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विषपान

 

दुर्गम और ढेर सारी घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी है मानव का जीवन। संसार रूपी महासागर जहाँ हर छोटा जीव अपने से बड़े जीव से डरता है और स्वयं को बचाने के लिए संघर्षरत रहता है। व्यक्तियों की आकांक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास, स्वयं को हर जगह सही प्रमाणित करने का दबाव। यह स्वयं से युद्ध करने जैसा ही है। 
बहुत से लोगो के मन में प्रश्न आता होगा कि, क्या जीवन सरलता से जी सकते हैं? 

हम यह मानती हैं कि, हाँ हम जीवन को सरलता से जी सकते हैं लेकिन तब आपको अपने सामने खड़े व्यक्तियों की आकांक्षाओं को शून्य समझना होगा। ऐसा नहीं है कि शून्य का कोई मोल नहीं होता, होता है लेकिन आप पर दूसरों की आकांक्षाओं पर स्वयं को खरा उतरने का दबाव नहीं होता। 

प्रत्येक व्यक्ति की आकांक्षाओं का बोझ लेकर अधिक दूर नहीं जा सकते हैं परन्तु संसार में रह कर आप एक दूसरे से प्रभावित हुए बिना भी नहीं रह सकते। 

जीवन के इसी चक्रव्यूह से बचने के लिए स्वयं को शिव समझो और जीवन के विष को गले तक ही रखो। उसे हृदय तक मत जाने दो, यदि विष हृदय तक पहुँचा तो आपकी भावनाओं और आशाओं को आहत करेगा। 

संसार रूपी क्षीरसागर जहाँ प्रति दिन समुद्र मंथन चलता रहता है और एक दूसरा क्षीरसागर आपके अन्दर भी रहता है वह है आपका पेट, अपने पेट को भरने के लिए व्यक्ति कड़ी मेहनत करता है यहाँ तक चोरी करने से भी नहीं चूकता परन्तु यह क्षीरसागर रूपी पेट कभी नहीं भरता। 

अच्छा यही है कि आप बुद्धि रूपी विष्णु का ध्यान रखते हुए सतकर्म से ही अपना क्षीरसागर रूपी पेट भरो और हृदय रूपी लक्ष्मी तक लोभ के विष को मत पहुँचने दो। 

यह कहानी है शम्भु की जो अपने जीवन को घोर कठिनाइयों के बाद भी सरलता से जी रहा था। शम्भु के परिवार में उसकी पत्नी भद्रा और एक बेटी थी जिसका नाम प्रवाह था। शम्भु की माँ पोते की लालसा लिये ही संसार से विदा हो गयी थी। शम्भु और उसकी पत्नी भद्रा को पुत्र ना होने का कोई मलाल नहीं था। वह अपनी बेटी प्रवाह को बहुत अधिक प्रेम करते थे। हवा की भाँति चंचल प्रवाह अपने माता पिता के प्रेम में सनकर थोड़ी हठी हो गयी थी। 

शम्भु का एक छोटा सा होटल था जिससे अच्छी ख़ासी कमाई हो जाती थी। सब कुछ सामान्य घट रहा था। 

प्रवाह बड़ी हो रही थी और बढ़ रहीं थीं उसकी इच्छायें। वह किसी भी प्रकार अपनी मनचाही वस्तु को पाना चाहती थी। भद्रा ने बड़े प्रेम के साथ प्रवाह को समझाया भी कि तुम्हें अपनी इच्छाओं पर लगाम लगानी चाहिए लेकिन प्रवाह पर पश्चिमी सभ्यता का रंग हावी हो गयी था धीरे-धीरे प्रवाह के ख़र्च बढ़ने लगे। एक दिन कॉलेज जाते समय प्रवाह ने अपने पिता से कहा, “पिताजी मुझे अपनी सहेलियों के साथ बाहर घूमने जाना है मुझे दस हज़ार रुपये चाहिएँ।” 

शम्भु प्रवाह से बोले, “बेटी दस हज़ार रुपये बहुत ज़्यादा है। दो तीन हज़ार से ही काम चला लो।” 

प्रवाह ग़ुस्सा होते हुए बोली, “आप को आजकल के जीवन का पता नहीं है। सभी बाहर घूमने जाते हैं। बड़े बड़े होटलों में खाना खाते हैं . . . महँगे कपड़े, महँगा मोबाइल उपयोग करते हैं। एक मैं ही हूँ, जो इतने साधारण तरीक़े से रहती हूँ।” 

प्रवाह पैर पटकते हुए कमरे से बाहर निकल गई। 

शम्भु प्रवाह की बातों पर केवल मुस्कुरा दिए क्योंंकि प्रवाह उनके लिए अभी बच्ची ही थी। 

भद्रा ने कमरे में प्रवेश किया और शम्भु से बोली, “देखो जी! प्रवाह से सख़्ती से बात किया करो यह बिगड़ती जा रही है। अपनी सीमा से अधिक ख़र्च करने के लिए सोचती है प्रवाह।” 

शम्भु भद्रा को समझाते हुए बोले, “प्रवाह अभी नादान है। किशोर उम्र में ऐसा ही होता है। माता-पिता कमअक़्ल और मित्र सही लगते है इस उम्र में . . . थोड़ा संयम से काम लो और प्रेम से समझाओ।” 

एक रात शम्भु अपनी कुर्सी पर गंभीर मुद्रा में बैठे थे। गृहकार्य से निवृत्त होकर भद्रा कमरे में आयी तो देखा कि शम्भु का ध्यान कहीं और ही था। भद्रा ने शम्भु से पूछा, “क्या बात है? आप चिंतित लग रहे हो।” 

“आजकल होटल का धंधा बहुत मंदा चल रहा है। हमारे होटल के बग़ल में ही एक बड़ा-सा होटल बन गया है। अब लोग वहीं जाने लगे हैं। इस बार काम करने वालो की पगार भी बड़ी मुश्किल से दी है मैंने,” शम्भु ने गंभीर स्वर में भद्रा से कहा। 

“आप चिंता मत कीजिये। ईश्वर सब ठीक करेंगे,” कहते हुए भद्रा शम्भु का सिर दबाने लगी। 

“गर्मियों की छुट्टियाँ चालू हो गयी हैं पिताजी . . . मुझे अपनी सहेलियों के साथ मनाली जाना है,” प्रवाह ने शम्भु से कहा। 

शम्भु प्रवाह को समझाते हुए बोले, “बेटी . . . जितनी चादर हो उतने ही पाँव पसारने चाहिए। तुम अपने अमीर मित्रों की होड़ मत किया करो।” 

तभी भद्रा भी बोल उठी, “प्रवाह इन गर्मियों की छुट्टियों में तुम अपनी नानी के घर वृंदावन जाओगी। तुम्हारे पिताजी का धंधा ठीक नहीं चल रहा है। बीस हज़ार रुपये नहीं है तुम्हें देने के लिए।” 

प्रवाह चीखते हुए बोली, “मुझे नहीं जाना है वृंदावन। मैं अपनी सहेलियों के साथ मनाली जाऊँगी। जब भी मैं आप लोगो से पैसे माँगती हूँ आप लोगों का नाटक चालू हो जाता है। ‘कम ख़र्च करो . . . सीमा में रहो . . .’ यह सब सुनकर मैं थक गयी हूँ। मुझे नहीं रहना इस घर में . . .। मेरा दम घुटता है यहाँ . . .”

भद्रा ने इतना सुनते ही एक ज़ोर का चाँटा प्रवाह के गाल पर जड़ दिया। 

प्रवाह चाँटा लगते ही रोने लगी और अपने कमरे में जाकर रोने लगी। 

शम्भु भद्रा से बोले, “यह क्या किया? भद्रा! जवान बेटी है और तुमने उसे चाँटा मार दिया। सयंम से काम क्यों नहीं लेती हो? कहीं चली गई, कुछ कर लिया, तो हम क्या करेंगे? एक ही तो संतान है हमारी।” 

भद्रा ग़ुस्से से बोली, “बस सयंम का पाठ आप मुझे ही पढ़ाते रहिये। प्रवाह कितनी असभ्य हो गयी है क्या ये आपको नहीं दिखता?” और भद्रा रोने लगी। 

शम्भु अगले दिन होटल पहुँचा तो सन्नाटा पसरा था। एक दो नौकरों को छोड़कर होटल में कोई नहीं था। शम्भु ने नौकरों से पूछा, “क्या हुआ? आज कोई आया क्यों नहीं?” 

नौकर बोला, “साहब . . . बग़ल वाले होटल में काम करने वालों की आवश्यकता थी और वो पगार भी अच्छी ख़ासी दे रहे हैं इसलिए सभी बड़े होटल में काम करने चले गए हैं। कल से मैं भी उसी होटल में काम करूँगा।” 

शम्भु होटल में अकेले बैठे हुए, अपने आसपास पसरे सन्नाटे को अनुभव कर रहे थे। 

दिन इसी प्रकार बीत रहे थे और दिन हफ़्ते बनने लगे और हफ़्ते महीने में बदलने लगे। 

होटल की बिजली का बिल, टैक्स आदि के लिए शम्भु ने बैंक से रुपये निकाले। 

शम्भु मन ही मन विचार कर रहा था कि अब ख़र्च कैसे चलेगा? 

शम्भु ने यह सभी बातें भद्रा को नहीं बतायीं क्योंकि वह उसे दुखी नहीं करना चाहता था। 

इधर प्रवाह अपने पिता की परेशानी से अनभिज्ञ बीस हज़ार रुपये लेने की हठ पर डटी थी। 

थक हारकर शम्भु ने बैक से बीस हज़ार रुपये निकाल कर प्रवाह को दे दिए। 

शम्भु धैर्य के साथ इस विपत्ति का सामना कर रहे थे। 

कुछ और महीनों बाद परिस्थितियाँ और भी दुष्कर हो गयी थीं। शम्भु ने घर में बिना किसी को बताये होटल बेच दिया। 

शम्भु रोज़ की भाँति चुपचाप खाना खाकर घर से निकल जाते। भद्रा यही समझ रही थी कि शम्भु होटल में जाकर बैठते हैं और प्रवाह समझती कि उसके पिता के पास ढेर सारा पैसा है लेकिन कंजूसी के कारण वह पैसा देने में आनाकानी करते हैं। 

सर्दियाँ आ गयी थी। प्रवाह अपने मित्रों के साथ एक होटल में काफ़ी पीने गयी। प्रवाह अभी टेबल तक पहुँची ही थी कि उसे अपने पिता वेटर की पोशाक में दिखे। प्रवाह ने अपने पिता को ऐसे देखा तो उसके चेहरे का रंग उड़ गया। वह अपने मित्रों से बोली, “मुझे बैचैनी हो रही है। ऐसा लगता है कि मुझे बुख़ार आने वाला है मैं घर जा रही हूँ,” कहते हुए प्रवाह होटल के बाहर चली गई। 

प्रवाह घर लौट आई और सीधे आकर अपने कमरे में लेट गयी। 

भद्रा ने सोचा यह नकचढ़ी लड़की फिर से किसी बात पर मुँह फुलाये है इसलिए उसने प्रवाह पर कोई ध्यान नहीं दिया। 

इधर प्रवाह के मस्तिष्क को ज़ोर का झटका लगा था। वह कल्पना नहीं कर सकती थी कि उसके पिता नौकरों की भाँति होटल में खाना परोसते हुयें दिखेगे। 

अगले दिन प्रवाह अपने पिता के होटल पहुँची तो पता चला कि बग़ल वाले बड़े होटल के कारण उसके पिता पर बदहाली के बादल छा गये और इसीलिए उन्होंने होटल बेच दिया। 

प्रवाह का हृदय आत्म ग्लानि से भर गया। वह अपने को गिरा हुआ अनुभव कर रही थी। 

प्रवाह ने कई जगह नौकरी के लिए आवेदन डाल दिए। 

भद्रा सभी बातो से अनभिज्ञ गृह कार्य में उलझी रहती। 

शम्भु रोज़ की भाँति खाना खाकर निकल जाता। 

अब प्रवाह भी नौकरी के लिए इंटरव्यू देने चली जाती 

फिर एक दिन प्रवाह को एक अच्छी नौकरी मिल गयी। 

शम्भु आज सवेरे सवेरे प्रवाह को जल्दी तैयार होता देखकर बोले, “प्रवाह . . . कहीं घूमने जा रही हो बेटी?” 

“आज मेरी नौकरी का पहला दिन है पिताजी . . . मुझे आशीर्वाद दीजिए,” प्रवाह ने कहा। 

शम्भु चौक कर बोले, “नौकरी? . . . अभी तो तुम्हारी पढ़ाई अधूरी है। तुम्हें नौकरी करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अभी तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो।” 

प्रवाह ने उत्तर दिया, “पिताजी . . . आप चिंता ना करें। मैं नौकरी के साथ पढ़ाई भी पूरी कर लूँगी।” 

प्रवाह के जाने के बाद शम्भु भद्रा से बोले, “तुमने कुछ कहा है क्या? प्रवाह से।” 

भद्रा बोली, “मैंने तो कुछ नहीं कहा। उसकी इच्छायें नहीं पूरी हो रही होंगी इसलिए नौकरी करना चाहती है। वैसे ठीक ही है, जब कमाकर ख़र्च करेगी तो आटे-दाल का भाव समझ आयेगा।” 

एक महीने के बाद प्रवाह अपने पिता के कमरे में आई और अपनी पगार देते हुए बोली, “पिताजी यह लीजिये मेरी पहली कमाई। अब आपको दूसरों के होटल में जाकर नौकरी करने की आवश्यकता नहीं है। मैंने आपको बहुत कष्ट दिये हैं लेकिन अब से मैं एक ज़िम्मेदार बेटी बन कर दिखाऊँगी।” 

प्रवाह के मुँह से अपना भेद जानकर शम्भु की आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने प्रवाह को गले से लगा लिया। 

दरवाज़े की ओट में खड़ी भद्रा बातों को सुनकर रोने लगी और अपनी हिचकियों को छुपाने का प्रयास करती हुई, रसोई की ओर बढ़ गयी। 

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