शब्दों में विराम 
लग जाये, 
निःशब्द हो जाओगे तब 
क्योंकि शब्दों की भी तो 
सीमा होती है। 
 
अपने दर्द को अपनी 
फीकी मुस्कान से छिपाओगे-दबाओगे
आख़िर कब तक 
छुपाने की भी तो 
सीमा होती है। 
 
दुनिया को बहुत निहारोगे 
लेकिन मुझ-सा न 
पा पाओगे
न दर्द जाएगा न 
सुकून मिलेगा 
फिर भी दूसरा घर बसाओगे
जो पीड़ा छुपी है दिल में 
किस किसको सुनाओगे 
उस पीड़ा की भी तो 
सीमा होती है। 
 
सीमा कितनी भी छोटी हो या बड़ी 
सीमा तो सीमा होती है। 
 
प्यारी लगती है वो सीमा 
जहाँ मर्यादित प्रेम, वात्सल्य और 
संस्कारित समाज हो
क्योंकि उसकी कोई 
सीमा नहीं होती है।

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