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ताड़ना

 

पथराई आँखें और बिस्तर पर पड़ा मृदु का मृत तन। बारीक़ी से निरीक्षण करते पुलिस-कर्मी, बाहर कमरे के आस-पास लोगों की भीड़ लगी है। ये भीड़ शोक व्यक्त करने वालो की भीड़ नहीं बल्कि तमाशा देखने वालों की है। भीड़ में अधिकांश वे महिलायें है, जो घर का काम-काज समेटकर छज्जे, खिड़की या देहरी पर बैठकर आते-जाते लोगों को ताड़ती हैं। ताड़ने वाली इन महिलाओं के निशाने पर वे महिलायें होती हैं जो स्वयं को सलीक़े से रखती हैं, नौकरी करती हैं व समाज में किसी न किसी रूप में अपना योगदान देती हैं। 

कुछ देर बाद डॉ सुधांशु के बोल कमरे में गूँजते हैं, “अरे! इसे क्या हुआ?” इसके आगे डॉ. सुधांशु का चेहरा भाव व्यक्त करता है। 

एक महिला पुलिस-कर्मी ने डॉ. सुधांशु से पूछा, “आप जानते हैं इसे . . .?”

“हाँ! ये मृदु है . . . अवसाद की मरीज़! पिछले एक वर्ष से नियमित रूप से हर महीने, मेरे पास अपना इलाज करवाने आती थी परन्तु इस बार दस बारह दिन बाद ही आ गयी।” 

चेहरे पर उत्सुकता के भाव लिए महिला पुलिस-कर्मी अलमारी में कुछ पेपर निकाल कर पलट रही थी, उसने डॉ. सुधांशु की और देखा और कहा, “ताजुब है . . . इस महिला की अच्छी-ख़ासी सैलरी, अच्छा स्टेटस और इसकी मार्कशीट देखकर पता चलता है कि ये पढ़ाई में भी बहुत अच्छी थी। ऐसा क्या हुआ . . . जो इसने आत्महत्या की . . . अविवाहित भी थी, मोबाइल चेक करने से कोई संदिग्ध सूराख़ नहीं मिला . . .। आपको क्या लगता है . . . क्या वजह रही होगी . . . आत्महत्या की . . .?” 

डॉ. सुधांशु कहने लगे, “मृदु ने बताया कि, एक वर्ष पहले वह मुंबई से अलीगढ़ काम के सिलसिले में शिफ़्ट हुई थी। जहाँ वह रहती है वहाँ की महिलायें उसे ताड़ती हैं।” 

“ताड़ती है . . . मतलब?” महिला पुलिस-कर्मी ने पूछा।

डॉ. सुधांशु कहने लगे, “मृदु बताती थी कि मुहल्ले की महिलायें उसे देखकर बुरा मुँह बनाकर फुसफुसाती हैं। कई बार तो तेज़ आवाज़ में आपस में बात करती हुई मृदु के लिए अपशब्द का प्रयोग करती हैं। वे महिलायें मृदु की सभी गतिविधियों पर नज़र रखती थीं।” 

डॉ. सुधांशु की बात सुनकर कमरे की भीड़ ग़ायब हो चुकी थी। 

ताड़ना की प्रताड़ना से प्रताड़ित मृदु की आँखें शून्य को अब तक निहार रही थीं। 

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