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अब सावन नहीं बरसता 

 

अब आषाढ़ी पूर्णिमा है पर
नहीं बनते दही बड़े और करायल
लगने पर सावन 
नहीं पहनी जातीं हरी चूड़ियाँ 
सखी तुम इस सावन पहन लेना
हरी काँच की चूड़ियाँ
और मेरे लिये भी ले आना। 
 
इस पिज़्ज़ा बर्गर की पीढ़ी में
जाने कौन से वायरस घुसे हैं कि
इन्हें नहींं रास आते पुराने पकवान
नहींं झूमते ये उनकी महकती ख़ुश्बू से 
सखी तू आज फिर सावन तीज पर
सजाना प्लेट सुवाली, अचार और पूवों से। 
 
सखी देख सुन तू ज़रा
प्रीत-रीत दोनों से अनभिज्ञ 
मोबाइल और लैप टॉप ने बड़ा किया जिन्हें 
जो यान्त्रिक होकर रह गये हैं
तू उन्हें बता अपनी पुरातन संस्कृति का महत्त्व
उनमे जगा विश्वास उस उत्सव के प्रति
जहाँ सावन तीज का मतलब
पूरे समुदाय का मिलन होता था
जहाँ सावन प्रेम उत्सव होता था। 
 
सखी मैं आज भी खो जाती हूँ 
अतीत की स्मृतियों के झुरमुट में 
वो हरी चूड़ियाँ 
वो हरी फ्राक 
माँ के हाथ की बनी 
आज भी मेरा मन
हर्षाती है
मेरी आँख से नींद चुराती है। 
 
वो इमली केे पेड़ पर पड़ा झूला 
और वो लंबी-लंबी पींगें
वो सावनी मल्हार, वो कजरी 
और वो मेहँदी लगे हाथ
मेरी स्मृतियों में 
आज भी शेष हैं। 
 
देख न सखी आज 
वो कजरी के गीत 
न जाने कहाँ खो गये 
वो भावनायें मूल्यहीन हो गई
न त्योहार ही रहा और 
न प्यार ही अब दीखता है
तब सावन बरसता था 
मन भीगते थे 
अब सावन बरसता है 
पर अब मन रीते ही रह जाते हैं। 
अब न झूले हैं न झूलों की पींगें ही। 
अब सावन नहीं बरसता 
अब बच्चे काग़ज़ की नाव नहीं बनाते। 
 
सखी अब सावन पर 
एक मौन दिखाई देता है
सुन तू इस चुप्पी को तोड़
इन आसमान में छाये बादलों को
बोल कि आज ये बरसें
और तू और मैं गायें कोई मल्हार
सखी आज फिर मनाएँ
सावन तीज का वो त्योहार। 

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