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तुम पर क्या ज़ोर चलता बहलने के लिए 


तुम पर क्या ज़ोर चलता बहलने के लिए 
दिल का एक कोना चाहिए टहलने के लिए 
 
कायनात का क्या करें सनम 
हाथ दो ही काफ़ी है कस कर पकड़ने के लिए 
 
क्यों रोज़ रोज़ डराते हो रूठ कर 
धमाका एक ही काफ़ी है ज़मीन दहलने के लिए . . . . 
 
यूँ भी तो होती है इज़्ज़त तार तार 
दो गज़ कपड़ा ही दे दो पहनने के लिए
 
तुम्हें अक्सर रुठने की अदा निराली 
कैसे हुनर पैदा करें तुझे रोज़ मनाने के लिए
 
कितने रोज़ उधार माँग कर लाये 
जितने भी लाये गुज़ार दिए ज़माने के लिए 
 
जब ख़्वाहिश हो चले आइये मेरे हुज़ूर में
सजा रखा है तख़्त-ओ-ताज जनाज़े के लिए
 
हम मोहब्बत के बाग़ सजाये दिल में ‘उमंग’
देखते है कौन आता है इसे उजाड़ने के लिए। 

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