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ज़हमत

 

रामेश्वर आज उम्र के उस मोड़ पर हैं जहाँ सपने बुनने की बजाय पहले से बुने सपनों को पूरा करने के लिए आँखों को टकटकी लगाने की ज़रूरत पड़ती है। जब जवान थे तो एक ऐसी लड़की को पत्नी बना घर ले आए जो बहुत ग़रीब परिवार से थी, सोचा था कि बूढ़े माँ-बाप की सेवा करेगी लेकिन धीरे-धीरे पता चला कि परमेश्वरी नाम भर की परमेश्वरी है, मानसिक रूप से कमज़ोर भी है। माँ-पिता बेटे की चिंता में दुनिया छोड़ गए। रामेश्वर साहब वंशानुक्रम और वातावरण दोनों के प्रभाव से बच्चों के विकास क्रम से भी भली-भाँति परिचित हैं। 

उन्हें उम्र के इस मोड़ पर बच्चों की शिक्षा में रुचि का कारण वंशानुक्रम जान पड़ता है। कभी-कभी विचलित भी हो जाते हैं और उग्र भी। 

कल बेटे का एग्ज़ाम है और आज उसकी अलमारी में किताबें न होने से वे बेटे से ज़्यादा स्वयं विचलित हैं। 

“किताबें ग़ायब हैं, एग्ज़ाम में क्या ख़ाक लिखोगे?” उन्होंने बेटे से कहा। 

“एग्ज़ाम मेरा है या आपका, जो आप इतने ख़फ़ा है?” 

“बदतमीज़, इतनी भी तमीज़ नहीं कि बाप से कैसे बात की जाती है?” रामेश्वर थोड़ा आवेशित हो जाते हैं। 

“पिताजी आपको इस उम्र में अपने काम से काम रखना चाहिए,” कहकर बेटा दूसरे कमरे में जाने लगा। 

“सुनो साहबज़ादे, अनपढ़ औलाद और बददिमाग़ औरत कोढ़ के समान होती है। और ये दोनों कोढ़ मेरी ज़िन्दगी का नासूर बने हैं। जितना ख़र्च तुम लोगों पर कर रहा हूँ, उसके चौथाई ख़र्च में एक नौकर रख पूरी ज़िन्दगी सुकून से जीता,” कहकर वे कुर्सी पर एक ओर निढाल से हो गए। 

पत्नी और बेटे ने डॉ. को बुलाने की ज़हमत भी नहीं समझी।

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टिप्पणियाँ

Subhash chandra lakhera 2025/05/10 03:26 AM

अच्छी लघुकथा !

कृपया टिप्पणी दें

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