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हिन्दी भाषा को आंदोलित करती—नवीन विधा सजल

 

“हिन्दी भाषा के उत्थान एवं सम्मान के स्वर को साहित्य में पिरोने में तत्पर सजल, वर्तमान में मुखर होकर रचनाकारों की लेखनी में दौड़ रही है।”

1700 ई. के आसपास दखिनी के प्रसिद्ध कवि शम्स वलिउल्ला ‘वली’ दिल्ली आए। आरंभ में वलिउल्ला ने अपनी काव्य भाषा दखिनी में ही लिखा, परन्तु बाद में उनके काव्य में फ़ारसी शब्दों का प्रयोग बढ़ता चला गया और हिन्दी के शब्दों को ढूँढ़ कर निकाला जाने लगा। जिसके कारण हिन्दी ने अपना मूल स्वरूप खो दिया। बाद में कुछ अंग्रेज़ी के शब्द भी हिन्दी की शब्दावली में आकर बैठ गए उदाहरण के लिए—प्लेटफ़ॉर्म, टिकट इत्यादि। विदेशी शब्दों की बाहुल्यता ने हिन्दी को खिचड़ी बोली बना दिया। संभवतः यह खिचड़ी बोली भी नहीं थी क्योंकि यहाँ अवधी, भोजपुरी, तमिल, तेलगु और कन्नड़ आदि भारतीय भाषाओं के शब्द तो थे ही नहीं। मेरा मानना यह है कि भारत की बोली, भाषा के मिले-जुले रूप वाली हिन्दी भाषा मान्य हो सकती है परन्तु विदेशी शब्दों का बाहुल्य हिन्दी को बिगाड़ता है।

आजकल बहुत से लेखक प्रश्न उठाते हैं कि हिन्दी में विदेशी शब्दों के प्रयोग से हिन्दी प्रेमियों को क्या कष्ट है? अंततः यही भाषा तो प्रचलन में है। इस पर मेरा कहना यह है कि बहुत से साहित्यकारों को हिन्दी भाषा में विदेशी शब्दों को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु भारत की ही तमिल व तेलगु सहित अनेक भाषाएँ हिन्दी से कटी–कटी सी रहती हैं इस पर क्यों कोई बात नहीं करता? हिन्दी-उर्दू मौसेरी बहनें हैं ऐसा कहने वालों की जीभ नहीं थकती लेकिन वह कभी इस पर विचार नहीं करते कि अन्य भारतीय भाषाएँ भी हिन्दी के साथ क़दम–ताल मिलाकर चलें। अन्तरराष्ट्रीय साहित्य कला मंच, मुरादाबाद की अलीगढ़ शाखा— अन्तरराष्ट्रीय श्यामा साहित्य कला संगम ने मेरी भाषा मेरा मान कार्यक्रम चलाकर सभी भारतीय भाषाओं व बोलियों को एक मंच प्रदान किया है। ऐसा प्रयास अन्य संस्थाओं द्वारा भी होना चाहिए।

समाज में सभ्यताओं के बनने और बिगड़ने का क्रम चलता रहता है। जिसके फलस्वरूप अलग-अलग सभ्यताएँ एक दूसरे की सीमा में सेंधमारी कर अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करती हैं और जो सभ्यता विजयी होती है वह अपनी संस्कृति, साहित्य व कला को समाज में स्थापित करती है। यहाँ मेरा कहना यह है, “वह सभ्यता कदापि समाप्त नहीं हो सकती जिसकी भाषा, कला व संस्कृति स्वदेशी हो।”

यही वह कारण था कि जो सभ्यताएँ भारत पर शासन करने के उद्देश्य से आईं उन्होंने अपने शब्द हिन्दी में उड़ेलने आरंभ कर दिए। हिन्दी को निर्बल कर विदेशी शब्दों की गोटियाँ बिछाईं और उनका यह प्रयास सफल भी हुआ। इसी कारण बहुत से दशकों तक हिन्दी अपनी जननी संस्कृत से नेत्र मिलाने का साहस नहीं कर पाई।

उर्दू ग़ज़ल ने कवियों को इतना लुभाया की वह प्रेम, मुहब्बत की पंक्तियों तक ही सिमटने लगे। ग़ज़ल शब्द का अर्थ ही यही है कि जिसमें नायिका के सौन्दर्य की व उससे उपजे प्रेम की बात हो। जबकि हिन्दी साहित्य का उद्देश्य अत्यंत विराट रहा है—देशभक्ति, मानवीय मूल्यों, आध्यात्म, पर्यावरण सहित अनेकों विषयों पर लिखकर जन–मानस को चेतनावान बनाने का कार्य हिंदी साहित्य के द्वारा किया जाता रहा है। ऐसे में मात्र शृंगार की पंक्तियाँ मंचों से सुनाई जाने लगें तो हिन्दी साहित्य का चिंतातुर होना स्वाभाविक है। यहाँ हम एक बात स्पष्ट करते चलें कि, मेरा विरोध न ही उर्दू से है न ही ग़ज़ल से, विरोध इस बात का है कि उर्दू के शब्दों ने हिन्दी में सेंधमारी कर स्वयं को हिन्दी बताया और भावी पीढ़ियों को छला। हिन्दी में उर्दू के शब्दों की अधिकता बढ़ी और लोग हिन्दी के शब्द भूलने लगे। ग़ज़लों को काव्य सम्मेलनों में बहुत स्थान मिलने लगा और हिन्दी का मानव अपनी अप्रकाशित प्रतिभा के साथ श्रोता बन कर रह गया। कुछ कवि ग़ज़ल के प्रति लोभी होकर ग़ज़ल लिखने व सुनने लगे। अब जो चलन में हो वही काम करने की प्रवृत्ति मनुष्य में होती है। ग़ज़ल के माध्यम से उर्दू को अधिक विस्तार मिला अब उर्दू के 75% के लगभग शब्द हिन्दी भाषा में अपनी पैठ बना चुके थे तो बताइए हिन्दी कहाँ रही। वैसे भी उर्दू को उर्दू और हिन्दी भाषा को हिन्दी ही रहने देना चाहिए। इसी में हिन्दी व उर्दू दोनों का हित बना रहता। तब यह कहना अधिक उपयुक्त होता कि हिन्दी–उर्दू मौसेरी बहनें हैं लेकिन हुआ यह कि भाषा के आखेटकों ने हिन्दी और उर्दू को एक दूसरे का विरोधी बना दिया। कोयल के घोंसले में कौआ अपना बच्चा रखकर उसे कोयल का बच्चा कहकर, कोयल को पालने को बाध्य करे तो क्रोध आना ही चाहिए।

शब्दों की संस्कृति व उनके अर्थ, मेरा मानना यह है कि किसी भी भाषा के शब्द उसकी संस्कृति के संवाहक होते हैं और भाषा से ही उस समाज की संस्कृति को पहचाना जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि पति व पत्नी विवाह के उपरांत साथ में नहीं रहना चाहते तो उसके लिए उर्दू में तलाक़ और अंग्रेज़ी में डिवोर्स शब्द है। क्योंकि जिस सभ्यता में उर्दू व अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग होता है वहाँ पति–पत्नी अपने वैवाहिक जीवन से संधि–विच्छेद कर सकते हैं। ऐसे अनेक शब्दों के उदाहरण दे सकते हैं। परन्तु मेरा उद्देश्य किसी विवाद को उत्पन्न करना नहीं है बल्कि यह बताना है कि हिन्दी के शब्द, भारतीय संस्कृति का बोध कराते हैं। उसमें यदि विदेशी भाषा के शब्द बैठ जाएँ तो शब्दों के अर्थ को अन्यथा भी लिया जा सकता है।

अब बात करते है सजल की—सजल विधा के प्रादुर्भाव का उद्देश्य एक और गीतिकाव्य की स्वतंत्र विधा को स्थापित करना तो कदापि नहीं था। हिन्दी को पुनः उसका वास्तविक स्वरूप लौटाने का शंख फूँकती सजल विधा में केवल हिन्दी की शब्दावली और व्याकरण ही मान्य है। इस कारण से सजल लिखने वालों में हिन्दी के ज्ञान की वृद्धि भी होगी व हिंदी के प्रति प्रेम का भाव भी उत्पन्न होगा। द्विपंक्तिक सजल विविध स्वतंत्र कथ्यों से गुँथी सांकेतिक अभिव्यक्ति को आधार बनाकर प्रतीकों, मुहावरों, बिम्ब आदि से सुसज्जित होती है।

सजल-विधा के शिल्प को सुंदर ढंग से व्यक्त करती सजलकार विजय राठौर की सजल सप्तक-7 की यह पंक्तियाँ:

मिलाएँ पाँच पदिकों को, सभी की एक ही लय हो।
अलग हो कथ्य सबका, सप्त-तल की बात करते हैं॥

सजल के महाभियान में निरंतर अपनी सजल के माध्यम से योगदान देते विजय राठौर की यह पंक्तियाँ सजल के प्रति आत्मीयता का भाव दर्शाती हुई, आइये इन पंक्तियों को देखें:

चलो बैठो यहाँ अब हम सजल की बात करते हैं।
हज़ारों प्रश्न है सम्मुख कि हल की बात करते हैं॥

            (हिंदी सजल स्वरूप और विकास–पृ. २०)

सजल के महायज्ञ में पूर्णरूप से समर्पित रेखा लोढ़ा “स्मित” की यह पंक्तियाँ देखें:

जितनी झुके झुका लो डाली।
कोई वार न जाए ख़ाली॥

कसकर भिंची मुट्ठियाँ उसकी।
कौन बजाएगा अब ताली॥

                     (सजल शतक-1पृ. 74)

सजल प्रवर्तक डॉ. अनिल गहलौत की यह प्रेरणादायक सजल–पंक्तियाँ सजल के प्रति महान भाव को उजागर करती हैं:

जलेगा एक दीपक जो, कई दीपक जला देगा।
अँधेरा हार जाएगा, यही सबको बताता हूँ॥

चला हूँ कुछ बड़ा करने, बड़ा मन कर लिया मैंने।
मुझे जो खीचते पीछे, उन्हें आगे बढ़ाता हूँ॥

              (अँधेरा हार जाएगा–डॉ. अनिल गहलौत। पृ. 8)

उपर्युक्त पंक्तियों में सजल के प्रति समर्पण, प्रेम व महान उद्देश्य की भावना सजलकारों की पंक्तियों में परिलक्षित हो रही हैं। हिंदी के प्रति संवर्धन व उन्नयन के लक्ष्य को साधती सजल का भविष्य सुखद व व्यापक है।

आशा है कि हिंदी के प्रति आदर रखने वाले सजल के इस महा-अभियान में अपनी साहित्य-समिधा की आहुति अवश्य देंगे।
 

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टिप्पणियाँ

सरोजिनी पाण्डेय 2023/04/05 09:30 AM

इस लेख में विदेशी शब्दों से बचने की या किआंचलिक और प्रादेशिक शब्दों के मिलन की, उर्दू को हिंदी से हटाने की या फिर सजल लिखने की वकालत की गई है कुछ स्पष्ट स्थापित नहीं हो सका । यदि एक ही विषय को लेकर लेख लिखा गया होता तो अधिक प्रभावकारी होता। वैसे मेरी मान्यता है कि अधिक प्रचलित विदेशी शब्दों को भाषा में मिला लेने से हमारी भाषा समृद्धि ही होती है ।अंग्रेजी जिसको हम एक समृद्ध भाषा मानते हैं उसमें न जाने कितनी भाषाओं के शब्द मिलते हैं ।जिस तरह निरंतर प्रवाहित होती धारा अपने आसपास के तत्वों को अपने में समाहित करती चलती है भाषा का भी वही स्वरूप होना चाहिए मुख्य धार बनी रहे परंतु आसपास के तत्वों से उसे इंकार ना हो। वह विरोध करते करते स्वयं लुप्त हो जाएगी।

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