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लाश : एक समीक्षा

 

कहानी: लाश
लेखक:
सुमन कुमार घई
 

कुछ जीवन संसार में रहते हुए भी लाश के ढेर जैसे होते हैं और मरने के बाद भी लाश बनकर लोगों की ख़बरों का हिस्सा बनते है। मुँहबोले भाई के साथ परिवार वालों के दबाव में किया गया विवाह, सच में किसी को भी अपराध–बोध से भर देगा। “इसकी मर्ज़ी को बचपन से ही मार दिया था माँ-बाप ने” ऐसे वाक्य नारी जीवन के झंझावातों से परिचय करते हैं। तनाव में घिरी मुख्य पात्र वह महिला जिसका कोई नाम नहीं वह पहचानी जाती है तो लाश के नाम से, वह महिला बच्चा होने के बाद और भी अधिक मानसिक रोग से ग्रस्त हो जाती है। संभवत बच्चे को देखकर उसका मन और भी अपराध–बोध की भावना से भर जाता होगा। ऐसा अपराध जो उसने किया ही नहीं; पारिवारिक दबाव के आगे विवश थी वो, क्योंकि वह नारी थी। उसे अधिकार नहीं था कि वह अपने जीवन पर अधिकार जमाये इसलिए स्वयं को दोषी मानकर सब भूलने के प्रयास में नशे की लत में पड़ गयी। 

सुमन कुमार घई जी की कहानी ‘लाश’, अपने शब्दों में बेहद सादगी से अपनी बात कहने का सामर्थ्य रखती है। “बेचारी बेटी होकर भी कभी बेटी न हुई . . .” ऐसे वाक्य मन को निचोड़ देते हैं। वहीं दूसरी ओर “हाय नी! देशी ब्लाँड!” जैसे वाक्य कहानी के पात्रों के बात करने के तरीकों से वाक़िफ़ कराते हैं जो हो सकता है कि आप के आस–पास ही कहीं मिल जाएँ। कुल मिलाकर जटिलताओं के भँवर में उलझी नारी जीवन को इंगित करती कहानी, पाठकों को कुछ पुराने क़िस्सों से जोड़ेगी। 

संगीता राजपूत “श्यामा” 

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2023/03/03 07:12 PM

बहुत सुंदर और सार्थक समीक्षा. ...

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