असमय की एक कविता
काव्य साहित्य | कविता सन्दीप तोमर1 May 2024 (अंक: 252, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
आजकल एकदम ख़ाली हूँ
इतना ख़ाली कि मेरे हिस्से
कोई काम ही नहीं बचा,
कभी समय मुझ पर हँसता है
कभी मैं समय पर
और यह भी क्या इत्तिफ़ाक़ है
मेरा समय सापेक्ष होना
मुझे निरपेक्षता का सिद्धान्त समझा रहा है
वैसे न समय मेरे साथ है और
न ही मैं ही समय के साथ
जो लोग समय की रट लगा
दुहाई देते थे
अब पास नहीं फटकते,
मौत का ख़ौफ़ कभी रहा नहीं
आज भी नहीं है लेकिन
मैंने देखा है क़रीब से मौत को
एक नहीं, तीन-तीन बार
लोगों ने कहा कि मृत्यु ही सत्य है
लेकिन सत्य तो जीवन ही है
ऐसा न होता तो सब
जीने को लालायित न होते
हाँ, आज मैं महसूस कर रहा हूँ
मौत को भी उतने ही क़रीब से
जीतने क़रीब से जीवन को देखा
मेरी बैशाखी की टक-टक की आवाज़
क़रीब आती मौत का बुलावा है
मौत ने बना लिया है एक ओरा
मेरे इर्द-गिर्द,
कहते हैं—सात ऊर्जा स्तर हैं
जो मेरुदंड के गिर्द ऊर्जा चक्र की तरह
रहते हुए सुरक्षारत हैं
ये इंद्रधुनषी रंगों से शुद्ध और चमकदार बन
स्वस्थ रखते तो कभी
चमकविहीन हो करते बीमार भी
अगर ऐसा है तो
फिर इंतज़ार किया जा सकता है
एक बार फिर से मौत का
चेहरा, पीठ, ज़ुबान सब कुछ ही तो अब
समय की छाप दिखा
चिढ़ा रहे हैं पल-पल
मौत से पहले कुछ काम कर लेना चाहता हूँ
इस ख़ाली समय में
कब से गाँव नहीं गया
बचपन के दोस्त, खेल, प्रेम, झगड़ा
सब पर सोचने का ये माकूल वक़्त है
बहुत से हिसाब-किताब हैं जो अब
चुकता कर लेने चाहिए,
एक इच्छा थी कि जब कभी
ख़ाली समय होगा
दिन भर मदिरा पान करूँगा
वक़्त है लेकिन प्याला नसीब कहाँ
साक़ी और हमप्याला भी नहीं कोई,
एक अरसा हुआ जब ख़रीदी थी कुछ और किताबें
बंडल पड़ा है लाइब्रेरी की किसी दराज़ में
सोचता हूँ-उन्हें निकाल सजा दूँ हर सफ़े में
ट्रोफियों पर भी तो जम गया है
धूल का एक पूरा अम्बार
जिन पर लिखी उपलब्धियाँ अब पढ़ नहीं पाता
ख़ाली समय में मौत का इंतज़ार करना
कितना असहज कर रहा
ज़िन्दगी के बेतरतीब पन्ने खुल रहे हैं
मैं पढ़ लेना चाहता हूँ हर वो पन्ना
जिसे पढ़ने का वक़्त ही नहीं मिला कभी,
कुछ दोस्त जो छोड़ गए हैं साथ
उनको याद कर लेना या फिर
उस व्यक्ति पर दया दिखाना
जिसकी बीवी छोड़ गयी
चार बच्चों को उसके भरोसे,
पानी का घड़ा भी तो बदलना है
जो पिछली गर्मी में भी रिस रहा था
टपकती छत की मरम्मत भी लाज़िमी है
बूढ़े हो चुके पिता का
हाल भी तो नहीं पूछा एक अरसे से
उनकी दवा का पर्चा भी चिढ़ाता है,
बचपन की सहेली का हाल-समाचार भी जानना है,
मौत से पहले का समय
अचानक कितना अहम लगने लगा है
मैं इसका भरपूर उपयोग कर लेना चाहता हूँ।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
पुस्तक समीक्षा
लघुकथा
सामाजिक आलेख
सजल
कविता
कहानी
स्मृति लेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं