अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

व्यथा किताबों की

 

यूँ तो सबकी अपनी अपनी व्यथा होती है। लोग एक दूसरे से अपने मन की व्यथा कहकर मन हल्का कर लेते हैं। आज हम बात कर रहे हैं किताबों की व्यथा की। 

यहाँ मनोरंजन के नाम पर फूहड़ और हल्के लेखन वाली किताबों की व्यथा पर, हम आपको संवेदनशील करना चाहते हैं। 

बेचारी चटपटी मनोरंजक किताब बिकती हैं और चंद सिक्कों के लिए सस्ते लेखन से सिंकती भी हैं। 

आजकल किताब विज्ञापन छपवाने का साधन भी है। किताब पढ़ते-पढ़ते कब अंतःवस्र के विज्ञापन आ जायें और आपको झेंप कर किताब बन्द करनी पड़ जाये। ऐसे में किताबों की छाती पर दर्द उठना स्वाभाविक है 

किताबें संस्कार और गौरवमयी इतिहास बनाती हैं ऐसे में हल्के लेखन वाली किताबें, अपनी दुर्दशा पर लोगों का ध्यान, हमारे माध्यम से खींचना चाहती हैं। 

अनुजा प्लैटफ़ॉर्म पर बुक स्टाल खोज रही थी। कुछ क़दम चलते ही अनुजा को बुक स्टाल नज़र आया। बुक स्टाल पर प्रेमचंद, महादेवी वर्मा और धर्मवीर भारती समेत अनेक महान लेखकों की किताबें रखी थीं लेकिन अनुजा ने पढ़ने के लिए एक मनोरंजक किताब ख़रीदी। जिसके मुख्य पृष्ठ पर टूटा दिल और एक दूसरे से मुँह फेरे लड़का-लड़की बैठे थे। अनुजा को अभी तीन-चार घंटे रेलगाड़ी की यात्रा में बिताने हैं यह किताब अनुजा का समय बिताने में सहायक होगी; यही विचार करके अनुजा किताब ख़रीद कर रेलगाड़ी में चढ़ गयी। 

किताबों की एक और व्यथा है हृदय में देशभक्ति का दीपक जलाने वाली किताबों की जगह दिल-जले आशिक़ों की कहानियों ने ले ली है। 

अनुजा का बेटा विहान, बग़ल में माँ से चिपका हुआ किताब में ताका-झाँकी कर रहा था। एकाएक अनुजा असहज हो गयी। किताब के एक पन्ने को जल्दी से पलट दूसरा पन्ना पढ़ने लगी। उसे पन्ना तो पलटना ही था क्योंकि उस पन्ने पर अर्ध नग्न तस्वीरें थी। अनुजा को लगा होगा कि कहीं पास ही बैठा छह साल का उसका बेटा विहान इन अर्ध नग्न तस्वीरें ना देख ले। बेटा छह साल का ही क्यों ना हो परन्तु कोई माँ नहीं चाहती कि उसका बच्चा अश्लील तस्वीरें देखे। 

अनुजा ने एक के बाद एक कई पन्ने पलटे और थोड़ी ही देर में किताब सीट पर पटक दी। 

बेचारी व्यथित किताब . . . 

उसका क्या दोष? किताबों ने कभी नहीं कहा कि, मुझे फूहड़ मनोरंजन का साधन बनाओ। 

तमाम संस्थाएँ मानवाधिकार की रक्षा के लिए जागरूकता अभियान चलाती हैं। 

वैसे आजकल मानवों से अधिक जानवरों के अधिकार का फ़ैशन ख़ूब चल रहा है। सभी जानवरों के अधिकारों पर बात करते नज़र आ ही जाते हैं पर मजाल है कि किसी ने किताबों की व्यथा पर दो शब्द कहे हों। इसलिए लेखिका होने के नाते मैं किताबों की व्यथा आप तक पहुँचा रही हूँ। हो सकता है कि आपका विशाल हृदय मानवों और जानवरों के अधिकार के बाद, किताबों की व्यथा पर भी दो बोल बोल दे। 

वैसे किताबों की व्यथा या तो लेखक समझेगा या पाठक। 

इसीलिए किताब, लेखक और पाठक दोनों से ही रूठी बैठी है। 

 

लेखन को व्यवसाय समझने वाले लेखकों को भी ध्यान देने की आवश्यकता है। ज़्यादा मनोरंजन के चक्कर में चटपटी कहानियों के नाम पर अश्लीलता परोसने से बचें। नहीं तो पढ़ने वाला बदहज़मी का शिकार अवश्य होगा। 

अनुजा रेलगाड़ी के बाहर का दृश्य देखती जाती थी उसकी एक नज़र विहान पर भी थी क्योंकि छह साल का विहान बहुत ही शरारती था। तभी रेलगाड़ी रुक गयी क्योंंकि स्टेशन आ गया था। 

एक पुरुष अपनी बेटी के साथ अनुजा के सामने वाली सीट पर बैठ गया। उसकी बेटी की आयु लगभग बारह-तेरह साल की होगी। जैसे ही रेलगाड़ी ने गति पकड़ी सामने बैठे पुरुष ने अपने झोले से एक उपन्यास निकाला और पढ़ने लगा उसकी बेटी भी उपन्यास पर नज़र डालती जा रही थी धीरे-धीरे उस लड़की की आँखें किताब के शब्दों को पढ़ने लगीं। 

अनुजा यह सब देखकर मन में विचार करने लगी कि यदि उसने भी अच्छा साहित्य ख़रीदा होता तो उसकी यात्रा आसान हो जाती। लगभग आधे घंटे के बाद फिर से स्टेशन आया और रेलगाड़ी के रुकते ही सामने बैठे पुरुष ने उपन्यास को अपने झोले में रख दिया और बेटी के साथ स्टेशन पर उतर गया। आगे फिर से एक और स्टेशन आता है अनुजा अपने बेटे विहान के साथ स्टेशन पर उतर जाती है। 

धीरे-धीरे रेलगाड़ी ख़ाली हो जाती है रह जाती है अनुजा की मनोरंजक किताब। 

एक लड़का जो चने बेच रहा था उसकी नज़र मनोरंजक किताब पर पड़ी उसने किताब को उठाकर अपनी बग़ल में दबा लिया। 

प्लैटफ़ॉर्म के नीचे उतर कर चने बेचने लगा। तभी एक लड़की ने कहा, “दस रुपये के चने दे दो भ‍इया।” 

चने वाले ने मनोरंजक किताब का एक पन्ना फाड़कर चने डालकर उस लड़की को दे दिये। 

तो अब न्याय आपको करना है कि इन किताबों की व्यथा का दोषी कौन है? 

ऐसी किताबें ख़रीदें जिसे आप अपने पुस्तकालय में स्थान दे सकें और आपके घर का हर एक सदस्य अलमारी में से किताब निकाल कर पढ़े और प्रेरित हो सके। 

“अच्छी पुस्तकों को पढ़ें 
अपने चरित्र को गढ़ें”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अथ केश अध्यायम्
|

  हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार…

अथ मम व्रत कथा
|

  प्रिय पाठक, आप इस शीर्षक को पढ़कर…

अथ विधुर कथा
|

इस संसार में नारी और नर के बीच पति पत्नी…

अथ-गंधपर्व
|

सनातन हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार इस…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सजल

रचना समीक्षा

कविता

एकांकी

कहानी

साहित्यिक आलेख

ललित निबन्ध

व्यक्ति चित्र

गीत-नवगीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं